Saturday, May 18, 2013

सिमटता आकाश ...............


बड़ी सी बचपन की छत 
दूर तक फैला था गगन 
बादलों में बनती बिगडती 
आकृतियों संग जुड़े थे स्वप्न

आज बंद, 
चौकोर सा कमरा 
कमरे की छोटी सी छत 
बस उतने में ही सिमटी 
रह गयी अब हर हकीकत

अनन्त, बिन कोने का 
गोलाकार आकाश था कैनवस
ज़माने के बदले रंग ढंग 
कैनवस में भी आ गई सिकुडन

चकरी की भाँति 
अपनी ही धुरी पे घूमता 
छत से लटका पंखा 
अपना सा है लगने लगा

सोच का दायरा 
बड़ा भी लें 
तो आखिर कितना
आवाज़ टकरा के 
लौट आती है 
दीवारों से तुरंत

सिर्फ मेरा ही नहीं 
हाल है ये हर उस शख्स का 
जिसने देखी होगी कभी 
तारों की अनंत दीपशिखा 
अपनी ही मुठ्ठी में 
कैद करने की संजोई होगी चाह

भागम -भाग, छुपन -छुपाई
खेल-२ में चढ़ाई होगी श्वास
बिस्तर पे लेटते ही 
नानी-दादी से सुने होंगे किस्से 
और बातों बातों में नींद 
ले लेती होगी आगोश में

आज नींद रहती कोसों दूर 
कूलर ,ए सी भी अक्षम 
शरीर खुद को लगे है बोझ 
न खेलने में, न काम में सक्षम

केवल बिजली सी रफ़्तार
और दौड़ रहा है दिमाग 
न चैन-ओ-करार 
न पल भर को आराम 
बस बंद हैं कमरे 
और सपनो को लगी लगाम...................... पूनम 

Sunday, May 12, 2013

मातृशक्ति को नमन ........मातृत्व दिवस के उपलक्ष्य में ....




औरत को जब-जब मिले माँ का स्वरुप

नतमस्तक हो जाये नर, दानव-औ-देवदूत

हर क्षण माता-पिता के प्रति आदर-सम्मान और सेवा भाव के लिए है परन्तु किसी दिवस को हम विशेष बना देते हैं जब हम माता या पिता को केंद्र में रख कर मनाते हैं ....

कभी सोचा कि एक रचना रची जाए, कभी लगा कि आप से बात करी जाए ...’माँ’ ..एक ऐसा शब्द है जिसमे संसार बसा है तो लगा कि एक रचना में कैसे समाएगा यह अनंत स्नेह-सिक्त सागर ...और ऐसा भी नहीं कि माँ के बारे में लिखने वाली मैं पहली होउंगी .....साहित्य में माँ के नाम के परचम सबसे ऊपर लहराते हैं ...कोई भी विधा हो-कहानी ,कविता ,ग़ज़ल -सभी में माँ को शिरोमणि का दर्जा दिया गया है .....सूर्योदय से चंद्रोदय तक माँ चक्रघन्नी की तरह पूरे घर में दृष्टिगोचर होती है ......पति ,बच्चे ,बड़े-बूढ़े –परिवार का कोई भी सदस्य हो ..माँ के ध्यान से छूट जाए ....ऐसा हो नहीं सकता ......इसी प्रकार ..देश दुनिया का कोई भी साहित्यकार ‘माँ’ पर लिखने से अछूता रहा हो ......ऐसा मुझे नहीं लगता |
आज जब मैं कभी भी पीछे मुड के देखती हूँ  तो मन में अपनी माँ के लिए श्रद्धा का ऐसा ज्वार आता है जो अश्रु रूप में नैनों से बहने लगता है और अनेकों-अनेक धन्यवाद देता है यह मन उनके निस्वार्थ भाव से किये गए हमारे लालन पालन के लिए .......हमें वो बनाने के लिए  जो आज हम हैं |
ज़हनी तौर पे जो तस्वीर बसी है मेरी माँ की ......वो शर्तीय किसी और ने नहीं देखी होगी ...और आज मैं उसी चित्र के कुछ रंग आप से साझा करना चाहती हूँ .....वैसे तो हम पांच भाई बहिन हैं ......पर हर एक ने कुछ खास चित्र अंकित किये होंगे अपने मस्तिष्क-पटल पे|
मुझे तो मेरी माँ ,जिन्हें हमेशा से मैंने मम्मी कहा है, उसी पवित्र रूप में याद आती हैं ......सुबह सवेरे उठकर नहा-धोकर, खुले, घुंगराले केशों को अपनी सूती धोती के पल्लू से ढकती हुई मम्मी रसोई में सारे बर्तन खाली कर दुबारा से पानी से भरती थी ..उनकी दिनचर्या का आज भी यह महत्वपूर्ण भाग है .....बालों को दोनों कानो से थोडा सा उठाकर एक पतली सी गुथ में बांध लेती थी .....एक नयी दुल्हन सी सुंदर लगती थी मेरी मम्मी मुझे ...माथे पे लाल बिंदिया गोर रंग पे बहुत निखर के आती थी ....आज मेरी मम्मी की त्वचा झुरियों से भर गयी है .शरीर भी सिकुड़ कर छोटा सा रह गया  है .....मेरे काँधे तक आने वाली मेरी मम्मी अब उतनी स-शक्त नहीं रही जितना मैं उन्हें अपने बचपन से  देखती आई हूँ| .

शायद हर माँ ही .........हाँ ‘मैं’ भी ...एक अजीब सी दैवीय शक्ति से भरपूर होती है  जो उसे भगवान के जैसी ही सर्वज्ञ, सजग  और सम्पूर्ण बना देती है ....पूजा करती हुई मेरी मम्मी को देखकर मुझे लगता था कि शायद मम्मी अपने लिए कुछ मांगती ही नहीं ........ बच्चों की ख़ुशी के लिए सर्वस्व  न्योछावर करने की इच्छा शायद सबसे अधिक माँ में ही होती है  जो एक चाबी सी भर देती है माँ के शरीर में .....वैसे तो हर बालक को अपनी माँ के हाथ का बना खाना सबसे स्वादिष्ट लगता है .....पर यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी जब मैं कहूँगी कि मेरी मम्मी के हाथ का बना खाना खाने के बाद कोई भी उंगलियाँ चाटे बिना नहीं रह सकता |

एक अनोखा गुण जो मैंने बहुत कम लोगों में देखा है .....वो यह कि मम्मी  मार्किट में भी सिर्फ खरीदारी नहीं कर के आती थी वह तो दिमाग भी भर लाती थी नए नए विचारों से .....और घर आकर उन्हें हमारे कपड़ों ...मेरे लिए फ्राक .दीदी के लिए सूट ..भाइयों के लिए शर्ट, नेकर .....पापा के लिए कुर्ते-पजामे ...और अपने खुद के ब्लाउज़  में बखूबी ढाल देती थी ....वो क्षण अविस्मरनीय होते थे जब उनकी आँखे चमक जाती थी ......उन कपड़ों में हमें सजे संवरे देख के |

घर में आने वाले मित्र ,रिश्तेदार ,अड़ोसी-पडोसी  कोई भी ऐसा नहीं होगा जिसने उनकी कर्तव्य निष्ठा पर पुष्प समान शब्दों की वर्षा न की होगी ........मेरे बच्चे भी नानी के सामने मुझे गौण ही कर देते हैं और सही भी है ...उनकी छाया हैं हम...कितने भी बड़े ,संपन्न हो जाए .....उनके रोशन तेज के समक्ष कुछ नहीं |

औपचारिक शिक्षा तो विद्यालय ,कालेज इत्यादि में मिलती है सभी को .....परन्तु माँ तो अनुभव का वो पूर्ण संसार है जो चलता–फिरता गुरुकुल है परिवार के सभी सदस्यों के लिए| उनके द्वारा पुराने रीति-रिवाजों को निभाते हुए सभ्यता और संस्कृति का हस्तांतरण करना (जैसे कि मम्मी का गोबर से गोवर्धन और दशहरा बनाना और दीपावली पर खड़िया से हटड़ी को लीपना).., .....बच्चों के संग बच्चा बन कार्टून फिल्म की बाते करना , बातो-बातों में गिनती, पहाड़े , नर्सरी-राइम्स याद करवा देना ,........बहुओं-बेटियों  के संग टी. वी. धारावाहिक के किरदारों की चर्चा करना और सम –सामयिक विषयों जैसे समाज में फैली विकृतियों -सामूहिक रेप , भ्रष्टाचार इत्यादि पर अपनी बेबाक राय रखना तथा काम करते-२ आजकल के ज़रूरी अंग यानी मोबाइल और कंप्यूटर का सफल उपयोग करना.......अपने समकक्ष लोगों के साथ ग्रंथों में निहित ज्ञान पर तर्क-वितर्क करना ......साबित करता है .......

परिवार को जोड़े रखने का मज़बूत आधार.......माँ स्वयं ही  एक सम्पूर्ण संसार |
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Saturday, May 11, 2013

निश्चय की चमक .............

नंदिता, फिल्म की नायिका की भूमिका निभाती आई है अब तक ...अपने शहर का क्या कहें पूरे देश में उसके नाम की गूँज है ....पर जब गूँज उसकी बड़ी सी कोठी में पहुँचती है तो न जाने क्यूँ .वहां की मृत पर्याय चुप्पी से टकराकर ,वो भी शांत हो जाती है ......नंदिता कितने ही बड़े एल सी डी टी वी पे अपनी या औरों की फिल्म देख ले ......गीत पूरे वॉल्यूम पे सुंनले ....हाई वॉल्यूम स्पीकर्स भी उसके अंतर्मन की चुप्पी को भेद नहीं पाते .......नितांत अकेला महसूस करती है वह .जब भी शूटिंग ख़त्म कर घर (सिर्फ कहने मात्र को ) आती है .......माँ -बाप ने तो बहुत पहले ही उससे किनारा कर लिया था जब उसने फिल्मी दुनिया में जाने का अपना निर्णय सुनाया था .......दोस्त-रिश्तेदार तो फिर भी शोहरत में भागीदार बनने के लिए दौड़े चले आये थे ......''हमारी अपनी नंदिता .....हमारे हाथों में खेली -पली बड़ी'' और न जाने कैसे कैसे जुड़ाव लिए .......भीड़ सी जमा हो जाती है जब भी कोई फिल्म रिलीज़ होती है या हिट होती है .......एक खास मित्र था ......उसे भी फ़िल्मी दुनिया ने दूर कर दिया .....क्योंकि वो रात दिन की शिफ्ट्स ........देश-विदेश के लम्बे ट्रिप सह नहीं पाया और शादी कर ली .................


कहने को ज़माना 'फैन' है नंदिता का .......हजारों की तादाद में चिठ्ठियाँ ,इ मेल्स ,फ़ोन कॉल्स आती हैं लेकिन उन्हें तो सेक्रेटरी सम्भालता है ........पत्रिकाओं और अखबारों में छपी तस्वीरें भी कब तक दिल बहलाती ........अन्दर ही अन्दर खोखली होती जा रही है नंदिता दिन ब दिन ......दिन तो फिर भी शूटिंग के शोर-ओ-गुल में कट जाते रहे है .......लेकिन शाम होते-होते एक अजीब सी उदासीनता उसे घेरने लगती है .....कहने को बहुत से बॉय फ्रेंड्स थे ..........पर कोई भी शरीर से मन की दूरी तय नहीं कर पाया अब तक .....रात के सन्नाटे खाए जाते हैं ......... सारी जिन्दगी आँखों के आगे चलचित्र सी दौड़ जाती है ........खिड़की से झांकता चाँद भी जैसे मूंह चिढाने लगता है .......मानो कह रहा हो .......क्या करोगी इस सुंदर चेहरे ......इस दिलकश बदन का .........जब कोई है ही नहीं इसे निहारने ,सहलाने, सवारने के लिए ......कोई नहीं जो दिल में कही गहरे जा बसी तन्हाई को अपने प्यार से दूर करे .....कोई जो घंटों बैठ कर उससे बात करे ........कुछ ही साल पहले तो 'वो' था जो उसका (सिर्फ उसका) साथ चाहता था ....नंदिता को देखना, उसकी चुप्पी को सुनना , उसकी आँखों को पढना .........कितना पसंद था उसे ........!!!!!!!!! और आज ........सोचते-सोचते नंदिता को कब नींद आ जाती है .......कब उसके सिरहाने रखी डायरी के पन्नो में आंसुओं की नमी घर कर जाती है ..........पता नहीं चलता ...........और सुबह के चमकते सूर्य की रौशनी में नंदिता फिर एक व्यस्त दिन के लिए मेक अप और गौगल्स में आँखों की स्याही छुपाकर तैयार हो जाती है .........सिलसिला है .....न जाने कब और कहाँ थमेगा .......??????????????????

हर किसी प्रसिद्द परन्तु अकेली नायिका की कहानी की तरह नंदिता की जिन्दगी भी यूँही गुज़रे .........ये उसे मंजूर नहीं था .....कैसे वो अपने को एक अबला नारी की तरह किस्मत के सहारे छोड़ दे ....कैसे फ़िल्मी चकाचौंध में वह अंधियारी गलियों में खोती चली जाए ......कैसे किसी पुरुष साथी के न मिलने की चाह को अपने ऊपर हावी होने दे ...........दूर........भविष्य में किसी अकेले से कमरे में अत्यधिक शराब के नशे में ख़ुदकुशी की खबर को .........अखबार की सुर्खियाँ बनने दे ......?........यही सोच नंदिता के कदमो में एक अनजाना सा उत्साह ले आई .........और उसके कदम आज एक वृद्धाश्रम की ओर मुड गए स्वत: ही ......वहां एक वृहद् वृक्ष के नीचे बैठी खुद से बतियाती बूढी अम्मा के नज़दीक जा नंदिता पूर्ण संतुष्टि से उसको पीठ पे सहलाने लगी ........अम्मा मुड़ी ......नंदिता की आँखों में एकटक देखने लगी ......नंदिता ने उसके कमज़ोर, कंपकंपाते झुरियों से भरे हाथ अपने हाथ में लिए .......और धीरे-धीरे सहलाना शुरू किया ....कहीं भीतर ऐसा लगा जैसे उसे खुद को ही कोई हलके हलके थपथपा रहा हो .....मोबाइल पर घंटी बज रही थी ..बजती ही जा रही थी .........पर आज नंदिता को स्टूडियो जाने की कतई जल्दी नहीं थी ..........वह आज निश्चय कर चुकी थी .......और उसकी आँखें अपने निश्चय की प्रतीक बन चमक रही थी ख़ुशी से ..........एक ऐसी ख़ुशी जो अब उसके साथ रहने वाली थी ..............लम्बे समय तक .........................!!!!!!!


पूनम माटिया 
9/5/2013
poonam.matia@gmail.com
 

Monday, May 6, 2013

चक्रधर...............Chakradhar...........



चक्रधर से कहाँ छिपे हैं आज के दर्शनीय दृष्टांत 
वो भी होगा परेशां, होगा उसका भी चित अशांत

कोटि-कोटि प्रार्थनाएं पहुँचती होंगी उस तक
कब तक इन सूचनाओं पर न देगा वो ध्यान

उठती होंगी लहरें, मचलते होंगे असंख्य तूफ़ान
कब तक साहिल की सीमाये सकेंगी उसे बांध

श्री कृष्ण ने दिया था भगवत-गीता में सन्देश
आऊँगा मै जब भी बढेंगे कलियुग में कलेश

आएगा एक दिन ‘वह’ रूप इंसा का धार कर
लेगा अवतार, दुष्टों का करेगा नाश संघार कर

अपने नाम का न होने देगा वह अपमान यूँ
सृष्टि रची है उसी ने, न हो ए-इंसा परेशान तू

ढोंगी साधू बेशक रहें जपते माला के मनके
जमाते रहे भीड़,सजाते रहे मस्तक पर तमके

आएगा, जब तो घंटियों की मधुर ताल होगी
गुंजित आसमा और धरा एक पुष्प-माल होगी

देर हो जाये भले न अंधेर होगी, ये विश्वास है मेरा
चक्र की धार न 'कल' कम थी न 'कल' कम होगी

Wednesday, May 1, 2013

मोक्ष को तरसती आत्मा......

आत्मा का सफ़र खत्म होता नहीं 
चलता रहता है ये अनंत , चैन पल भर नहीं 

                                               गुजरता है बरसो-बरस कई जज़ीरों से
                                               जानवर , पक्षी , फूल या हम-तुम
                                               जैसे कई शापित मानवी शरीरों से 


जब तक ना हो जाए हमारे कर्मो का हिसाब
मोक्ष को तरसती रहे आत्मा ,चलता रहे 

जन्म-मरण और जन्म फिर , यह चक्र चिरकाल 

                                               कश-म-कश में रहे है जीव ,
                                               कब , कहाँ और कैसे मुक्त हो इस जीवन चक्र से
                                               लालची पूजे देव-देवी या कोई हो पत्थर निर्जीव 


इसी आशा में जीवन गुजरता जाए
देंगे कभी तो देव हमें मोक्ष का कोई उपाय


                                                                                                        ..............पूनम