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Friday, December 19, 2014

प्यार की पहली फ़ुहार……रायबरेली के 'दिशेरा टाइम्स' में प्रकाशित



    • Poonam Matia

      Poonam Matia
      प्यार की पहली फ़ुहार……..
      ‘सभी दरवाज़े बंद ...आँगन में सन्नाटा सा ....सिर्फ एक खिड़की से आती हुई ट्यूब की रौशनी. अक्सर ही मेरी नज़र उस तरफ चली जाती थी जब भी टहलते हुए कुछ देर के लिए रूकती थी मैं. एक जगह बैठ के कभी पढने में मज़ा ही नहीं आता था . कभी कमरे में, कभी बगीचे में और कभी छत तक जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ जाती थी अपनी किताबों और नोट्स का पुलिंदा लेकर. रजिस्टर हाथों में उठाकर घूम-घूम के रट्टा लगाती हुई जब भी मेरी निगाह खिड़की से बाहर जाती थी तो न जाने क्यूँ उस खुली खिड़की से आती हुई रौशनी को देख थम सी जाती थी, खोजी दिमाग में प्रश्न अनेक आते थे . कौन है वहां ,क्या कर रहा है ? कभी देखा ही नहीं किसी को वहां घुसते या निकलते! बस इन्ही प्रश्नों के जवाब खोजती एक दिन जिद्द सवार हो गयी मुझपर कि आज तो पता करना ही है वहां उस खिड़की के पार उस कमरे में कौन है जिसका मुझे कुछ अता-पता ही नहीं था . मेरे हाथ की किताब अचानक थम्म से गिर गयी जब मैंने वहां से एक गोरे से ,लम्बी कद-काठी वाले चश्मिश लड़के को सुबह छह बजे निकलते देखा. वह बिना इधर-उधर देखे अपनी ही किसी धुन में खोया ताला लगा कर चल दिया. आज जब यह दृश्य आँखों के सामने से गुज़र रहा है तो फिर वही खलबली सी है दिल में और एक अजीब सा अहसास है, ग्लानि भी है शायद . कितनी बचकाना सी हरकत की थी हम सहेलियों ने मिलकर, जब मैंने स्नेहा को बताया कि एक स्मार्ट सा लड़का उस किराये के कमरे में पढने आता है सी ए की परीक्षाओं के लिए. हाहाहा सब खोज खबर निकाल ली थी हमने अपनी सहेली टीना से जो उस घर के सामने ही रहती थी. टीना ने बताया था कि सिर्फ कुछ ही दिन पहले उसने वह कमरा रेंट पर लिया है और यह बात उसने भी अपने सोर्सेज यूज़ करके निकलवाई थी किसी से . खैर जब पता चल ही गया तो बरबस निगाह उस तरफ जाने लगी. कब आता है, कब जाता है? एक खेल या कोई प्रोजेक्ट सा बन गया था, जैसे कि उसके खत्म होने के बाद दुसरे प्रोजेस्ट्स की तरह को ग्रेड्स मिलने वाले हों . क्यूँ न बनता? आखिर वो इधर-उधर देखता ही नहीं था, जब कभी बाहर निकलता तो बस नज़रें नीचे किये हुए. मुझे तनिक भी स्वीकार्य नहीं था कि कोई ऐसे भी लड़के होते हैं जिन्हें अपने आस-पास देखने का मन न करे और सच कहूँ तो इन्सल्ट सी फील होती थी कि कैसे कोई सुगंधा यानि मुझे अनदेखा कर सकता है . हाहाहा! मेरी सहेलियों ने चने के झाड़ पे जो चढ़ा रखा था मुझे कि मुझसे सुंदर कोई है ही नहीं . यह रोज़ का किस्सा बन गया सुबह छह बजे खिड़की की ओर स्वत: ही नज़र चली जाती थी. उठी तो वैसे ही रहती थी पढने के लिए किन्तु घर में कहीं भी हूँ भाग कर जाफ़री, (हाँ, यही कहते थे अंग्रेजों के जमाने में बने उन क्वाटर्स के आखिरी कमरे को) में पहुँच जाती थी. दिन में हम सहेलियां भी सैर को उस घर के आगे से निकलती थी हंसती हुई और जानबूझ कर ऊंची आवाज़ में बात करती हुई और आखिरकार ‘उसने’ आँखे उठाकर देख ही लिया .वाओ! एक जीत का अहसास हुआ, मानो क़िला फ़तह कर लिया हो हमने . चलो अपनी और बातें फिर बताउंगी अभी बच्चों के स्कूल से वापस आने का समय हो गया है. हाहाहा! तुम भी बहुत मज़े लेकर सुन रहे हो, है न ?’ सुगंधा ने टेलीफोनिक साक्षात्कार को वहीँ रोक, अगले दिन का समय निश्चित किया और रसोई में जाकर खाने-पीने की तैयारी में ऐसे लग गयी जैसे कुछ हुआ ही न हो . ह्म्म्मम्म अब यह रसोई का काम , कपडे धोना ,घर साफ़ करना आदि-आदि के साथ फ्रीलांस रिपोर्टिंग करना उसकी दिनचर्या में शामिल जो था .इसी के सिलसिले में स्वप्निल ने उससे साक्षात्कार प्लान कर लिया था. ‘एक दिन मैंने जब खिड़की को खुले नहीं देखा तो बैचैनी सी होने लगी .कहीं उसने घर छोड़ तो नहीं दिया ,कहीं वो बीमार तो नहीं हो गया ? ऐसे ही अनगिनत सवाल ज़ेहन में उठने लगे’, सुगंधा खोई-खोई सी बोलती चली जा रही थी और स्वप्निल अपना माइक लिए उसके सामने बैठा उसके चेहरे के उतार-चड़ाव बड़े गौर से देख रहा था . आज वह उससे अपॉइंटमेंट ले घर ही आ गया था . ‘अचानक ही ‘वह’ (आज भी उसका नाम मुझे मालूम नहीं, क्यूंकि कभी बात ही नहीं हुई) आया और ताला खोलने लगा. मैंने चैन की सांस ली और वापस पढने ही बैठने वाली थी कि ‘उसने’ नज़रे घुमाकर चुपके से मेरे घर की ओर देखा. ओह! मैं झट से नीचे बैठ गयी ,कहीं वो मुझे देख न ले देखते हुए. इतने दिन से दिल में एक चाह थी कि ‘वो’ मुझे देखे तो सही और उस जब उसने देखा तो न जाने कितनी ही लहरें मेरे दिल में एक साथ ही उठ गयीं मानो कोई तूफ़ान ही न आ जाये’ , सुगंधा मुस्कुराते हुए कहती जा रही थी . स्वप्निल ने कुछ कहने के लिए अभी मुँह ही खोला था पर न जाने क्या सोच कर चुप हो गया और सुगंधा के हाव-भाव ऐसे देखने लगा जैसे आवाज़ के साथ वो भी माइक में रिकॉर्ड कर लेगा.
    • contd....................
  • Poonam Matia

    Poonam Matia


    ‘मुझे वहां न पाकर ‘वो’ अन्दर चला गया और मैं वहीँ बुत बनी सोचती रह गयी कि आखिर ये मुझे हुआ क्या है,’ सुगंधा बोलती जा रही थी . ‘स्नेहा जब शाम को साथ पढने आई तो उसे मैंने सब बताया. उसने कहा कि चल ‘उसके’ घर के आगे घूम के आते हैं . मैं भी पगली सी ‘उसकी’ एक नज़र फिर से पाने को चल पड़ी. हमारी आवाजें सुनके ‘वो’ बाहर आया ,हाथ में तब भी किताब ही थी . ‘उसने’ हम दोंनो को देखा और अनमना सा वापस चला गया. फिर तो कमाल ही हो गया ,शाम को खिड़की से ‘उसका’ चेहरा नज़र आने लगा. हाहा हा! वो भी मेरी तरह घूम घूम के पढ़ने लगा था. नज़र से नज़र मिलती थी और बस फिर अपनी अपनी पढ़ाई में लग जाते थे हम दोनों. अब वो अपने हाथ में एक गुलाब का फूल भी लेकर पढने लगा था. हम सहेलियां यह देख बहुत ज़ोर–ज़ोर से हंसती थी और मुझे लगा कि प्रोजेक्ट ओवर.’ स्वप्निल ! जब मैं परीक्षा के बाद अपनी बुआ के घर कुछ दिन रह कर वापस आई तो मेरी निगाहें बरबस ही उसकी खिडकी की ओर मुड गयीं . वहां कोई नहीं था, न ही किसी के होने का आभास ही. पढ़ाई के बहाने से टीना के घर गयी तो पता चला कि ‘उसने’ बिना कोई कारण बताये रूम छोड़ दिया था.’ इतना कहते ही सुगंधा की आँखों में आंसू की बूँदें छलक आयीं और वह भीतर चली गयी. स्वप्निल सोच रहा था, ‘ये कौनसा सा अहसास था जो आज भी सुगंधा को उस अनजान लड़के से जोड़े हुए था या फिर यह वो अल्हड़ प्यार की फ़ुहार थी जो सुगंधा को आज भी बरबस भिगोये देती है.’

Thursday, December 18, 2014

इम्तिहान-ए-ज़ीस्त में फ़ेल हो गए......













भवें तनने लगी
पर पलकें नम होने लगी
अजीब सी परिस्थिति, विकट सा मायाजाल
कानों में गूंजते गोलियों के धमाके
टीवी कमेंटेटर के रुंधे स्वर
एक के बाद एक

‘बाल शहीदों’ की गिनती में इज़ाफा
माँओं ने कुछ बुने ख़ाब
सजाये पिताओं ने उनमे कुछ गौहर नायाब
सज संवर बाँध कमर में पेटी, गले में टाई
हर इम्तिहान को तैयार स्कूल को चले ‘नवाब’
पर अलामते बरसीं और
ज़िन्दगी की परीक्षा में ‘फ़ेल’ हो गए
ये मासूम आखिर क्यूँ जीवन की पटरी से
बे-वक़्त ‘डी-रेल’ हो गए?


‘जिहाद’ के नाम पर धमाके
तो पहले भी हुए बहुत
ऊंची इमारत, होटल, घर, मंदिर, संसद
सरहद के इस पार, सरहदों के उसपार
कभी ये दोषी ,कभी वो दोषी
समझाकर हर बार हमने ख़ुद को किया तैयार ,
मालूम हैं नहीं रुकेंगे ये दहशतगर्द
पर! इस दफ़े कुछ टूट गया है भीतर
झंडा’ कौनसा है? नहीं है ख़बर
क्या ‘गीता’, क्या ‘कुर’आन’
हर एक ‘ज़िन्दा’ है बस हैरान, परेशान
किसी तसव्वुर में ,किसी ज़ाविये से
इस खूँ का बहना जायज़ है क्या ???
कौनसा ज़ुल्म, कौनसा जुर्म , कौनसा कहर
बरपाया था नौ-निहालों ने ?
जो इम्तिहान-ए-ज़ीस्त में फ़ेल हो गए
ये मासूम आखिर क्यूँ जीवन की पटरी से
बे-वक़्त ‘डी-रेल’ हो गए?

पूनम माटिया 'पूनम'    





 






Sunday, December 7, 2014

http://citymag.in/articles/articledetails.php?articleid=523&fb_action_ids=835882206454370&fb_action_types=og.comments

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Good touch or Bad touch
- Save your children


Read My Full article at @Citymag.in ............ 
Dear friends, you all must be wondering why I am talking about such philosophical facts. Actually, Childhood is the most pliable, soft and sponge like stage of life when good/bad/ugly , all have equal chances of getting absorbed. Simultaneously, this is ‘the age’ when it’s very difficult to offer difficult, rather I should say ,heavy sex-related information to sink in their, yet not matured minds .
Across the world and especially India, child sexual abuse is on all time high. Mentality of people, especially adults, has been observed to be ‘SICK’ ….. when we hear cases of rape of minors ranging from a few months to few years.
In addition, to our dismay, we find these rapists to be someone in the extended family or in the school or in the vicinity/neighbourhood.
Heart cries and mind aches when we hear reports of rape of young toddlers, preschoolers or primary school children, who haven’t even matured sexually what to say about their mental growth . As soon as something come up in media like in recent past when this type of incident happened in a Bangluru school , lots of discussions start and we see print and tele-media and now social media also to be engaged in hot discussions with pensive or bold statements coming from all sectors - social, political leaders demanding ‘death punishments’ and the like .
It is a tragedy that none wants to derive solutions ……. They only debate to score high among the speakers and to remain in headlines. ......Poonam matia

Saturday, December 6, 2014

समीक्षा पूनम माटिया द्वारा ............. कहकशां-रमेश सिद्धार्थ की दिलकश ग़ज़लें

कहकशां –
रमेश सिद्धार्थ की दिलकश ग़ज़लें
(वेदांत म्युज़िक क.)
इश्क़ जाने ख़ुदा कैसे, कब हो गया||
देखते- देखते ही ग़ज़ब  हो गया ||
पीर- ओ-murshid मुर्शिद जो ढूँढा किये उम्र भर|
इक झलक में ही हासिल वो सब हो गया ||
रोमांचित कर देने वाली आठ ग़ज़लों का नायब संग्रह है ‘कहकशां’ ग़ज़ल के शौक़ीनो के लिए –जिसमे रमेश सिद्धार्थ ने एक से बढकर एक मोती जड़ दिए हैं|  
इश्क़ में इंसान क्या क्या हासिल कर सकता है और किस कदर ख़ुदा की मेहरबानी उसपे अता होती है उसकी ताज़ा तरीन नुमाइंदगी देखने को मिलती हैं रमेश सिद्धार्थ के इन अशआर में|
इश्क का नूर ज्यों ही  उजागर हुआ|
ज़हन का हर ख़लल बेसबब हो गया ||
रूहानी ख़ुशी और सुकूं मिलता है जब रोहित चतुर्वेदी की दिलकश आवाज़ में एक के बाद एक खूबसूरत ग़ज़लें अपना रंग बिखेरती हैं|
तुम्हारे शाने से आती है ग़ैर की खुशबू |
मेरे यकीन को धोखा बताओगे कब तक ||

रिश्ते ,वफ़ा ,बेवफाई ,दूरियां ,यादें ,फुरक़त ..हर सिम्त घूम के आती है लेखक की सोच| .इसकी एक बानगी यूँ भी है-
ये जात –पात की दीवारें गर गिरानी हों| 
पढ़ो न पोथियाँ,पढ़ लो कबीर काफी है ||
गले मिलो तो सही, दिल पिघल ही जायेंगे |
कलह मिटाने को रंग और अबीर काफ़ी है ||
एकल और युगल गायिकी , दोनों ने ही नए आयाम दिए हैं ग़ज़लकार के अलफ़ाज़ को|.
ज़िन्दगी में गुज़रते हुए लम्हों और छूटते हुए रिश्तों के ज़ाविये से कई शे’र कहे गए हैं इन ग़ज़लों में जैसे ......
गुजरें लम्हों से वास्ता रखना ||
हमसे ज़्यादा न फ़ासला रखना ||
सूख जाए न प्यार का बिरवा ||
चंद पत्तों को तो हरा  रखना ||
रूमानी अहसास के कद्रदानो के लिए बार-बार सुनने लायक| दिली मुबारकबाद जनाब रमेश सिद्धार्थ को|.
ग़ज़लकार –रमेश सिद्धार्थ
संगीत –विपिन सुनेजा
गायक-गायिका-रोहित चतुर्वेदी ,भावना
मूल्य -120 रूपये
.................
समीक्षा : पूनम माटिया ‘पूनम’
(लेखिका ,कवियित्री ,संपादिका )

poonam.matia@gmail.com

Friday, December 5, 2014

नारी की दशा ................. भविष्य क्या है ??????????

दोस्तों ..... कुछ विचार आपसे साझा कर रही हूँ .........मेरे इस संक्षिप्त आलेख से ..जो दिल्ली अप टू डेट अखबार में प्रकाशित हुए ..... शायद अब आप ज़्यादा आसानी से पढ़ पायेंगे 

Sunday, November 23, 2014

Why ashamed being a HOMEMAKER ?

http://citymag.in/articles/articledetails.php?articleid=485&title=Why#.VHDpvtKUfvb

do read ............ and let me have ur views .......
Thnx
Poonam matia

Females working in various sectors are now earning big income packages worth lakhs annually. Seeing this, most women consider themselves incompatible and second grade –in fact, they feel ashamed being called ‘Just housewives’.

The common reason for this is the misconception that most housewives are either engaged in feeding the family or they are busy ‘showing off their jewellery’ and gossiping whereas the actual situation is just the reverse. A large portion of women who remain at home, instead of going for nine to five jobs, engage themselves in taking care of family members at home , training the next generation for the LIFE. 

Long back, around nineteen years ago ,when I Left my permanent PGT teacher’s job from a reputed private school , many a people (including my mom, too) said, ‘ What’s the use of studying so much when ultimately you have to sit at home…… if you did some job that would have been better … that way you would have contributed significantly to family’s income’.…….. This statement still haunts my mind and forces me to think again and again, ‘whether only ‘working outside home’ adds on to the income of the family?’ 

Dear friends what is your thinking about this ?????? 

If you ask me ,then I’ll say that instead of direct income ,the indirect income which a Housewife earns, is better in many respects. 

Household management , children’s upbringing , looking after their food ,clothing ,illness education, etc besides their ethical character is always better in our own supervision rather than under paid help. This not only saves on money but also an investment for their better future. 

Lets for a minute think, keeping aside their contribution to family, about the WOMAN herself …… we will come to the conclusion that a female can ,if she so desires, groom herself better in areas of her interests, she can acquire and get skilled in various arts ,if the family supports her. This kind of additional creative abilities are mostly difficult, if not impossible, with a full time job. 

This can be illustrated with this example …. Most school teachers remain focused and busy in completing syllabus and while doing so they completely forget to judge whether their teachings are going to child’s mind or not ,whether they are performing their duty of wholesome development of their students or not …………? 

No , no we can’t be inhuman in expecting so much from these humble creatures of God. As the school would punish them if the students don’t perform and pass the school examinations, they would be least bothered , ‘if the child passes the life’s exam or not’. I do, 100%, agree that women posted on high levels would certainly earn money more than housewives , but for that how many compromises they would have to make in the life……. It’s very difficult even to imagine. It’s my request to working women not to take my words otherwise, as I’m just not intending to say anything against them. 

An educated woman does a lot for the family and herself even if she is not ‘working’. And she still can do more which could be much more on mental, and social level than just monetary contribution. I have worded the duties and glory of a homemaker in a composition …… and I feel that You all … would agree with the Candid Torch ….called Homemaker by all .. 

THE HOME MAKER>>>>> Nature ‘there’, Nurture ‘here’ 


Whether sweet or sour God takes care of child’s ‘nature’
Reins of ‘nurture’ are entrusted with the HOMEMAKER. 


Brahma, Vishnu, Mahesh, the divine Trinity, 
Looks after the world to retain its sanctity. 
No lesser is the role of a homemaker,
Howsoever, insignificant is ‘HER’ stature.


A loving kiss, patting cheeks and a subtle, gentle stroke, 
Thumping shoulders, a warm cuddle, a reassuring poke,
A stern command, burning anger ,a hard unwilling slap,
Such emotional TOOLS come handy to her at every step.


A great Feeder, a Cleaner, a Tailor, a Technician,
Launderer, Vigilant Supervisor and a Beautician,
A HOMEMAKER needs to be all in one, on toes 24 by 7
Always sublimated jack of all but master of none.


‘Greens’ brewing oxygen worth crores, taken for granted.
So is the tireless, humble HOMEMAKER goes undaunted.


With best possible use of time, one must not hesitate in going on for higher education or skill improvement courses. The inner creative points should be identified and effort should be done to sharpen them instead of wasting time inwatching futile tv serials for hours and hours . 

In addition, I would call upon male counterparts to come out of their indifferent attitude that their wives or the non-working females in the house ‘don’t do anything’. In fact they should also eliminate this so called ‘ Joru ka gulaam’ attitude and leave their false ‘EGO’ to help and support the wife to strengthen her positive and creative side. 

Dear friends, today at this juncture of my life when I stand and look back at me and my family , I assure you all that I don’t feel a damn that I decided to leave my job to become a full time HOUSEWIFE……….

Wednesday, November 5, 2014

Relationship does matter …… a few golden rules

Life is love and love is life. Hindi cinema, largely, rotates around love stories. Stories involving heroes and heroines, mostly, struggling and fighting the families and situations, throughout the movie to have their love and get married. The movies mostly end at that with a slogan or ending ‘And they lived happily ever after.’ 

What a naked lie! That too, told so boldly. I and you, in fact , all are aware that the life or we can say ,the struggle actually begins and not end at marriage . People don’t understand that the amount of effort they had put in getting married is actually nothing in comparison to the whole hearted effort by mind , body and soul which is then required to keep the fire burning or to keep the river of love flowing between the ‘wedded lovers.’ 

No one is hundred percent perfect and none is fully misfit ,too. Its, as we name it ,the chemistry between the couple that needs to work. Also, it’s said that we need to take right steps to reach the goal but its also equally ,or even more important to take those right steps in ‘the right direction’. 

............ Read full article at this link of citymag.in

http://citymag.in/articles/articledetails.php?articleid=482&title=Relationship%20does%20matter%20%E2%80%A6%E2%80%A6%20a%20few%20golden%20rules#.VKLNlsAA



https://www.youtube.com/watch?v=lRySqaqw1c4

contd ...
//
Love is to understand each other , without deliberately changing the other . In one of my compositions ,I have said :- 

‘Tamanna tumhaari hi ki thee/chaha bhi tumhe hi tha/fir bhi tum ‘tum’ na rahe, isme tumhaari khta nahin.’ 

Meaning that over a period of time the spouses try to mould and change their counterparts and they themselvescomplaint about and regret the change later. 

Jagjit Singh, the legendary ghazal singer has also ,sung in one of his famous ghazal …. ‘Us mod se shuru Karen fir ye zindgi /har shay jahaan haseen thee /ham tum the ajnabi’ 

So ,dear friends I just wanted to be with you during the times of change ,especially the middle years of life, to chose ,exercise and experiment these following Golden Rules. I am the one who is advocating these rules but all must improvise the tips to suit their own circumstances. And, this does not , at all, mean that my life is a bed of roses but I ,too, confess that one or the other valuable tip given here ,some or the time , comes to our rescue to refresh ,smoothen out our relationships, rejuvenate us and to kindle a flame of longings and desires in times of need. 

• Let the dialogue be on always be it happy time or be it the time of conflicts. 

• Talk and share about each other’s strengths and weaknesses when you two are together. 

• Talk positive about your spouse in front of others. 

•Trust your partner and have confidence in your own love. 

• Celebrate each moment of togetherness and not just the occasions. 

• Don’t restrict the honeymoon to just a few days or a month. Let it continue for the lifetime. 

• Enjoy and celebrate each and every smallest achievement of either of you. Don`t wait for a big event to celebrate. 

• Spend time together to understand each other .Let the discussion be on on a friendly level. 

• Try and experiment the unconventional ways to do away with the routine or boredom. 

• Do take tips from others but improvise them to suit your own circumstances. 

• Be friends in a true sense and let the relationship be informal. 

• Let your attributes supplement each other. Partners should try to fill in the gaps in each other’s personality.//


Thursday, October 23, 2014

इस वर्ष दीपावली कैसे मनाएंगे ..........




हाहाह! दीपावली का नाम ही खुशियों के दीप आँखों में जला जाता है परन्तु इस दफ़े की तो बात ही कुछ और हैं ....अच्छे दिन जो आ गए हैं ....भीतर की ख़ुशी बाहर हर काम में दिखाई दे रही है  चाहे वो घर-बाहर की सफाई हो या बाज़ार से खरीदारी| देश भर में स्वच्छता-अभियान की ऐसी गूँज है कि मानो बिन दीपक ही सब ओर जगमग हो जायेगी| रोजमर्रा के सामान की कीमतों में बढ़ोतरी की अपेक्षा कुछ कमी ही दिखाई दे रही है तो शायद खरीदारी में भी आनंद दुगना हो जाए हालाँकि अभी दीपावली के लिए जगमग करती लाइट्स , सूखे मेवे ,मिठाइयां, नए कपड़े इत्यादि लाये नहीं हैं और पटाखे तो अब कम ही खरीदते हैं| सुना है चाइनीज़ बम्ब .पटाखे भी शायद् प्रतिबंधित हैं अब.चलो अच्छा ही है कि अपने देश के लोगों को काम अधिक मिलेगा. पटाखे तो सच कहूँ मैं अब चलाती भी नहीं ,प्रदुषण ही इतना अधिक है पहले से ही , उसे और क्यूँ बढ़ाना? पर बच्चे जब तक शगुन न करे आनंद भी नहीं आता तो भई कुछ तो खर्चा हम करेंगे ही पटाखों पे |मेरी बिटिया की शादी के बाद की पहली दीवाली है तो ये बात भी इस दीपावली को और खास बनाती है|
अब एक महत्वपूर्ण बात जो मेरे ज़ेहन में रहती है वो ये कि दीपावली केवल हमारे घर को ही रोशन न करे बल्कि उनका घर भी खुशियों से रोशन करे जो हमारे लिए मिट्टी के दीप बनाते हैं तो मैं तो ज़रूर मोमबत्तियों के साथ मिट्टी के दीपक भी खरीदूंगी क्यूंकि एक तो ये पर्यावरण को नुक्सान नहीं पहुंचाते  दुसरे इनकी झिलमिलाती लौ मुझे दीपावली के आधारभूत सन्देश ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय असतो मा सद्गमय’ की प्रेरणा देती है ...तो आओ



मंगल गाले , दीपों की अवली सजाले
आवो मंदिर में माँ लक्ष्मी को बिठालें..  पूनम माटिया ‘पूनम’ poonam.matia@gmail.com

Saturday, October 18, 2014

Deep sleep..........Hallmark of Ultimate joy

All have said that Death is horrible
Yet the 'Moksha' is considered divine.
How can the way to Divinity to be horrid?
Rarely we relish deep sleep !!!!!!!!!!!!
Mostly we all are hunting day and night.
Why ? The question remained unanswered.
For long the brain waves kept echoing
After reaching the dead end of a long tunnel
Yet, never Man has left his search
Neither have I stopped the race .
The Thoughts always leave me behind
Kept me running to match up the pace.
Tit bits of happiness do fall in the lap
Yet the greed is to snatch it all.
Sight of a new born brings tinkle in the eyes,
Crawling baby standing suddenly brightens the smile.
Yes, the life offers joy in bits and pieces. 
Arms of beloved do give oceans of warmth,
Feeding the young fills our belly ,too.
A hand raised in blessing draws away sky of fear
Yet, the search is always on to find the Ultimate
The question still persists, is death so horrid?
So much so to race against time and be avoided.
Does the joy of Uniting with the Invisible
Can only be relished on leaving the bodily envelope?
Can't the fruits of His eternal love
Be tasted in this so called 'Cursed' flesh and blood?
Roaming in the jungle of thoughts and their embodiment
Suddenly by heavenly grace came upon a light
Enlightening the panting soul, caressed like mother
Soul in flesh and blood do rest for a while
Do unite momentarily with the Creator
Lo! man, woman, be any age ,sex or creed
All bestowed with HIS aura of divine seize.
In the lone moments when Man is asleep
Sleeping with his worries at a bay ,
With worldly relations far beyond his reach
Death in a beautiful package of Life
Do come when we're deep asleep.
None of the desires 'Dharm, Arth ,Kaam ,Moksha'
Bind the body and mind, 
The fruits of ultimate happiness do quench
The thirsty souls with Nectar so divine.
The realization aptly removes the fear of Death.
If a dose,so tiny relinquishes the soul,
How can be the arms of DeathBe lesser than the arms of loving mother?......... Poonam matia'poonam' 

Tuesday, October 14, 2014

परवाज़ .........


सभी रंग जहाँ के 
इक तितली में 
सिमट आये हैं 
मानो मेरे अरमानो के 
पंख निकल आये हैं|

हथेली खोलकर
उड़ा दिए नभ में
दिल में रखकर
भी क्या होता?

क्यूँ न ये
परवाज़ पा जाएँ?
क्यूँ न ये
अम्बर नाप आयें ?

क्यूँ भीतर ही भीतर
दबा के इनको
दफ्न कर दें
अपनी हर चाह को ?

ज़मी पे रहें
आज पाँव, बेशक
जंजीर ज़माना
पहनाये , बेशक

न कोई बंदिश
न पहरा कोई
खुला हो गगन
न सैयाद कोई

उड़ के क्षितिज को
क्यूँ न आज छू लें?
बंद मुठ्ठियों से निकलके
शायद ये ‘तितली’
आफ़ताब छू ले !!! ......



पूनम माटिया'पूनम'

Wednesday, October 8, 2014

ख्यालों की चिड़िया........




ये ख्यालों की चिड़िया भी बड़ी चुलबुली 
कभी यहाँ, कभी वहां उड़, बैठ जाती 
एक पल जीवन-तरु के आदि में ले जाती , 
दूजे पल अज्ञात-ओ-अनिश्चित भविष्य
का पुरज़ोर हिलोरा दे अशांत कर जाती|
परों में उत्साह की उड़ान भर कभी
ये नन्ही रंग-रंगीली रुनझुन चिड़िया
माँ का सुखद, सलोना, धवल चांदनी सा
स्वरुप अंखियों में तारों-सा चमका जाती|
सुबह, सवेरे मन्दिर की घंटी, आरती के स्वर
बर्तनों की टनटन और चूल्हे पे सब्ज़ी की महक
अलसाई आँखों में ठन्डे पानी के छींटे,
वो पंखे की तेज़ गति में अकस्मात कमी,
मन ही मन कुडकुड और फिर दूर तलक
सड़के माप, भारी सी बक्सा उठाये अकेला सफ़र
कभी भूत से वर्तमान में संग अपने ले आती|
और, अचानक फिर फुद्फुदाकर श्यामल सी चिड़िया,
ऐनक से सधी आँखों, किताबों के मध्य
अपनी रसोई, अपने ही पलंग पर शुष्क पत्तियों-सी
शाख से जुडी रहने का वृथा-सा प्रयास करती
ख़ुद मुझे ही माँ की जगह खड़ा कर जाती|
भीतर तक कुलबुला , इस चिड़िया पे क्रोधित हो
बरबस ही नयनो में सावन भर पागल बदरा-सी
इसके परों को भिगो निस्तेज करने को आतुर ही होती
कि फ़िर जा बैठी ये चंचल, चपला-सी
दुरंगी ऊन के गोले के बीच फंसी सलाइयों में|
नन्हे हाथों को थामे माँ के सधे-ओ-संतुलित हाथ
एक, एक फंदे को धीमे-धीमे अपने ही
स्वेटर में तब्दील कर मानो
चाँद से ब्याह रचाया हो अपनी गुड़िया का,
घर-बाहर सब दो फर्लांग में नाप
दादू से मनवाई गयीं किले सी फ़रमाइशें
ये चमकीले अहसासात की चिड़िया
फ़िर प्यारी सी लगने लगती |
प्यार से सहलाने को हाथ बढ़ाने को होती ,
अंगुलियाँ भी खुलने को होती तैयार, दुष्ट फ़िर
आ बैठी दर्द से चटकते घुटनों पे,
चीं-चीं कर शहर-भर में नगाड़ा पीट आती
बढ़ती उम्र की एक एक आहट का|
शोर से घबरा कानों तक पहुँच जाते हाथ|
नन्ही सी जान उसे, बक्श देती उसकी जान
पर कहाँ थी मानने वाली वो शैतान
फ़ुदक-फ़ुदक कर जा बैठती कढ़ाई में गोल-गोल
पूरियां तलती माँ की सूती साड़ी के सुंदर पल्लू में|
चुलबुली ख़्यालों की ये चिड़िया दिखती ज़रूर नन्ही सी
पर रखती अपने परों में ग़ज़ब की जान
जानती-पहचानती घर-आँगन अपना
और जानती-पहचानती उतार-चढ़ाव मेरी ज़िन्दगी के|
ये ख्यालों की चिड़िया भी बड़ी चुलबुली
कभी यहाँ, कभी वहां उड़, बैठ जाती
एक पल जीवन-तरु के आदि में ले जाती ,
दूजे पल अज्ञात-ओ-अनिश्चित भविष्य
का पुरज़ोर हिलोरा दे अशांत कर जाती|
कभी बच्ची बन खेलती, दौड़ाती, खिजाती मुझे, और कभी
मेरी ही माँ बन जीवन के पाठ पढ़ा, सुखद नींद दे जाती|
ख्यालों की चुलबुली चिड़िया सहेजे हैं सभी यादें मेरी
रखे है परों में अपने सुख-दुःख की कॉपी मेरी| .......poonam matia'poonam'