Thursday, October 29, 2020

‘अभी तो सागर शेष है’: गागर में सागर -डॉ. दिनेश कुमार शर्मा

 



 

अभी तो सागर शेष है’: गागर में सागर
-डॉ. दिनेश कुमार शर्मा

डॉ. पूनम माटिया कोमल कल्पनाओं  की एक गंभीर, मृदुभाषिणी सुकवयित्री हैं| उनका हृदय भी सागर जैसा गहन और विराट है| अभी तो सागर शेष हैउनकी श्रेष्ठ रचनाओं का एक अच्छा संकलन है जिसमें कवयित्री-मन-सागर उछालें मारता रहता है| वे लिखती हैं-
हृदय अपनी गति से
चलता जाता है
 
वक्त भी किसी के रोके
कहाँ रुक पाता है
....................
अपनी ही सोचों की गहराई
अपने ही कार्यों का फैलाव
मापते हैं और जानते हैं
जो किया वह मात्र एक बूँद है
अभी तो सागर शेष है| (पृ. 31-32)

उक्त पंक्तियों में कवयित्री ने अपने मन के चिंतन को व्यक्त कर दिया है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि कवयित्री ने संकलन के शीर्षक की उपयुक्तता को सहज ही अभिव्यक्त कर दिया है|

 कवयित्री कोमल-कल्पनाओं से ओतप्रोत हैं| उनकी कोमल कल्पनाएं संकलन में संग्रहीतमीठी मुस्कानमें स्पष्टत: दृष्टिगोचर होती हैं-
 
ये क्या कर जाते हो?
 
अचानक सामने जाते हो|
 
चुपके से दिल चुरा कर
एक मीठी मुस्कान दे जाते हो|’(पृ.27)
इन पंक्तियों की विशेषता है कि प्रत्येक सहृदय पाठक यही समझता है कि कवयित्री ने ये  पंक्तियाँ उसी के लिए ही लिखी हैं| यही उत्कृष्ट रचना-धर्मिता का स्वभाव होता है कि पाठक पढ़ने के लिए लालायित हो जाए कि आगे कवि या कवयित्री ने क्या लिखा है? इसी प्रकार कवयित्री की कोमल कल्पना उनकी रचनाचाँद से चाँद की बातें करेंगेमें अभिव्यक्त हुई है-

कुछ कहेंगे दिल की बातें
कुछ उनके दिल की सुनेंगे
बंद आँखों से हंसी नज़ारा करेंगे
धड़कनों की लय पर साँसों के गीत-
वो भी सुनेंगे, हम भी सुनेंगे|
चाँद से चाँद की बातें करेंगे| (पृ.27)

कवयित्री समरसता की पक्षधर हैं| क्रोध तो उनके स्वप्न में भी नहीं है| प्रत्येक पाठक से सामंजस्य बिठाना उनका परमधर्म है| ‘मुलाक़ातरचना में इसी समरसता के दर्शन होते हैं -
बड़े अरमानों से बसाई थी
साथ उनके दुनिया ख़्वाबों की
बिखर के ख़त्म हो गयी
नगरी वह माहताबों की
उनके साथ कट जाती थी
जो बातों, वादों मनुहारों में,
क्यों कटती नहीं काटे
वो  लंबी सुनसान रात अब?(पृ.37)
 

कवयित्री
यथार्थत: प्रेम और सौंदर्य की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं अतः वे प्रेम और सौंदर्य को एक ईश्वरीय वरदान मानती हैं| ‘इश्क़’ को कवयित्री ने आशीर्वाद के स्वरूप अंगीकार किया है और इसी स्वरूप में अपनी एक रचना ‘इश्क़ एक दुआ है’में  अंकित भी किया है-
 ‘प्यार वो  ओस की बूँद है
जो
सहरा में जश्न करती है
इश्क़
में ख़ामियां कितनी हों, मगर
यह
दुआ है जो दवा का असर रखती है|’ (पृ. 26)  

वस्तुतः
प्रेम ईश्वरीय वरदान ही है जो औषधि का कार्य करता है| यह एक सार्वभौमिक तथ्य है जो प्रत्येक मानस के लिए अभिप्रेत है|

 कवयित्री ने भाई-बहिन के प्यार को ‘रेशम-डोर में बंधा है प्यार’ रचना में रक्षा-बंधन पर्व के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है-
‘मनभावन
यह सावन-पर्व
महकाये
सगरा घर-द्वार
भाई-बहिन के
रिश्ते का
है
कितना पावन त्यौहार|| रेशम-डोर में बंधा है प्यार||’(पृ.48)

इसी प्रकार कवयित्री की लेखनी अन्य त्यौहारों यथा होली, दीपावली आदि पर भी चली है| ‘होली’ रचना के माध्यम से कवयित्री ने भारतीय संस्कृति के रंगों से रचना को चित्रित किया है| भारतीय संस्कृति में होली की जो-जो प्रक्रियाएं संपादित होती हैं उन्हीं पर कवयित्री ने बिना किसी संकोच के जिस तरह अपनी रचना का आधार-स्तम्भ सृजित किया है वह अद्वितीय है| दर्शनीय है उनका सांस्कृतिक प्रेम-
‘धर्म,
संस्कृति
परंपरा,
त्यौहार
जोड़े
इक तार में|
देश-प्रेम
की रीति
चलो
नए सिरे से
निभाने
को हम
हाथों
में हाथ बढ़ाते हैं|
चलो
इस बार
ऐसे
होली हम बनाते हैं|’ (‘होली-तब और अब’, पृ.44)

होली
त्यौहार की आड़ में कुछ अनैच्छिक, अवांछित क्रियाएँ भी हो जाती हैं जिनसे समाज का नारी वर्ग आहत होता है| इस व्यथा को महीयसी कवयित्री ने अपनी रचना का विषय बनाते हुए इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-
‘मनाते
थे मिलकर ये  रंगीला त्यौहार
पर
नहीं है सुरक्षित अब भारत की नार|
जिससे
बची नहीं मिठास अब इस त्यौहार
करना
ही होगा कुछ परिवर्तन इस बार|’
 
‘हर
नारी हो सुरक्षित- ऐसा हो पुरुष व्यवहार’
जगे
फिर विश्वास, बहे बदलाव की गंग-धार|
फिर
से बहने लगे सुगंधित प्रेम की बयार
आओ
ऐसे मनाए इस बार होली का त्यौहार|’ (पृ.45)

‘पिय संग खेली होली... रंग प्यार के’ रचना में कवयित्री होली के मस्त रंगो की पिचकारी छोड़ने से भी नहीं चूकी हैं|  मस्ती कवयित्री के व्यक्तित्व का ही एक अंग प्रतीत होता है| द्रष्टव्य हैं ये पंक्तियाँ-
‘एक
सखी दूजी से बोली
मैंने
पिय संग खेली होली|
भीगी
अंगिया, भीगी चोली
मैंने
पिय संग खेली होली||’ (पृ.45)
 इस रचना में आगे कवयित्री की मस्ती और भी दर्शनीय है-
‘मोरे
पिया अब गये बौराये
सब जन आगे
अंग लगाये|
खाई
कैसी नशे की गोली
मैंने
पिय संग खेली होली||’ (पृ. 46)
उपर्युक्त
पंक्तियों में ‘नशे की गोली’ से  कवयित्री का सामयिक भावार्थ है- भाँग की गोली| सामान्यत: होली के त्यौहार को मस्ती का त्यौहार कहा जाता है| वह इस कारण कि उपर्युक्त विजिया (भाँग) का भी त्यौहार माना जाता है क्योंकि भाँग स्वयमेव मस्ती का प्रतीक है और कवयित्री इससे, इसके गुणों से भी परिचित प्रतीत होती हैं |

इसी प्रकार संकलन में दीपावली त्यौहार की 2-3 रचनाओं में दीपावली की पारंपरिक अवधारणाओं को अभिव्यक्त किया है जो सर्वथा श्लाघनीय है|
 
संकलन
में ‘इंद्र-शची’ रचना एक आध्यात्मिक पुट लिए हुए है| इस रचना में कवयित्री ने इंद्र को आत्मा और शची  को बुद्धि के स्वरूप में अंगीकार किया है| इस रचना के अंतर्गत कवयित्री ने व्याख्यायित किया है कि जिस प्रकार आत्मा शरीर को सजीव, चलायमान रखती है उसी प्रकार बुद्धि उसे एक अच्छे स्वास्थ्य की सौगात प्रदान करती है| कवयित्री का मंतव्य है कि यदि गृहस्थ रुपी गाड़ी में पति जीविका अर्जित करने के गुरुतर दायित्व का निर्वहन करता है तो पत्नी भी सृजष्टाचारिक प्रतिमूर्ति है जो समाज में प्रदर्शित  होता है-
‘इंद्र आत्मा
है तो शची है बुद्धि
स्थापित परिवार
में आत्मिक शुद्धि|
ज्यों आत्मा
चलाए सजीव शरीर
बुद्धि
देती रहे उसे स्वस्थ तहरीर|
पति
अगर अर्जित करें पालन को जीविका
पत्नी
हाज़िर करे व्यवहारिक निर्देशिका|’ (पृ.30)

विविध भाव-आधारित रचनाएँ इस संकलन में समाहित हैं| कवयित्री की विशेषता है कि उसके संकलन में राष्ट्रीयता और भारतीयता का भाव भी कूट-कूट कर भरा हुआ है| कवयित्री को अपने देश की माटी चंदन-सदृश लगती है| यह उनके व्यक्तित्व की पसंद है| देखिये, ‘देश-भक्ति के नये तराने’ रचना में उनकी आत्मीय राष्ट्रभक्ति-
‘माटी
से चंदन-सी ख़ुशबू हरदम आती है
देश-भक्ति
के नये  तराने ‘पूनम’ गाती है|
सत्य,
अहिंसा, न्याय, धर्म की पावन धरती है
जैसे
हिमालय से सुरसरि की धारा बहती है|’ (पृ. 88)

संपूर्ण रचना राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत है | इसी प्रकार उनकी अन्य कुछ रचनाएँ भी राष्ट्रभक्ति की भावना में लिप्त हैं|

संकलन में संग्रहीत सभी रचनाएँ सरल, स्पष्ट भाषा में लिखित हैं| श्रेष्ठ साहित्य वही माना जाता है जिसमें पाठक रत हो जाए, अग्रिम संवाद के श्रवणार्थ तत्पर रहे, ऐसी ही विशेषता डॉ.पूनम माटिया के काव्य-संकलन-‘अभी तो सागर शेष है’ में दृष्टिगोचर होती है|  उनकी कुछ रचनाओं ने समीक्षक को बहुत अधिक प्रभावित किया है| ऐसा प्रतीत होता है कि इस संकलन में समाहित रचनाएँ उनकी स्वानुभूत रचनाएँ हैं| यद्यपि उनकी छन्दमुक्त रचनाओं में कोई छंद आदि का अनुशासन नहीं है फिर भी गेय हैं| यही विशेषता पाठक को अथवा श्रोता को प्रभावित करती है| पाठक रचनाओं को पढ़ने में लीन हो जाता है|

नई दिल्ली के अमृत प्रकाशन से 2016 में प्रकाशित इस संग्रह में लगभग 111 रचनाओं का समावेश है जिसमें छन्दमुक्त रचनाओं के अतिरिक्त मुक्तक, दोहे, गीत, ग़ज़ल आदि भी हैं| श्रृंगार रस भी इन रचनाओं में उपलब्ध है| कविता संग्रह देखने में लघु प्रतीत होता है किंतु विषय-वस्तु की दृष्टि से विशालकाय है| कविवर बिहारी के सन्दर्भ में कही गयी सूक्ति यहाँ प्रत्यक्षत: चरितार्थ होती हुई दृष्टिगोचर हो रही है-‘ देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’| संकलन का शीर्षक भी समुचित है-‘अभी तो सागर शेष है’|
काव्य-संग्रह के शीर्षक का
अभिप्राय भी यही है कि अभी तो कवयित्री साहित्यिक साधना स्वरूप गहन सागर के किनारे ही हैं| साहित्यिक साधना का अथाह सागर तो अभी शेष है| निश्चित रूप से कवयित्री ने अपने गहन अनुभवों को रचनात्मक शैली में अवगुंठित किया है|

कवयित्री की  साहित्यिक यात्रा अनवरत गतिमान रहे, ऐसी मंगलकामनाओं सहित,  
विदुषामनुचर
डॉ दिनेश कुमार शर्मा
हिंदू
इंटर कॉलेज, अलीगढ़
दिनांक
12.9.2020