Saturday, February 2, 2019

गाँव अब गाँव कहाँ रहे




वो चश्मा ही और था शायद जो गाँव की कच्ची-पक्की गलियों में बसे घरों के भीतर बसे इंसानों और उन्हीं घरों के बगल में गाय-भैंस के तबेले के नज़दीक ले जाता था। ऐसा चश्मा जो शायद किसी और को नज़र न आये परंतु आंखों में मन भर देने का काम बख़ूबी करता और बचपन के गाँव को अभी ज़िंदा रखने में मदद करता।

बड़े से शहर,  ख़ासकर देश की राजधानी दिल्ली के दिल करोल बाग में पैदा होने वाली मेरे जैसी ख़ालिस शहरी लड़की से कोई पूछे तो गाँव केवल नानी , मामा, मौसी का घर था जो अब एक छोटे शहर में तब्दील हो चुका है किंतु बचपन का गांव था जहाँ कुछ परिवार मिलकर एक घर होता था| घर भी ऐसा जिसको मकान तो कहने का दिल ही न करे।

एक चौक  उसके तीन ओर कमरे, कमरों के भीतर और कमरे, कमरे कम कोठरी कहना ज़्यादा सटीक होगा। नानी की तिजोरी, टोकनियाँ उनके भीतर चाँदी की भारी-भारी पाजेब, साथ ही भाई के लिए छुपा के रखे गए खिलौने, कंचे और रेज़गारी।

रसोई एक कमरे जैसी जिसमें खाना मिट्टी  के चूल्हे पर पकाया जाता था, लकड़ी की आयताकार मसालदानी, दही बिलोनी, बड़ी बड़ी पीतल की थालियाँ और उनमें गरमागरम भोजन परोसती नानी, मौसी। वहीं पास में चटाई बिछाकर खाते सब लोग।

भाव और यादें उछाल मार रहिं हैं कि ये भी लिख दूँ, वो भी लिख दूँ पर बहुत महत्वपूर्ण यह कि रसोई से जुड़ा ही एक कमरा जिसमे लाइफबॉय साबुन से नहाते थे। नाप नाप कर गरम पानी मिलता था।

नानी के साथ शिवालय जाना आज भी याद है गाँव में सभी तड़के ही उठ जाते थे और क्यों न उठते सो भी तो जल्दी जाते थे। बिजली शाम के समय केवल एक मद्धम सा लट्टू ही जलाने देती थी।

छत पर पानी का छिड़काव करना गर्मियों की छुट्टियों में दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण अंग होता था। तारे देखते , मामा से कहानी सुनते हुए सोना और सूरज की सुनहरी सी रोशनी में उठ जाना शहर में कहाँ सोच सकते हैं| गांव जीवंत प्राणी सा और शहर एक अर्ध निंद्रा में डूबे प्राणी-सा लगता था।

गाँव में कोई अंकल, आंटी नहीं होता सभी के साथ अपनायत का रिश्ता होता है जैसे ननिहाल में कोई मामा, कोई मामी, मौसी और बच्चे तो सभी ही भाई, बहिन हो जाते हैं| परायापन कहाँ रहता है जैसे मैं अपनी नानी के आई रहने , ऐसे ही और भी बच्चे आते थे , सभी मिलजुल कर खेलते , ख़ूब पैदल  चलते,  बेर तोड़ते और वो सारे खेल खेलते जिनका आज नाम भी नहीं पता बच्चों को शायद|
गाँव के विवाह , यहाँ मेरा अभिप्राय हरियाणा के रेती रिवाजों से है| नायन ही न्योता देने जाती थी , कार्ड बँटते नहीं देखे बचपन में| लड्डू, मट्ठी, ठौड़ की पत्तल गिन-गिन कर दी जाती| और हाँ, नयी बहु के आने पर संटी खेलना और आज तक समझ नहीं आया और महिलाओं द्वारा पुरुष वेश धारण कर अजीब-अजीब उलाहने देते हुए गीत गाना, नृत्य करना –सभी कुछ शहरी सभ्यता में न दिखाई देने वाली बातें हैं|
यदि शब्दों की सीमा न होती तो  और भी लिखती, गांव में मिट्टी के खिलौने नहीं भूलती आज भी।
 ..........पूनम माटिया

पूनम माटिया(विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर प्राप्त)
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