Tuesday, October 15, 2019


*वक़्त भी किसी के रोके कहाँ रुक पाता है पर, हम रुकते हैं थामते हैं खुद को* ........

एक लम्बे अरसे से आप का पाक्षिक अखबार ‘उत्कर्ष मेल’ डाक द्वारा प्राप्त हो रहा है और अच्छा लगता है जब विभिन्न आयोजनों की, पुस्तकों के लोकार्पण की सूचना के साथ समकालीन साहित्यिक सृजन से जुड़ने का अवसर मिलता है|

मनमोहन शर्मा जी, आप मुझे गुजरात के शास्त्री कुमार जी के माध्यम से मिले .. ये इत्तेफ़ाक ही है कि दिल्ली के लोग आपस में गुजरात होते हुए मिले| खैर, बहुत समय बाद ‘उत्कर्ष मेल’ अभी फिर से मिलना शुरू हुआ और कल ही सोलह से इकत्तीस मई के संस्करण में अचानक निग़ाह श्री सीताराम गुप्ता जी के लेख ‘आगे बढ़ना है तो ज़रूरी है रुकने का अभ्यास भी’ पर जा कर रुक गयी क्यूंकि शीर्षक ही मेरी ही सोच को परिलक्षित कर रहा था और अच्छी चीज़ या अच्छी बात ध्यान आकर्षित कर ही लेती है चाहे वो अखबार ‘मेन स्ट्रीम’ हो या न हो| सबसे पहले आपको बधाई एवं धन्यवाद नैतिक संदेशों से भरपूर पठनीय सामग्री इस अखबार के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाने के लिए|
सीताराम गुप्ता जी ने सटीक लिखा कि भागते रहना ही नहीं ज़रूरी अपितु सटीक दिशा में सफलता पूर्वक आगे बढ़ने के लिए चंचल मन का कुछ पल स्थिर होना भी ज़रूरी है ..आराम , आत्मावलोकन ,अवचेतन मन की नकारात्मकता को ख़त्म करके सकारात्मक गति पाने के लिए|
तन तो चलता रहता ही है लेकिन मन की गति को विराम चाहिए ..और मुझे लेख में अंगुलिमाल डाकू एवं गौतमबुद्ध का रोमांचकारी संवाद अत्यंत सटीक उदाहरण लगा जब ‘अंगुलिमाल कड़ककर बुद्ध से कहते है, “ठहर जा|” बुद्ध अत्यंत शांत भाव से पूछते हैं, मैं तो ठहर गया हूँ पर तू कब ठहरेगा?” एक आश्चर्य घटित होता है ....बुद्ध की शांत मुद्रा और ठहराव अंगुलिमाल को दस्युवृत्ति त्याग कर बुद्ध की शरण में आने को प्रेरित करता है|
एक अच्छे विषय को सबके कल्याण की भावना से सहज और सरल शब्दों में उठाने के लिए गुप्ता जी को पुन: बधाई| अपनी एक रचना ‘अभी तो सागर शेष है ..’ में मैंने इसी विषय पर कुछ कहने की कोशिश की है जो यहाँ साझा करुँगी ..
अभी तो सागर शेष है ..
हृदय अपनी गति से
चलता जाता है
वक़्त भी किसी के रोके
कहाँ रुक पाता है
पर, हम रुकते हैं
थामते हैं खुद को
सोचते हैं, जाँचते-परखते हैं
अपनी ही सोचों की गहराई
अपने ही कार्यों का फैलाव
मापते हैं और जानते हैं
जो किया वह मात्र इक बूँद है
अभी तो सागर शेष है|

सोच फिर यह दौड़ने को
कर देती है प्रेरित
समय कितना है, पता नहीं
जाना कहाँ है, दिशा नहीं
अनजानी इक राह पे
चल देते हैं फिर क़दम
चुनने को अपनी पसंद के फूल
हटाते हुए अपनी ही राहों के शूल|
मादक इस दौड़ में
जाने–अनजाने,
कहीं किसी राह पे रह जाते हैं
हमारे क़दमों के निशां
जो शायद किसी रोज़
दिखायें किसी को राह|
हम जैसे अनजान, दिग्भ्रमित को
दिशा नयी दें पायें
बूँद, बूँद सहेज पलों को
शायद कभी सागर तक ले जायें|

इसी रचना की वजह से मेरे तीसरे काव्य संग्रह का शीर्षक भी यही है –‘अभी तो सागर शेष है ..’ जो हाल ही में अमृत प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ जिसमें मुक्त छंद रचनाओं के साथ साथ कुछ दोहे , मुक्तक और ग़ज़लें बानगी के तौर पर हैं |
सीताराम गुप्ता जी के इस लेख के अतिरिक्त ‘सोंग ऑफ़ लाइफ’ और ‘आनेस्टी’ अंग्रेज़ी कवितायें भी अच्छी लगीं |कविता मल्होत्रा जी की भावाभियक्ति भी सार्थक है किन्तु उसके शीर्षक में टंकण त्रुटी रह गयी है दोहे की पंक्ति में ..पंक्ति इस प्रकार है –‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ |
अखबार और पुस्तकों के अनवरत प्रकाशन की शुभकामनाओं के साथ ...
पूनम माटिया

डॉ. पूनम माटिया (मानद उपाधि)
M sc. B Ed. MBA MA
writer, poetess, anchor,
literary editor- true media
e mail : poonam.matia@gmail.com

3 comments:


  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना 16 अक्टूबर 2019 के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद

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  2. भागते रहना ही नहीं ज़रूरी अपितु सटीक दिशा में सफलता पूर्वक आगे बढ़ने के लिए चंचल मन का कुछ पल स्थिर होना भी ज़रूरी है ..आराम , आत्मावलोकन ,अवचेतन मन की नकारात्मकता को ख़त्म करके सकारात्मक गति पाने के लिए|
    बहुत सटीक....
    वाह!!!

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  3. जो किया वह मात्र इक बूँद है
    अभी तो सागर शेष है|
    बहुत सुंदर सकारात्मक व प्रेरक पंक्ति।

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