Monday, December 10, 2012

किधर जा रहें हैं .............क्या खो रहें हैं हम ..............



प्रकृति से दूर हो रहें हैं हम
काफी कुछ खो रहे हैं हम


अपनों की बात क्या करें
खुद से भी दूर हो रहे हैं हम


सृजन तो हो रहा है अब भी
सुकून दिल का खो रहे हैं हम


दूर की आवाज़ सुन लेते है
मौन अंतर में बो रहे हैं हम


विश्व को परिवार बनाने चले
निज नाते रिश्ते खो रहे हैं हम


जानते बूझते मूक बधिर बने
इस जिंदगी को ढो रहे हैं हम .......................पूनम

22 comments:

  1. पूनम माटिया जी
    जय सिया राम!
    अब कलियुग अपना अपना प्रभाव तो दिखाएगा ही. क्या कीजिएगा...

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    1. जय सिया राम सुमित जी स्वागत है .......
      कलियुग के रंग अपना असर दिखा रहे हैं
      लोग भी देखो आसानी से रंगे जा रहे हैं .........:)

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  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (11-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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    1. नमस्कार वंदना जी ......शुक्रियाचर्चा मंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु ....
      कल रात को आप से मिलती हूँ वहां ....कल दिन में आप सब मित्र गण की दुआओं से और ईश्वर की कृपा से एक अवार्ड मिल रहा है ......वहीँ व्यस्त रहूंगी ....:)

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  3. बहुत ही बढ़िया


    सादर

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  4. पूनम जी बहुत ही सुन्दर कविता |आभार

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    1. जय कृष्ण राय जी आभार तो आपका
      जो मेरी रचना को समय और स्नेह दिया

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  5. बहुत सुन्दर.....
    गहन भाव समेटे रचना..

    अनु

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  6. अपनों की बात क्या करें
    खुद से भी दूर हो रहे हैं हम
    दूर की आवाज़ सुन लेते है
    मौन अंतर में बो रहे हैं हम
    जानते बूझते मूक बधिर बने
    इस जिंदगी को ढो रहे हैं हम
    ======सच लिखा--बहुत खूब लिखा-वाह !========

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    1. ओम जी ......आपने पढ़ा और सराहा .....उत्साहवर्धन के लिए आभार

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  7. अपनों की बात क्या करें
    खुद से भी दूर हो रहे हैं हम
    - यही सच है .

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    1. जी प्रतिभा जी .......:(.
      शुक्रिया मेरी रचना को अपना कीमती समय देने हेतु

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    1. संगीता जी .....सच समझना ज़रूरी भी है ........:)

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  9. बहुत सराहनीय प्रस्तुति पूनम जी .

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    1. मदन मोहन जी .......बहुत बहुत शुक्रिया .....

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  10. सीधे सीधे आपने कितनी गहरी बातें कह दी. बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना.

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    1. निहार जी शुक्रिया ..........मुझे सीधे सादे अलफ़ाज़ में ही कहना आता है ......मै कोई हिंदी या संस्कृत या उर्दू में पारंगत नहीं .........विज्ञान की छात्रा रही हूँ ......:)

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  11. is tarah ke mayajal se nikalna ab namumkin sa lagne laga hai......dhyan akrshit krne ka aabhar

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    1. सच कहा अतुल .......माया का जाल है ......और साधारण मानव के बस में कहाँ माया से पार पाना

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