अमृता शेरगिल पेंटिंग में कविता by Dr Neelam Verma----Review By Poonam Matia

कला कला को जन्मती, कला कला का सार कला रहित मानव अहो! जन्म हुआ निस्सार प्रथम पंक्ति डॉ. नीलम वर्मा के संदर्भ में पूर्ण तरह चरितार्थ होती है| नृत्य और काव्य कला का संगम एक चिकित्सक यानी कार्डियक फिजिशियन में अद्भुत! क्षणिकाएं, हाइकु, ग़ज़ल, अनुवाद, अंग्रेज़ी में कविताएं और अन्य कई विधाओं में नीलम जी लिखती हैं| साथ ही अंतस् के पटल पर सदैव कुछ नया प्रस्तुत करती हैं| कविता विशेषकर हाइकु और उसके अनुरूप पेंटिंग जब साथ आते हैं यानी उनका समन्वय होता है तो विधा ‘हाइगा’ हो जाती है| ‘अमृता शेरगिल पेंटिंग में कविता ’ के लिए नीलम जी को विशेष बधाई|उनकी साहित्यिक- माला में एक और गोहर पुर गया| कुछ वर्ष पूर्व भी हाइगा विधा में एक संग्रह लोकार्पित हुआ था जिसमें रेखा रोहतगी जी के हाइकु थे और उनके अनुरूप बने हुए चित्र या रेखाचित्र| वह भी एक कॉफी टेबल बुक थी किंतु जब नीलम वर्मा जी की यह कृति मेरे सम्मुख आई तो ये शब्द स्वत: ही मुंह से निकल गए- आँखों के लिए अमृत यानी टॉनिक| स्फुट-लेखन की बात और है, किंतु केवल 3 पंक्तियों यानी 5-7-5 का नन्हा-सा हाइकु जब जीवन दर्शन अभिव्यक्त करता है और इस पुस्तक में चारित्रिक विशेषताओं को भी विस्तार देता है तो यह अद्भुत एवं महनीय कार्य है| अमृता शेरगिल की पेंटिंग भी इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं| यह पुस्तक कई मायनों में महत्वपूर्ण है-एक तो इसमें बोलती हुई-सी पेंटिंग हैं और उन पेंटिंग्स में से आती हुई अमृता शेरगिल की मन की आवाज़ है जो नीलम जी ने अपने हाइकु के माध्यम से हम तक पहुंचाई है|साथ ही यह भी शिल्प के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है कि नीलम जी ने हाइकु में तुकांत के चयन और प्रयोग में ध्यान दिया है जिस कारण वे स्मरणीय और सुंदर हो गए हैं| एक बार हाइकु के संबंध में मैंने यह भी पढ़ा था कि विश्व यानी ब्रह्मांड में जो नाद गूँजता है यथा नमः शिवाय: ओम् नम: शिवाय नमः शिवाय यह विश्व का प्रथम हाइकु है| डॉ. गोयंका को एक बार सुना था इस सन्दर्भ में क्योंकि उनका जापान में रहते हुए इस विधा पर गहन अध्ययन है| कहीं पढ़ा भी था कि अधिकतर हाइकु प्रकृति और प्रकृति के स्वभाव के विषय में लिखे जाते हैं किंतु आज यानी वर्तमान में जैसे ग़ज़ल का पारंपरिक स्वरूप बदल गया है,लहजा बदल गया है और सामाजिक सरोकार उसमें जुड़ गए हैं, ठीक उसी प्रकार हाइकु भी ज़िन्दगी, समाज, दर्शन और अध्यात्म से जुड़कर नित नवीन हो रहे हैं| अधिक न लिखते हुए इस पुस्तक के कुछ हाइकु और एक शीर्षक जो नीलम जी की क्रिएटिविटी को आपके सामने लाएगा साझा करना चाहूँगी| ‘मेरी सिमिट्री’ यानी वो जगह जहाँ मृत शरीर दफनायें जाते हैं लेकिन नीलम जी ने इसका हिंदी में जो शीर्षक दिया वह था ‘ख़ुशी का जाम’ क्योंकि हमारे शास्त्रों में और कहीं और भी यह कहा जाता है कि मृत्यु एक उत्सव है| पहला ही हाइकु कला गर्विता रंग रेखा रूपसी मेरी अमृता ***** शून्य आकाश अंधेरों में ढूंढती आत्मप्रकाश ***** जाएगी कहाँ हवाओं में मिलेंगे उसके निशां ***** तृष्णा अपूर्ण गुरुशरण बिना कैसे हो पूर्ण ***** खानाबदोश हंगरी के गांवों में जलवाफ़रोश ***** मौत शिकारी लकीरों की क़िस्मत रंगों से हारी ***** कितनी ख़ूबसूरती से एक गहरी बात कही है क्योंकि जो रेखा चित्र बनाते हैं जो केवल पेंसिल स्केच करते हैं और जब उनमें रंग भर देते हैं तो देखिए फिर रंग ही मुखर हो जाते हैं, रेखाएं छुप जाती हैं तो यही हमारी सोच की भी बात होती है कि कला के ऊपर कला नित नवीन होती है या छुप जाती है| चुप हो जाती शहजादी उदास कुछ न गाती ***** आंखें विरान रहती पराधीन हर मुस्कान तो मित्रो! कहना चाहूंगी कि यह बुक, कॉफी टेबल बुक जिसमें पेंटिंग हैं, हाइकु हैं - एक पठनीय और संग्रह्नीय पुस्तक है|इसके लिए नीलम जी, उसके उनके प्रकाशक उमेश मेहता जी, दोनों ही बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं| अमृता शेरगिल की पेंटिंग्स तो अद्भुत हैं ही| पूनम माटिया

Friday, September 23, 2022

ग़ज़ल ............ हो नहीं सके ....... पूनम माटिया , Poonam Matia

ताज़ा ग़ज़ल पूरे के पूरे आपके हम हो नहीं सके बोझिल हुआ था रिश्ता कि हम ढो नहीं सके तारे सजा के आपने, आँखों में जो भरे रौशन किये थे ख़ाब वो सच हो नहीं सके काँटों-सा जो मिला है हमें क्या बताएँ अब बिस्तर मिले जो फूल के, तो सो नहीं सके ऐसे फँसे सराब में हम फँस के रह गये सच्चा मिला जो प्यार तो हम खो नहीं सके सराब-मृगतृष्णा, धोखेबाजी ऐसे उड़ी थी धूल कि क़िरदार अट गया शीशे को देखते रहे पर धो नहीं सके बरसात भी मिली कभी तो धूप भी हमें 'पूनम' कभी भी चाँदनी हम बो नहीं सके पूनम माटिया
पूनम माटिया

Monday, April 25, 2022

राष्ट्र कवि दिनकर की पुण्य तिथि पर आयोजित #अंतस् की 33 वीं काव्य गोष्ठी

24 अप्रैल को ऑनलाइन आयोजित अंतस् की 33 वीं काव्य गोष्ठी में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को उनकी पूण्य तिथि पर स्मरण किया। मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं इन जैसी असंख्य अविस्मरणीय पंक्तियों के रचयिता दिनकर जी को तथा गत सप्ताह में गोलोक को सिधारीं लेखिका एवं गीतकार माया गोविंद को गोष्ठी में श्रद्धांजलि अर्पित की गई। विश्व पुस्तक दिवस तथा अन्यान्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर विभिन्न विधाओं और रसों में काव्य रस का आस्वादन किया उपस्थित कवियों और श्रोताओं ने। डॉ आदेश त्यागी की अध्यक्षता और पूनम माटिया के संचालन में गोष्ठी लगभग ढाई-तीन घण्टे अनवरत चली। मुख्य अतिथि हास्य कवि हरमिन्दर पाल तथा विशिष्ट कवि डॉ कौशल सोनी फरहत रहे। डॉ दमयंती शर्मा और डॉ दिनेश शर्मा ने बतौर अतिविशिष्ट अतिथि गोष्ठी की गरिमा वृद्धि की। दमयंती शर्मा जी ने मधुर वाणी-वंदना प्रस्तुत की। कवि दुर्गेश अवस्थी, डी पी सिंह, कृष्ण बिहारी शर्मा, कवयित्री डॉ नीलम वर्मा, सुशीला श्रीवास्तव, महाराष्ट्र से धृति बेडेकर, छतरपुर मध्यप्रदेश से डॉ उषा अग्रवाल, साहित्य नव सृजन संस्था की संस्थापक अनुपमा पांडेय भारतीय और सुनीता अग्रवाल ने भी कविता का वाचन किया। डॉ आदेश त्यागी ने काव्य पाठ एवं अध्यक्षीय उद्बोधन द्वारा सभी का मनोबल बढ़ाते हुये अंतस् की गतिविधियों की सराहना की। दिनकर की तर्ज़ पर उन्होंने अपना काव्य पाठ आरंभ किया अपने समर्पण मुक्तक से युगधर्मा चिरक्रान्ति निनादित झंझा का विस्तारण हूँ युद्धभूमि की ललकारों के शब्दों का उच्चारण हूँ भारत माँ को प्राण समर्पित करते हैं, उन वीरों की शौर्य कथाओं का लेखक हूँ, बलिदानों का चारण हूँ ऊर्जित, रोचक सञ्चालन के साथ-साथ काव्य पाठ के क्रम में पूनम माटिया घनाक्षरी के साथ ग़ज़ल के कुछ शे’र पढ़े राह में मोड़ तो आएंगे ही सनम/ सोचना है हमें किस तरफ़ हों क़दम राहे उल्फ़त में पीना पड़े जो कभी/आबे जमजम समझना तू सारे ही ग़म ज़लज़ला भी तो उठता है यारो वहीं/दफ़्न होते जहाँ इश्क़ो-दैरो-हरम ग़म की लज़्ज़त और बढ़ा दे/ अश्कों को ख़ुशबू पहिना दे......डॉ कौशल सोनी "फ़रहत" डॉ० दमयंती शर्मा 'दीपा' ने शारदा-स्तुति के अतिरिक्त अपने गीत से भी समां बाँध दिया- एक कमरे में तुम, उसके कोने में हम/ये मकां कैसे घर बन सकेगा प्रिये! आस की राह में अश्रु-सावन भला/ मन के राही को कब तक छलेगा प्रिये! दर्द किसी का मिटे हँसी से /शब्दों का मरहम लिखता हूँ........ अपनी संजीदा और हास्य प्रधान दोनों प्रकार की रचनाएं पढ़ते हुए हास्य कवि हरमिंदर पाल जी ने कलेवर बदला| अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक प्रीत के द्वार पर से एक गीत के अतिरिक्त दुर्गेश अवस्थी ने ग़ज़ल भी पढ़ी - क्या से क्या हो गया आजकल आदमी/ घूमता है मुखौटा बदल आदमी आज महफ़िल में हिन्दू मुसलमां नहीं/ बैठकर सुन रहे हैं ग़ज़ल आदमी काव्य के विविध रंगों की बानगी देखिये जो गोष्ठी में पढ़े गए ....... सबका अपना अपना रण है, सबके अलग पराजय जीत। .... कौन रहा केवल दुख में ही, उत्सव का उपहार न देखा! सबके हिस्से में कुछ खल हैं सबके हिस्से में कुछ मीत।---कृष्ण बिहारी शर्मा रक्त चूसना धर्म, लिये हाथों में बैनर/जन्मसिद्ध अधिकार माँगने पहुँचे मच्छर... डी पी सिंह * नूर से फिर ये घर भी तो भर जाएगा/ उसके आते ही चेहरा निखर जाएगा .... 'नीलम' जो कहानी कथानक को समझे नहीं/ उस कहानी को लिखने से क्या फ़ायदा....डॉ उषा अग्रवाल स्याह होकर भी रंगीन/ कभी बेबाक, कभी संगीन....धृति बेडेकर ये ज़िन्दगी आख़िर क्या है?/ उतरती-चढ़ती सांसें/या और भी कुछ?/शायद बहुत कुछ.....अनुपमा पाण्डेय यूँ तो गुज़र रही हूँ उम्र के हर दौर से/ पर सही मायने में जीना बाक़ी है.....सुनीता अग्रवाल शायरा सोनम यादव, डॉ आर के गुप्ता, श्री एस डी तिवारी, प्रज्ञा गोविल, और डॉ मीना शर्माकी काव्य-सजग उपस्थिति ने ऊर्जा वृद्धि की। संस्था में नए जुड़े सदस्यों का स्वागत कर धन्यवाद ज्ञापन संस्था के महासचिव दुर्गेश अवस्थी ने किया।अंतस् के यू ट्यूब चैनल Antas mail पर सभी कवि-कवयित्रियों को सुना जा सकता है|
Poonam matia पूनम माटिया अध्यक्ष , अंतस्

क़िस्सा-गोई ...... देवदूत .... पूनम माटिया, दिल्ली, भारत

#ईश्वर_यत्_करोति_शोभनं_एव_करोति #दिन_में_तारे_दिख_जाना
#एक_हूँ_बंद_होता_है_तो_दूसरा_खुल_जाता_है #देवदूत #आपबीती बिटिया ऑफ़िस के लिए निकल चुकी थी| पतिदेव भी नाश्ता कर चाय पी रहे थे| मैं अपने लिए हल्की सब्जी बना रही थी रसोई में। ‘बड़ी बीमारी’ की तो दवा ले चुकी थी बस शुगर(मधुमेह) की दवा लेने की सोच ही रही थी कि साहब बोले, “अच्छा जा रहा हूँ”| गैस की लौ मंदी कर पकती सब्जी छोड़, उन्हें ‘सी-ऑफ़’ करने के लिए सीढ़ियों तक आ गई। जाते-जाते वे कुछ बोले पर समझ नहीं आया तो फिर से पूछा- क्या कह रहे हो जी! “अरे भाई सब्जी वाला आ रहा है तुमने एक-दो सब्जी लेनी हो तो ले लो, मैं जा रहा हूँ|” फिर क्या था! दवाई ले नहीं पाई| बालकोनी में गई| सब्जी वाले को आवाज़ लगाकर बुलाया- भैया! तनिक रुको, नीचे ही आ रही हूँ| ज़्यादा भारी सामान उठाना मना था तो बस सौ रुपल्ली साथ लेकर सीढ़ियाँ उतर गई| पाँच मिनट ही लगे होंगे, एक पॉलिथीन मैंने पकड़ा, बाक़ी, सब्जी वाले भैया को बोला, ऊपर घर तक छोड़ दो| सीढ़ियाँ चढ़ने लगी तो मन में कुछ खट्का-सा लगा| और ये लो! अनहोनी तो हो ही गई!!!! दरवाज़ा ऑटोमेटिक लॉक वाला था| जाते समय याद ही नहीं रहा कि उसे खुला रहने दूँ या चाबी साथ लेकर उतरूँ| याद भी कैसे रहता! मैं तो उतरती ही नहीं नीचे| करोना-काल में बाहर के सब काम तो ‘ये’ ही करते हैं| घबराहट के मारे पूरा शरीर पसीने में भीग गया| दरवाज़ा लॉक! हाथ में सब्जी की थैलियाँ| सब्जी वाले को बोला- भैया अब क्या करूं??????? न चाबी, न मोबाइल! ताला भी कैसे खुले, कैसे टूटे! उसी से ‘इनको’ फ़ोन करवाया| पतिदेव का नंबर था न उसके पास| हर दो-तीन दिन बाद सुबह आकर फ़ोन करता है इनको कि ‘नीचे आ गया हूँ कुछ लेना हो तो ले लो’ अभी ‘ये’ कुछ ही दूर पहुँचे होंगे| बोले, ‘सब्जी वाले से ही कहो-चौक से जाकर चाबी वाले को बुला लाए’ पर उसने तो साफ़ इंकार कर दिया- कहाँ जाना है मुझे तो मालूम नहीं| वैसे भी अपना ठेला छोड़कर काम के समय कहाँ जाता बेचारा! कोई सोचे तो इस समय सबसे बेचारी तो मैं ही थी| गैस पर सब्जी जल के सड़ जाती, बारह बजने को थे! कुछ खाया भी नहीं था, यह तो शुक्र था कि शुगर की दवा भी नहीं खा पाई थी नहीं तो आज तो किसी के घर ही कुछ खाना पड़ता| बीस-तीस मिनट से अधिक भूखा भी कैसे रहती दवा लेकर| पसीने से भरी, घबराहट में पड़ोसियों की ‘बेल’ बजा दी| दोनों, मम्मी-बेटी भी मेरी हालत देखकर घबरा गयीं| पंखा खोलकर बिठाया, पानी लाने गयीं, सब्जियों की थैलियाँ अपने घर रखीं| पर! मुझे कहाँ चैन था| ताला तुड़वाना कोई आसान काम था क्या? वैसे भी दिनदहाड़े चोरियां होती हैं यहाँ| सब्जी के जल जाने का डर और! इतनी देर में वह सब्जी वाला भैया वापस आया कि सर का फ़ोन है| बात की तो कहने लगे- नीचे से तरुण को बुला लो, उससे कह दो कि चाबी वाले को बुला लाए| पंखे की हवा से कुछ पसीने सूखे, पानी पीया| पड़ोसियों की बिटिया ने कहा- भाभी आप बैठो, मैं तरुण को बुला लेती हूँ| वह नीचे उतरी| मैं आंटी के पास बैठी पर मन में खलबली-बेचैनी बहुत हो रही थी| बैठकर आराम करने का टाइम ही कहाँ था| ख़ुद सीढ़ियाँ उतरने लगी तो एक ख़याल ज़ेहन में कौंधा! ‘क्यों न किसी को अपनी बालकनी से घर में चढ़वाया जाए, दरवाज़ा तो लक्कीली मैं खुला ही छोड़ आयी थी जब सब्जी वाले को रोकने गई थी| दिमाग़ की बत्ती जली| बस फिर क्या था...... अभी नीचे तरुण भैया से कहने की सोच ही रही थी कि भैया कहीं से सीढ़ी का इंतज़ाम करवा दो, बालकोनी से चढ़कर कोई घर में घुस सके तो बस फिर अंदर जाकर कुण्डी ही तो खोलनी है| और फिर!!! चमत्कार हुआ! हाँ चमत्कार ही तो था| तरुण भैया के घर की तरफ़ मुँह करके उनसे कह ही रही थी कि तभी ‘पोल’ से इंटरनेट-केबल ठीक करने वाले दो लड़के अचानक दिखाई पड़े, एक लंबी-सी स्टील की सीढ़ी हमारे पोल पर लगाए! मेरा दिल बल्लियों उछल गया| मां भगवती का नाम रट रही थी अब तक| एक ही पल में लाखों प्रणाम भेज दिए उन दोनों देवदूतों के लिए| इसे कहते हैं न! एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है और साथ ही साथ मां भगवती परेशानी देती है तो उसका हल भी उनकी कृपा से मिल ही जाता है बस कुछ देर माया अपना रंग ज़रूर दिखाती है और ऐसे में दिन में तारे नजर आ जाते हैं| चुप हैरान से वे दोनों लड़के मुझको देख रहे थे कि क्यों यह महिला चोरों की तरह बालकनी से अपने ही घर में चढ़ने की बात कर रही है| तब तरुण भैया ने ही कहा- भाभी मैं जाता हूँ और उन्होंने यह कहकर सारी परेशानियां हल कर दीं| देखते ही देखते सीढ़ी पर चढ़ने लगे और देखिए सीढ़ी का आख़िरी पायदान बिल्कुल छज्जे को छूता हुआ! जैसे नाप कर ही सीढ़ी भिजवाई हो माता रानी ने| भैया भीतर से दरवाज़ा खोल कर खड़े थे जब मैं साँस थामे घर तक पहुँची| साँस में साँस आई भीतर जाकर बात कर| सबसे पहले गैस बन्द की| भगवान का शुक्र है कि सब जल्दी हो गया और सब्जी जलने से बच गई! अपना मोबाइल हाथ में उठाया और पतिदेव का नंबर घुमाया तो यूँ लगा जिंदगी पटरी पर लौट आई| ....................... डॉ पूनम माटिया (कवयित्री-शायरा-लेखिका) अध्यक्ष, अंतस्( साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संस्था) 9312624097 मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित

Tuesday, April 19, 2022

दिल्ली के #NDTIWARIBHAWAN में आयोजित सम्मान समारोह

 



















दिल्ली के #NDTIWARIBHAWAN में आयोजित सम्मान समारोह

विश्व कीर्तिमान स्थापित .... @द मैजिक मैन एन चंद्रा क्लब द्वारा सम्मान प्राप्त हुआ |
अधिक ख़ुशी इस बात की कि बिटिया तरंग माटिया को भी
आर्किटेक्चर और भरतनाट्यम कला दक्ष होने के साथ-साथ अंतस् संस्था की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण योगदान देने के कारण सम्मानित किया गया| और यह तो सर्व विदित है कि अपने से अधिक बच्चों की योग्यता पर प्रसन्नता होती है|
उपस्थित सभी महानुभावों और जोशी जी का हार्दिक धन्यवाद |


Wednesday, April 13, 2022

मेरे साहित्य-पथ को आलोकित करते कुछ प्रकाश-बिंदु


 

बाँस के बीज को भी लगते हैं कई वर्ष
कोपल निकलने से पहले
ज़मीं के नीचे जड़ फैलाने को...

सत्य ही तो है जीवन की धारा में कब कोई मोड़ कौन सा रहस्य उद्घाटित कर दे, कब किस मोड़ पर कौन आपका रहबर हो जाए, पता नहीं। यह तो भविष्य के गर्भ में है कि भूतकाल और वर्तमान का कौन सा कर्म हमें क्या फल दे जाए| हमारा कर्तव्य तो कर्म करते जाना है|
सुख-दुःख जो हमको मिले, समझो उनका मर्म|
आया है जो सामने, अपना ही है कर्म ||
 प्रारब्ध अनुसार जीवनधारा अपना प्रवाह, घुमाव और उतार-चढ़ाव स्वयं ही तय करती जाती है| यूँ भी तो कह सकते हैं कि ‘शुष्क, सख्त बीज को जब मिलता है अनुकूल वातावरण तब ही वह अंकुरित, पुष्पित-पल्लवित होता है|’ तो मैं भी कहाँ कोई अपवाद हूँ|
पढ़ाई-लिखाई के साथ कई क्षेत्रों में हाथ-आज़माइश करने के बाद ही यह पता चला कि भीतर काव्य-सृजन का बीज कहीं गहरे सुप्त अवस्था में सही समय की प्रतीक्षा में था| यूँ यदा-कदा कुछ संकेत मिलते रहे,   जिनकी पहचान भी बाद में ही हुई|
 अपने रुस्तगी समाज के आयोजनों का कई-कई घंटों तक लगातर संचालन और स्टेज के लिए लघु नाटिकाओं का लेखन-मंचन-अभिनय, बच्चों की मंचीय प्रस्तुति के लिए लेखन साहित्यिक लेखन की दिशा में शिशु-पदचाप ही थी।
लगभग एक दशक से कुछ अधिक समय इस क्षेत्र में बीत जाने के बाद सिंहावलोकन करने से एहसास  होता है कि अचानक तो कुछ नहीं होता| किसी भी फ़सल के उगने से पहले उस मिट्टी की तैयारी आवश्यक होती है अन्य कई चीजों के साथ| इसी तरह काव्य की उर्वरा भूमि भी वर्षों में साल-दर-साल तैयार होती रही थी| छोटी-बड़ी अतुकांत कविताओं (जिन्हें कोई समृद्ध कवि शायद कविता कहने में भी हिचके) के साथ मेरा काव्य-क्षेत्र में पदार्पण हुआ| भाषा या तो अंग्रेजी रही या आम-फ़हम हिंदुस्तानी जिसमें हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और हरियाणवी भाषा के शब्दों की घुसपैठ रही|
उर्दू-फ़ारसी के अल्फ़ाज़ शायद मेरे पिता की देन रहे क्योंकि आज़ादी से कुछ पहले तथा कुछ बाद तक उनकी पढ़ाई मुख्यतः उर्दू में ही रही जैसे कि उस ज़माने में अधिकांश लोगों की रहती होगी। हरियाणवी मेरे ननिहाल से स्वतः चली आई, दिल्ली की खड़ी बोली में उत्तर प्रदेश की भाषाई-मिठास ससुराल की देन रही| मैं तो भाग्यशाली रही कि घर में पति और श्वसुर जी का कविता के प्रति लगाव रहा और सोशल मीडिया के पटल ने मुझे अभिव्यक्ति का मंच उपलब्ध कराया| रचनाओं को भारत ही नहीं विदेशों में रहने वाले पाठकों की सराहना भी मिली|
पहले काव्य-संग्रह के प्रकाशन के लिए प्रकाशकों के चक्कर नहीं लगाने पड़े। दैनिक जागरण, अबोहर, पंजाब के प्रवीण कथूरिया जी और ट्रिब्यून के राज सदोष जी ने पहला काव्य-संग्रह ‘स्वप्न श्रृंगार’ प्रकाशित कर जैसे दिवास्वप्न सच कर दिया और इस तरह कविता ने मेरी मेरा भी दिल्ली से बाहर आवागमन आरंभ कराया| कुछ स्मृतियाँ आनंद दे जाती हैं जैसे कि २४ जुलाई २०११ को अबोहर में पुस्तक का भव्य लोकार्पण और फ़ाज़िल्का बॉर्डर पर मेरे हाथों भारत की सीमा पर तैनात जवानों को मिठाई वितरित करवाना| कहाँ कोई प्रकाशक कवि-लेखक के लिए इतनी ज़ेहमत उठाता है| कोई प्रकति-प्रेमी आसानी से ‘स्वप्न-श्रृंगार’ की रचनाओं का कलेवर समझ सकता है क्योंकि मुझ स्वयं को वे उस प्राकृतिक स्थल की भांति लगती हैं जहाँ मानव ने अपनी तरक्की और तकनीक से अधिक छेड़-छाड़ न की हो|
दूसरा काव्य-संग्रह ‘अरमान’ बीकानेर, राजस्थान के  शिक्षक-संपादक-प्रकाशक नदीम अहमद जी ने सम्पादित, प्रकाशित किया| हैरत की बात तो यह कि यह सब उनसे बिना व्यक्तिगत तौर पर मिले हुआ| मेरी तस्वीर जो उन्होंने किसी और के ग़ज़ल संग्रह के लिए मंगवाई थी वह मेरे ‘अरमान’ का ही मुख-पृष्ठ बनी|
‘अरमान’ का आना साहित्यिक सफ़र में महत्वपूर्ण पढ़ाव रहा|
स्थापित पत्रकार अनूप तिवारी जी के माध्यम से मारवाह स्टूडियो, फ़िल्म सिटी, नॉएडा इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर संदीप मारवाह जी से मिलना हुआ और पुस्तक का भव्य लोकार्पण उन्हीं के हाथों से उसी कैंपस में हुआ| पचासों ऑनलाइन और ऑफ़लाइन अख़बारों में पुस्तक के संदर्भ में छपा और मेरे लेखन को प्रचार-प्रसार मिला विशेषकर मेरी अपनी दिल्ली और एन सी आर में| संदीप जी जैसे प्रभावी वक्ता द्वारा पुस्तक में विशेष समीक्षा भी प्रकाशित हुई और सूत्रपात हुआ उनके द्वारा हर वर्ष आयोजित होने वाले ‘ग्लोबल लिटरेरी फेस्टिवल’ के  काव्योत्सव में प्रतिभागिता करने का| ‘अरमान’ की रचनाओं के सम्बन्ध में कही यह बात मैं भूली नहीं आज भी- ‘ये छोटी-छोटी, सहज-सरल ज़ुबान में लिखी कवितायें ही आज के ज़माने के युवा वर्ग को आकर्षित करेंगीं, आज के जेट-स्पीड युग में लम्बी तथा क्लिष्ट भाषा की रचनाएं कहाँ जगह बना पाएंगी उनकी दिनचर्या में’| यद्यपि साहित्यिक भाषा और खंड काव्यों का अपना विशेष महत्त्व है किन्तु एक नव-लेखिका को प्रोत्साहित कर उन्होंने अपना बड़प्पन दिखाया | ग्लोबल लिटरेरी फेस्टिवल में सम्मानित होने का मौका तो हर वर्ष मिला किंतु अभी हाल ही, २०२१ में अंतरराष्ट्रीय डॉ. सरोजिनी नायडू अवार्ड प्राप्त होना अति विशेष उपलब्धि रही|

उसी वर्ष, २०१२ में, जयपुर से बोधि-प्रकाशन के माया मृग जी ने संयुक्त-काव्य-संग्रह ‘स्त्री होकर सवाल करती हो--कमाल करती हो’ में  मेरी कविताओं को स्थान देकर संयुक्त-काव्य-संग्रहों का भी श्रीगणेश कर दिया| बाद में तो दिल्ली के हिन्दी-युग्म से ‘तुहिन’, अयन प्रकाशन से ‘कविता अनवरत-१’, महफ़िल-ए-गंग-ओ-जमन से ‘गुलदस्ता-ए-गंग–ओ-जमन’  और प्रभात प्रकाशन से ‘स्वच्छता का दर्शन’,  ग़ाज़ियाबाद के मांडवी प्रकाशन से ‘अपने-अपने सपने’, अमरोहा के एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस(उर्दू) से ‘जहाने-ग़ज़ल’ समय-समय पर संयुक्त काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए।
यूँ साहित्यिक यात्रा चल पड़ी| गद्य-पद्य लेखन के इस सफ़र में साहित्याकाश के कितने ही चमकते सितारों की रोशनी ने मेरी नन्ही क़लम को उर्जा दी, कह पाना नामुमकिन तो नहीं पर बहुत आसान भी नहीं| विभिन्न पत्रकारों में बालाघाट के रहीम खान जी तब से अब तक अनवरत उत्साहवर्धन करते आ रहे हैं| देश के विभिन्न समाचार पत्रों में मेरी कविताओं और अन्य कलाओं के संदर्भ में लेख प्रकाशित हुए उनके द्वारा।
पंडित सुरेश नीरव जी के संपर्क में आने के बाद उनकी संस्था सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति से जुड़कर कई साहित्यिक यात्राएँ कीं| काव्य-पाठ और मंच संचालन उनके सानिध्य में करते हुए उनके पांडित्य से प्रभावित हुए बिना कोई रह नहीं सकता विशेषकर नामों को रोचक अंदाज़ में विश्लेषित करना| उनका यह गुण चकित भी करता है और शब्द की क्षमता से परिचय भी कराता है| मुझे उनकी एक और ख़ासियत  व्यक्तिगत तौर पर सकारात्मक ऊर्जा देती है और वह है विज्ञान का विद्यार्थी होते हुए भी वे हिन्दी,  संस्कृत के साथ-साथ उर्दू-अंग्रेजी में भी गद्य और पद्य में सशक्त हस्तक्षेप रखते हैं| उन्हीं के सुझाव पर मैं ‘ट्रू-मीडिया’ पत्रिका से साहित्यिक संपादक के रूप में जुड़ी और पत्रिका संपादन के साथ -साथ काव्य के विभिन्न पुरोधाओं के साक्षात्कार लेने का अनुभव हुआ|
अंतर्राष्ट्रीय कवि-गीतकार डॉ कुँअर बेचैन जी का विस्तृत साक्षात्कार भी इसी श्रंखला में लिया| यूँ तो डॉ साहेब के साथ कभी कवि रूप में और कभी संचालक के रूप में मंच साझा किया किंतु इस साक्षात्कार ने अस्ल कुँअर सक्सेना जी से मिलवाया| उनके कृतित्व के साथ-साथ व्यक्तित्व के भी गुह्य पक्षों का जानने का अवसर मिला| कुँअर जी की सरलता, सहजता और साहित्यिक प्रतिभा के विषय में जानकर मेरा  सर स्वतः ही उनके नमन में झुक जाता है| कुँअर जी की
एक-दो नहीं वरन अनेक बातें जीवन में उक्ति बन  सत्यापित होते दिखती रहती हैं| मेरे तीसरे काव्य-संग्रह ‘अभी तो सागर शेष है...’ में पंडित सुरेश नीरव जी के साथ-साथ डॉ कुँअर बेचैन जी द्वारा लिखित भूमिका ने संग्रह को अतिविशेष बना दिया| ‘जो बहता है वह रहता है, जो रुक गया वह चुक गया’- भूमिका में लिखा कुँअर जी का यह कथन सदैव सक्रिय रहने को प्रेरित करता है|
 ‘अभी तो सागर शेष है’ कई संदर्भों में विशेष है इसके अतिरिक्त| अमृत प्रकाशन से इसके प्रकाशन के दौरान प्रसिद्ध शायर मंगल नसीम जी से बहुत कुछ सीखने को मिला| ‘हर शब्द की अपनी लंबाई-मोटाई होती है और उसी के अनुरूप उसका प्रयोग भी होना चाहिए’- मंगल नसीम जी का यह कथन भी एक सूत्र वाक्य है रचनाकर्म में संलग्न मुझ सरीखे सभी लोगों के लिए। संपादन के दौरान उनका यह कहना-‘पूनम! ज़रा इस कविता की ये पंक्तियां या मिसरा एक बार फिर देख लो’ ही काफ़ी होता था यह  समझाने के लिए कि कहीं कुछ गड़बड़ है जो ठीक करनी है| उनके मानकों पर लेखन को कसना आसान नहीं किंतु कविता की बारीक़ियों को सीखने का इससे अच्छा मौका और क्या मिलता|

अतुकांत से तुकांत, छन्दबद्ध विशेषकर ग़ज़ल का रास्ता मुझ जैसी विज्ञान की छात्रा और अध्यापिका, जिसने अधिकांश शिक्षा अंग्रेज़ी में ही ग्रहण की हो, के लिए आसान नहीं रहने वाला था-यह तो भान था ही| सुरेश नीरव जी ने तो यह तक कह दिया था कि ‘कहाँ मीटर-क़ाफ़िया-रदीफ़ के चक्करों में फँस रही हो, इतनी अच्छी भाव-प्रधान, श्रृंगार और सामाजिक सरोकारों की कविता लिखती हो, वही करो’। कहते हैं ना! जिस ओर जाने को मना किया जाए वही दिशा अपनी ओर आकृष्ट करती है और चैलेंज भी|
सर्वेश चन्दौसवी जी, डॉ आदेश त्यागी जी और मनु भारद्वाज जी अदब की दुनिया की वे  ख़ास शख्सियात हैं जिन्होंने शायरी की दुनिया में मेरे क़दमों को ज़मीन और सोच को आसमां दिया| यूँ तो बाक़ायदा उस्ताद-शागिर्द का रिश्ता नहीं बना किंतु डॉ. त्यागी अब भी काव्य-चौपाल के माध्यम से नि:स्वार्थ काव्य-लेखन की विशिष्ट बातें बताते हैं और मैं तथा अन्य कुछ मित्र नित्य नया कुछ सीखते हैं| साथ ही साथ हमारी अंतस् संस्था को भी उनका मार्गदर्शन मिलता है संस्था के परामर्शदाता के रूप में| उनका  ये शे’र  उनकी शायराना कैफ़ियत का आइना है, ‘यूँ नहीं ज़रखेज़ होती शायरी की सरज़मीं/ अश्को-ख़ूं की आबपाशी है मेरे अश’आर में| सर्वेश जी का ज्ञान और साहित्यिक प्रदेय तो सभी सुख़नवरों के लिए ख़ज़ाना है और रहेगा|
लिखने को तो एक-एक साहित्यकार के विषय में एक निबंध लिखा जा सकता है जिनके व्यक्तित्व-कृतित्व ने प्रभावित किया किंतु इस लेख की शब्द-सीमा में यदि मैं डॉ प्रवीण शुक्ल और डॉ कीर्ति काले का ज़िक्र न करूं तो यह अधूरा ही रहेगा| कविता, गीत, ग़ज़ल, मंच-संचालन तो प्रशंसनीय है ही, साथ ही उनका परिवार और मित्रों के प्रति व्यवहार भी अनुकरणीय है| इसी तरह डॉ कीर्ति काले भी एक विश्व-प्रसिद्ध कवयित्री होने के साथ-साथ सहजता से मित्रवत स्नेह देती हैं| उनका काव्य-लेखन और प्रस्तुति सुख देता है| ‘इक चमकता काँचघर है लड़कियों की ज़िन्दगी’ उनके गीत की पंक्ति बख़ूबी हम लड़कियों की स्थिति बयां करती है और मुझे विशेष रूप से उद्वेलित करती है|
डॉ हरीश नवल जी को तो अधिकांशत: व्यंग्यकार के रूप में सभी जानते हैं किंतु शिक्षक रूप में मैंने देखा जब
हिन्दी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान उन्होंने मुझे संक्षेप में हिन्दी नाटकों, कहानियों उपन्यासों का सार तत्व समझाया| साथ ही विदेश मंत्रालय की पत्रिका ‘गगनांचल’ के संपादक की महनीय भूमिका का निर्वहन करते हुए भी उन्होंने ‘गाय’ पर मेरे द्वारा रचित शोध-गीत को पत्रिका में स्थान देकर साबित किया कि कविता में तत्व हो तो ‘कवि नया है अथवा स्थापित’ महत्त्व नहीं रखता| साहित्यिक सक्रियता एवं वैविध्य डॉ नवल की विशेषता है| अभी एक-दो माह पहले ही कोरोना काल की विभीषिका में भी उन्होंने अवसाद में अवसर ढूंढ ‘कच्ची मिट्टी सौंधी महक’  नाम का संकलन सम्पादित किया जिसमें अन्य बत्तीस रचनाधर्मियों के साथ मेरा भी एक  ‘बचपन के प्रेरक संस्मरण’ विषयगत लेख संकलित किया है|
 अविस्मरणीय है मेरे लिए विधि भारती परिषद की सचिव एडवोकेट संतोष खन्ना जी का स्नेह| उन्हीं की  पहल से ‘मैग्सेसे अवार्ड विजेता-केन्द्रित’ जो काव्य-संग्रह आ रहा है उसमें मेरे द्वारा रचित शोध कविता भी होनी चाहिए, कोविड और अन्य परेशानियों के बीच भी वह नहीं भूलीं| गत वर्षों में भी विधि भारती परिषद् द्वारा प्रकाशित ‘समकालीन हिन्दी उपन्यासों में महिला लेखन’ तथा ‘भारत में चुनाव, हिन्दी की भूमिका और चुनाव-सुधार’ में मेरे शोध-आलेख प्रकाशित हुए हैं|
दिल्ली पार्लियामेंट में कार्यरत प्रसिद्द कहानीकार डॉ अनुज कहानी लेखन के अतिरिक्त पहले ‘कथा’ और फिर ‘कथानक’ पत्रिका के संपादन में संलग्न हैं| ‘मंचीय तथा मुख्य धारा के कवियों का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध आलेख उन्हीं के सुझाव पर कथानक  पुस्तक के लिए मैंने लिखा| कथानक के कविता विशेषांक में यह आलेख मेरे लिए गद्य लेखन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही है|  
   इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती  के पूर्व अध्यक्ष डॉ राम चरण गौड़ जी का पितृ तुल्य स्नेह और उनकी सरपरस्ती में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा सुनियोजित गुजरात की दोनों साहित्यिक यात्राओं में मेरे अनुभव को विस्तार मिला जो संस्मरण रूप में ‘शोषण और अन्याय का प्रतिकार-दांडी मार्च’ पुस्तक में संकलित हुआ|
सीखने की कोई उम्र नहीं होती और प्रेरक व्यक्तियों का भी अपूर्व सान्निध्य मिलता रहा है | पूरी उम्मीद है कि जीवन में आये और आगे आने वाले प्रकाश-पुंजों के सन्दर्भ में आगे भी लिखती रहूँगी|
विभिन्न संस्थाओं की सक्रिय सदस्य तथा अंतस् की अध्यक्ष का दायित्व निभाते हुए यह मुझे विदित है कि काव्यलोक संस्था के लिए राजीव सिंघल जी तथा उनसे जुड़े हम सभी के लिए प्रथम वर्षगाँठ क्या मायने रखती है| इस अवसर पर पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक के प्रकाशन हेतु राजीव जी को साधुवाद एवं शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ| यूँ ही साल दर साल अपनी कविताओं, गीत-ग़ज़लों के साथ-साथ काव्यलोक के माध्यम से साहित्य विशेषकर हिन्दी साहित्य की सेवा करते रहें|

 

पूनम माटिया


 

Monday, March 21, 2022

कविता का सृजन जैसे शिशु का जन्म -पूनम मटिया



जो भीतर कुलबुलाती है 
हृदय की वेदना ही है| 
बहुत बेचैन करती है,
प्रसव की राह तकती है| 



कला कला को जन्मती, कला कला का सार |
कला-रहित मानव, अहो! जन्म हुआ बेकार ||


........... पूनम माटिया 

 

ख़यालों की चिड़िया- पूनम माटिया- #गोरैया दिवस


ये ख़यालों की #चिड़िया है बड़ी चुलबुली
कभी यहाँ, कभी वहाँ उड़, बैठ जाती|
एक पल जीवन-तरु के आदि में ले जाती,
दूजे पल अज्ञात और अनिश्चित भविष्य
का पुरज़ोर हिलोरा दे अशांत कर जाती|
परों में उत्साह की उड़ान भर कभी
ये नन्ही रंग-रंगीली रुनझुन चिड़िया
माँ का सुखद, सलोना, धवल चांदनी-सा
स्वरूप अँखियों में तारों-सा चमका जाती|
सुबह-सवेरे मन्दिर की घंटी, आरती के स्वर,
बर्तनों की टनटन और चूल्हे पे सब्ज़ी की महक
अलसाई आँखों में ठन्डे पानी के छींटे,
वो पंखे की तेज़ गति में अकस्मात कमी,
मन ही मन कुढ़-कुढ़ और फिर दूर तलक
सड़कें माप, भारी-सा बक्सा उठाये अकेला सफ़र!
कभी भूत से वर्तमान में संग अपने ले आती|
अचानक! फिर फुद्फुदाकर श्यामल-सी चिड़िया,
ऐनक से सधी आँखों, किताबों के मध्य
अपनी रसोई, अपने ही पलंग पर शुष्क पत्तियों-सी
शाख से जुडी रहने का वृथा प्रयास करती ख़ुद मुझे ही
माँ की जगह खड़ा कर जाती|
भीतर तक कुलबुला कर, इस चिड़िया पे क्रोधित हो
बरबस ही नयनो में सावन भर पागल बदरा-सी
इसके परों को भिगो, निस्तेज करने को मैं आतुर ही होती
कि फ़िर जा बैठती ये चंचल, चपला-सी
दुरंगी ऊन के गोले के बीच फँसी सलाइयों में|
नन्हे हाथों को थामे माँ के सधे और संतुलित हाथ
एक, एक फंदे को धीमे-धीमे अपने ही
स्वेटर में तब्दील कर मानो
चाँद से ब्याह रचाया हो अपनी गुड़िया का,
घर-बाहर सब दो फर्लांग में नाप
दादू से मनवाई गयीं किले-सी फ़रमाहिशें!
ये चमकीले #अहसासात की चिड़िया
फिर प्यारी-सी लगने लगती |
प्यार से सहलाने को हाथ बढ़ाने को होती,
अंगुलियाँ भी खुलने को होती तैयार,
दुष्ट फिर आ बैठती दर्द से चटकते घुटनों पे,
चीं-चीं कर शहर-भर में नगाड़ा पीट आती
बढ़ती उम्र की एक-एक आहट का|
शोर से घबरा कानों तक पहुँच जाते हाथ|
नन्ही-सी जान! बक्श देती उसकी जान
पर कहाँ थी मानने वाली वो शैतान?
फ़ुदक-फ़ुदक कर जा बैठती
कढ़ाई में गोल-गोल पूरियां तलती
माँ की सूती साड़ी के सुंदर पल्लू में|
ख़यालों की ये चुलबुली चिड़िया दिखती ज़रूर नन्ही
पर रखती अपने परों में ग़ज़ब की जान
जानती-पहचानती घर-आँगन अपना
और जानती-पहचानती उतार-चढ़ाव मेरी ज़िन्दगी के|
ये ख़यालों की चिड़िया है बड़ी चुलबुली
कभी यहाँ, कभी वहाँ उड़, बैठ जाती|
एक पल जीवन-तरु के आदि में ले जाती,
दूजे पल अज्ञात और अनिश्चित भविष्य
का पुरज़ोर हिलोरा दे अशांत कर जाती|
कभी बच्ची बन खेलती,
दौड़ाती, खिजाती मुझे और कभी मेरी ही माँ बन
जीवन के पाठ पढ़ा, सुखद नींद दे जाती|
ख़यालों की चुलबुली चिड़िया सहेजे हैं सभी यादें मेरी
रखे है परों में अपने सुख-दुःख की कॉपी मेरी|
पूनम माटिया
Poonam Matia
May be an image of bird and nature

Wednesday, March 9, 2022

किया आपका बसेरा दिलो-ज़ेहन में जनाब/ कहाँ पायेंगे अमीर , जहां भर में ऐसे ठाठ........ पूनम माटिया






जदीद ग़ज़ल 


अजी छोड़िए भी अब तो, हमारे कहाँ  के ठाठ

बड़ी कोठियाँ हैं जिनकी, उन्हीं के निराले ठाठ

 

चलाते हैं हुक़्म हम पेये कुर्सी पे हो सवार

है कुर्सी में जान इनकी, हैं कुर्सी के सारे ठाठ

 

मिले माँ की गोद तुमको, तो राजा से कम कहाँ

ज़रा सोचना कभी तो , कहाँ घर के जैसे ठाठ

 

जहाँ चाहे खेलते थे, जिधर चाहे जाते लेट 

वो बचपन के शाही क़िस्से, वो बचपन के जैसे ठाठ

 

किया आपका बसेरा दिलो-ज़ेहन में जनाब

कहाँ पायेंगे अमीर , जहां भर में ऐसे ठाठ


.............
पूनम माटिया 



नोट 

बह्र-ए-मज़ारेअ मुसम्मन मुज़ाहिफ़ मक़फ़ूक़ मक़सूर
अरकान-मफ़ाईलु फ़ाइलातु 
मफ़ाईलु फ़ाइलान 
औज़ान- 1221   2121 1221  2 121 

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