पूनम माटिया जी द्वारा कलमबद्ध किये गए ग़ज़ल संग्रह "शजर पे चांद उगाओ" में उनकी बहुमुखी प्रतिभा का दर्शन होता हैl
विज्ञान की छात्रा होने के साथ-साथ हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी में लिखने का काव्य-कौशल और भाव जो हर दिल तक पहुंचे, यह उनके कलम की कारीगरी हैl
उनके भाव की झलक उनके शे’र में नज़र आती है:
"ये शरीर है जो मिला मुझे,
मेरी रूह का ही लिबास है
ये जो आज है कभी हो न हो,
ये तो हर जनम में कशीब है"
उपर्युक्त ग़ज़ल के माध्यम से उन्होंने अपना परिचय स्थापित किया।
इनका रूह अपने शे’र के माध्यम से काव्य प्रेमी के दिल पर एक अलग निशान छोड़ता हैl
माटिया जी जिस बीमारी से संघर्ष कर रही हैं और उसके बाद भी अपनी लेखनी और संचालन जारी रखी हुई हैं तो उनके यह शब्द स्वतः सार्थक हो जाते हैंl
"ज़िंदगी को आज़माना जानती हूं,
मैं ग़मों में मुस्कुराना जानती हूं।
***
"तुम लगाओ आग लेकिन सोच
लेना
मैं भी अपना घर बचाना जानती हूं"
वेदना के शब्द भी आँखों में चमक लाते हैं किसी की याद को आँखों में समेटे हुए उनके शब्द:
"याद आई फिर किसी की मेहरबानी देर तक
आंसुओं से दाग़ दिल के रात
भर धोते रहे"
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चाहते तो थे कि "पूनम" आज शब रोशन करे
रात काली थी, अमावस ओढ़ कर सोते रहे
प्यार का रिश्ता और उसमें
यादों की गहराई:
"नाम सुनकर तो ख़ुमारी-सी यकीनन आई
इश्क मुझको भी बता दे कोई होता क्या है"
जब अपना प्यार और अपने प्यारे का साथ छूटता है तब जो शब्द स्वत निकल आते हैं:
"गुल वो खिला रहा है, मुझे इल्म हो गया
वह दूर जा रहा है,
मुझे इल्म हो गया"
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सांसे तो चल रही हैं मगर उसकी मौत का
फ़रमान आ रहा है, मुझे इल्म हो गया
वीर शहीदों के घर के आंगन को रोशन करना कितना मार्मिक और कष्टदायक होता है इन शब्दों से बेहतर उसे कैसे बताया जा सकता है:
"जिस घर का इकलौता बेटा जंग में जान कुर्बान करे
उसे चौखट पर दिए का जलना कितना मुश्किल होता है"
प्यार के अरमान और उनके मन में चलने वाले तरंगों के लिए उनके भाव:
"ये मुहब्बतो का ख़ुमार था जो हमारे दिल पे सवार था
तू भी रेज़ा रेज़ा पिघल गया मैं भी तिनका तिनका बिखर गई"
कभी चाह थी तेरे साथ की, जो मिले तो ख़त्म है आरज़ू
वो नदी थी तेज उफान की, बड़े हौले-हौले उतर गई
आज के स्वार्थी लोगों की सच्चाई जिसके कारण कितनी ज़िंदगी कुर्बान हो रही हैं:
"धूल आदर्शों पर पड़ी चुपचाप
भीड़ आखिर में छंट गई चुपचाप"
"बस तड़पता ही रह गया घायल
राह अपनी गए सभी चुपचाप"
प्यार की खटपट में और उसके बाद का संयोजन
"तल्ख़ियां ख़त्म हो जाएंगीं
कुछ कहो, कुछ सुनो तो सही"
"दो बदन, एक जां, एक रूह
कृष्ण-राधा बनो तो सही"
जब 'प्यार का तराना' किसी भंवर में फंसकर अलग होता है तब उनके शब्द
"छोड़ना ही था अकेले जब भंवर में मुझको तो
मेरी किश्ती को किनारा तुमने दिखलाया ही क्यों"
माटिया जी की ग़ज़ल की यह कुछ पंक्तियां जो बेहद ही करुणामयी लगती हैं
"समुद्र-सी है तन्हाई, पहाड़ों-सा है वीराना
भटकता फिरता सहारा में, बिला आशिक कुंवारा दिल"
"है मुमकिन मिल न पाए हम, है मुमकिन भूल जाओ तुम
मगर यह दिल तुम्हारा था ,रहेगा यह तुम्हारा दिल"
काव्य प्रेमियों के लिए एक बेहद रोचक ग़ज़ल-संग्रह है। इसे सभी काव्य-प्रेमियों को ज़रूर पढ़ना चाहिए।
"दिखाई देते नहीं हैं मुहब्बतों के समर
"शजर पे चांद उगाओ बड़ा अंधेरा है"
मां सरस्वती की कृपा से इस ग़ज़ल-संग्रह की चांदनी साहित्य लोक में नये प्रकाश का सृजन करे।
और पूनम माटिया जी का नाम पूनम की चांदनी जैसा रोशन हो!
ग़ज़ल-संग्रह की सफलता के लिए आपको बधाई।।
पुष्कर कुमार सिन्हा
भागलपुर बिहार।

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