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Monday, June 23, 2014

ग़ज़ल ...... दर्द भी सताता है


दोस्तों ...... यह ग़ज़ल आदरणीय ओमप्रकाश आदित्य 'पराग' जी द्वारा प्रकाशित और आदरनीय बनवारी लाल गौड़ और आदरणीय राकेश पाण्डेय जी द्वारा सम्पादित 'गीताभ' 
में सलग्न है .....

Sunday, June 15, 2014

पितृ दिवस /फ़ादर्स डे की सभी को बधाई


बचपन से पिता को पालक -पोषक के रूप में देखा 
कभी उदास होने पे भी न आंसू बहाते देखा
छोटी-बड़ी, हर चीज़ के लिए माँ को कहा
जानते हुए भी कि माँ ने पापा से ही है गुज़ारिश करनी 

पर खुद क्यूँ नहीं कह पायी ? पता नहीं
पिता को माँ के जरिये ही क्यूँ है जाना जाता
यही एक सोच तारी रहती है जबकि बेटियाँ
तो सुना है कि पिता की ही ज्यादा प्यारी होती
यादों में वो पल लगते हैं सुन्हेरे
जब टूर से फ्रिल वाली फ्रॉक लेके आते थे पापा
जब मैं पहन ठुमक ठुमक चलती थी
चुपके-चुपके मम्मी को देख मुस्कुराते थे पापा
गोदी उठा गली के चक्कर कई लगाते
कोई कहता था, 'गुप्ताजी
'बिटिया’ गुड़िया जैसी है दिखती
मेरे पापा शान से कई गुणा फूल जाते
सोचकर मेरी आँखें अब भी हैं भर आती
जब 'छोटे' के जन्म पर साइकिल के पहिये में
पाँव फंस जाने पर दोनों ही धम से थे गिरे
पापा और मैं कई दिन बिस्तर पर पट्टी बांधे थे पड़े
तब भी उनकी चिंता के तार मेरी चोट से ही थे जुड़े
कहीं गहरे ज़ख्म के निशां रह न जाए,
कहीं बिटिया के पाँव में कोई नुक्स रह न जाए
पापा मेरे अब भी हैं वैसे ही
छोटी छोटी बातों पे झट से हैं फ़ोन घुमाते
कैसी है 'तू' , कैसे हैं जमाई बाबू ?
बस चिंता में मेरी हैं घुले जाते
बिटिया की बिटिया की शादी होगी कैसे
कई कई दिन सो ही नहीं पाते
मेरे पापा मेरी चिंता में हैं अब भी बहुत घबराते
घर में बैठे-बैठे भाइयों को मेरे लिए नचाते
'छोटी' हूँ उनकी नज़रों में अब भी शायद
यही सोच मुझे कभी बढ़ा होने नहीं देगी
या शायद मैं भी अपने पापा की 'पिंकी' ही बन
कभी बढ़ा होना ही नहीं चाहती
हाँ, अब भी इसीलिए माँ के जरिये ही
पापा तक अपनी बात पहुंचाती




मैं ,मेरी बड़ी बहिन और हमारे पापा