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Wednesday, January 23, 2019

कहानी - ये कहाँ आ गये हम?..........पूनम माटिया





पॉश कॉलोनी में वैसे एक घर में क्या होता है, उसकी ख़बर अधिकतर साथ वाली कोठी के लोगों को भी होती नहीं है| कौन कब आता है, कैसा उठना-बैठना, खाना-पीना , पहनना-ओढ़ना है-इससे किसी अन्य को कोई बहुत फ़र्क नहीं पड़ता| घरों के नौकर-चाकर ही कभी कोई बात आपस में करते हैं तो बात कॉलोनी में धीरे-धीरे घूम आती है| बड़ी कोठी, उसके आगे लॉन और फिर सुंदर कार्विंग वाला बड़ा सा स्टील का दरवाज़ा| दरवाज़े पर बैठा गार्ड नज़र रखता है दस वर्ष के आरुष पर जब वह पास वाली कोठी के अपने से थोड़े बड़े निमिष व अन्य बच्चों के साथ खेलने के लिए बाहर जाता है|
नन्हे बच्चों की सोच-समझ पर कोठी के आकार का प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, अपनी अलग दुनिया बनाकर उसमें सिमट जाते हैं ख़ासकर जब वे परिवार के इकलौते बच्चे हों|
छुटपन में आरुष अकेले निकलता भी नहीं था| सुनीति या इन्द्र ही उसे पार्क लेकर जाते थे| बर्थडे पार्टीज़ में भी सुनीति अक्सर ख़ुद ही आरुष को ले जाती थी| बहुत पोज़ेसिव
(अधिकारात्मक) होते ही हैं अधिकांशत: इकलौते बच्चों के पेरेंट्स|
घुस्स-फुस्स, घुस्स-फुस्स कहीं चलती भी तो सुनीति ध्यान भी नहीं देती थी, उसे तो अपने में मस्त आरुष के चेहरे पर ख़ुशी देखकर ही चैन आ जाता था|
शोपिंग मॉल में भी शुरू-शुरू में कुछ अटपटा-सा लगता था किन्तु बाद में वो भी नार्मल व्यवहार लगने लगा| और फिर ‘ऐसे लोगों’ को तो थोड़ा असामान्य व्यवहार सहने की आदत भी हो ही जाती है|
आरुष के स्कूल की पेरेंट्स-टीचर मीटिंग हो या वार्षिक उत्सव सुनीति और इन्द्र, दोनों ही रेगुलरली  अटेंड करते रहे हैं| टीचर की हर छोटी-बड़ी बात सुनीति बड़े ग़ौर से सुनती और घर आकर आरुष को प्यार से गोदी में बिठाकर बालों में उंगलियाँ फेरते हुए पूछती-बताती|
आरुष का ख़याल इन्द्र भी कम नहीं रखता और उसने कभी डांट-डपट भी नहीं लगाई| छोटी से छोटी इच्छा भी जल्द ही पूरी होती थी किन्तु आरुष अब धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है और उसके मन में क्या चलता है इसका पता दोनों को ही नहीं चल सका था अभी तक| आरुष को बहुत अजीब लगता था जब दूसरे बच्चे गैंग बनाकर बाते करते थे किन्तु उसे देखते ही चुप्पी साध लेते थे| वैसे तो टीचर्स आरुष का ख़याल रखती हैं पर उनके जाते ही बच्चे आरुष को घूरते  हुए घुसर-फुसर करने लगते|
एक ज़माना था जब बच्चों के एडमिशन के लिए पिता का नाम अनिवार्य हुआ करता था| बिना पिता के नाम के बच्चे को एडमिशन भी नहीं मिलता था  या फिर बच्चे को संदेह की नीची नज़रों से देखा जाता था| फिर समय के साथ नियम-क़ानून बदले और माता का नाम आवश्यक हो गया और फिर तो पिता से पहले माँ का नाम लिखा जाने लगा| समाज में ‘सिंगल मदर्स’ का चलन बढ़ने के साथ यह नार्मल हो गया कि पिता है या नहीं क्योंकि इसमें बच्चे का अपना क़ुसूर नहीं|
समय का बहाव कहाँ ले आएगा? भविष्य के गर्भ में कौन से नए रिश्ते सामाजिक पहचान बना लेंगे, कोई नहीं जानता| चक्र का काम घूमना है, घूमता जाता है और ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में संस्कृतियों का आपस में घुल-मिल जाना कोई असामान्य बात नहीं| पश्चिमी संस्कृति का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव शनैः-शनैः बढ़ता ही जा रहा है| सामाजिक रिश्ते, नैतिक नियम और कानूनी दायरे बदल रहे हैं किन्तु नन्हे आरुष के कोमल हृदय को समाज के नियम-कानूनों से क्या लेना| उसके लिए तो घर मतलब है  मम्मी-पापा और हों भी क्यूँ न –सुनीति और इन्द्र की आँखों का वह तारा जो ठहरा|  
स्कूल में वह सहमा-सहमा-सा ज़रूर रहता था किन्तु पढ़ाई में अव्वल रहने के कारण अधिकतर बच्चे ख़ासकर रोमा, शनाया तो उसके साथ ही उठते-बैठते, ख़ास पक्के वाले फ्रेंड्स हैं तीनों पर युगांत कभी कभी कुछ-कुछ बोल ही देता- “हाँ, तेरी तो फ्रेंड्स गर्ल्स ही बनेंगी , तू जो ख़ुद.......|”बस यहीं रुक जाता था वो|
फिर उस दिन आरुष बहुत देर तक सोचता था कि आख़िर युगांत कहना क्या चाहता था| आज फिर पड़ोस के निमिष ने किसी बात पर ऐसा ही कुछ कहा तो आरुष से सहा नहीं गया| वह बोला- बता तो मैं क्या ???
रहने दे-निमिष ने कहा|
नहीं-नहीं, आज तो तू बता ही दे .......मैं क्या हूँ?

आरुष के लिए अब असहनीय हो रहा था|
अरे यार! तू ख़ुद ही लड़कियों जैसे एक्ट करता है तो लड़कियाँ ही बनेंगी न तेरी फ्रेंड्स|
मैं लड़कियों जैसे बोलता-चलता हूँ? अरे! मैं लड़का हूँ, तुम्हारे जैसा ही हूँ, देख मेरे बाल देख, मेरे हाथ-पैर देख
और अपनी नैकर तक ही पहुँचा था कि निमिष ने उसका हाथ पकड़ा|
अरे यार मैं तेरी आदतों की बात कर रहा हूँ  ......पर छोड़! इसमें तेरा क्या फॉल्ट(ग़लती).......मेरी मम्मी भी कह रही थी कि तुझे पापा की देखभाल ही नहीं मिली तो ......... !
क्या ? पापा का प्यार नहीं मिला? ये कैसी बात कर रहा है तू? मेरे तो पापा हैं, तूने देखा नहीं क्या, तेरे बर्थडे पर भी तेरे घर आये थे|
आरुष! मुझे नहीं पता पर तेरे पापा ‘पापा’ जैसे हैं  नहीं ....तू घर जाकर ही पूछ |
आरुष के नन्हे दिल को बड़ी ठेस लगी और वह एक पल रुके बिना घर आ गया|
गार्ड- ‘बाबा! क्या हुआ, रो क्यूँ रहे हो? इधर आओ, मैडम बाज़ार गयी हैं, रुको!सुनो!

किन्तु आरुष इतना भी छोटा नहीं रह गया था कि अपने दिमाग़ में उफ़नते हुए विचारों के तूफ़ान को समझ न पाए| वह अपने खिलौनों से सजे कमरे में आया और रोते हुए अपनी फ़ोटो-एल्बम निकाल कर बैठ गया| एक-एक तस्वीर जो उसकी ख़ुशी के पलों को समेटे हुई थी, उन सभी तस्वीरों को वह बार-बार ग़ौर से देखने लगा| कभी मम्मी और कभी पापा को देखता| बहुत दिनों से जो बात कहीं गहरे उसके भीतर थी, परेशान किये रहती थी जब-जब वह दूसरे बच्चों के माता-पिता को देखता था पर फिर सुनीति-इन्द्र के स्नेह-दुलार में भूल भी जाता था, आज वह सच्चाई अचानक सुरसा–सा मूंह खोले सामने आ गयी| आरुष कुछ ही पलों में बड़ा हो गया|
तभी अचानक सुनीति कमरे में आ गयी|
‘गार्ड कह रहा था कि बाबा रोते हुए रूम में गया है| क्या हुआ मॉय बेबी? टेल मी ...... आरू! बेबी गोदी में बैठो|’
सुनीति अनमने आरुष को गोदी में लेकर बैठी तो जैसे आरुष झटके से ख़यालों की दुनिया से यथार्थ के ठोस धरातल पर आ गया और रोने लगा|
सुनीति से एल्बम देखी, पास में रख दी और घबराहट में इन्द्र को फ़ोन कर दिया| फिर सेंडल्स उतारकर आरुष के आँसू पोंछते हुए ख़ुद भी रोने लगी|
माँ का हृदय बच्चे के आँसू कब सह पाता है| सिसक-सिसक कर रोता हुआ आरुष जब शांत हुआ तो बोला –मम्मी मेरे पापा पापा नहीं हैं न ?
सुनीति को जो खटका था वह सच हो गया| शब्द उसके भीतर ही रुक गये| कहे भी तो क्या कहे| इस सच्चाई को कितने वर्षों से सुनीति और इन्द्र बड़े जतन से, अपने प्यार-दुलार में, खिलौनों की भीड़ में छुपाये हुए थे|
आरुष बड़े ग़ौर से माँ के चेहरे पर आते-जाते भावों को देख रहा था| निमिष की बात उसकी ज़ुबान पर आ ही गयी-मम्मी! पापा ‘पापा’ नहीं हैं न? आप दोनों और बच्चों के मम्मी-पापा से अलग हो? आपने मुझे गोद लिया है, मैं आपका बेटा नहीं हूँ न? मैं लड़का होकर भी लड़के जैसा बन नहीं पा रहा.....क्यूँ मम्मी? क्यूँ?
सुनीति कहती रही –नहीं बेटे तुम हमारे ही बेटे हो, किसने कहा कि तुम्हे गोद लिया है, तुम तो मेरे प्यारे बेटे हो| कोई कुछ भी कहे तुम मत मानों| मैं और इन्द्र ही तुम्हारे मम्मी-पापा हैं........रोओ मत ......अभी पापा ऑफिस से आयेंगे तो तुम्हारे लिए न्यू और लेटेस्ट साइकिल लायेंगे| ‘फॉरगेट दिस आल’, ‘लव यू बेबी’
मम्मी मैं बेबी नहीं हूँ, बॉय हूँ, ‘प्लीज़ टेल में द ट्रुथ’(मैं बच्चा नहीं हूँ, मुझे सच बताओ) स्कूल में भी बच्चे मुझे चिढ़ाते हैं और यहाँ निमिष भी कुछ-कुछ बोलता रहता है, उसकी मम्मी ने कहा कि मेरे पापा सब बच्चों के पापा की तरह नहीं हैं|
रोते-रोते आरुष बोलता रहा, सुबकते हुए बड़बड़ाता रहा और भूखा ही सो गया|
सुनीति चुप! सन्नाटे में छत पे लटके पंखें को घूरती रही और दस वर्षों पहले का दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गया|
ख़ुशी में चिल्ला-चिल्ला कर सुनीति और ‘इन्द्रा’ अपने जैसे अन्य जोड़ों की तरह गले लग रहे थे| कोर्ट का फ़ैसला जो उनके पक्ष में आया था| अब समलैंगिक रिश्तों पर कानूनी सहमती की मुहर जो लग गयी थी| ....सामाजिक नज़र में और क़ानूनी किताबों में ये रिश्ते जायज़ करार दे दिए गए थे| मीडिया भरा हुआ था इन ख़बरों से –क़ानूनी तौर पर समलैंगिक रिश्तों को मिली मान्यता के पक्ष-विपक्ष में बहस छिड़ी हुई थी| सदियों से चली आ रही स्त्री-पुरुष सम्बन्धी मान्यताओं को एक करारा  झटका लगा था| भारतीय संस्कृति ने एक नयी करवट ली थी| विशाल जन-समुदाय और समाज के ठेकेदार पारिवारिक संबंधों में इस बदलाव के खिलाफ़ बोल रहे थे लेकिन दूसरी तरफ़ सुनीति और इन्द्रा फूले नहीं समा रहीं थीं|
दो प्यारी सहेलियां जो अब तक मूंह छिपाए रहती थीं, अपने-अपने घर तक में हक़ीक़त पर पर्दा डाल रखा था ..........अब खुले तौर पर अपने प्यार को कानूनी रूप दे सकती थीं, शादी कर सकती थीं ...शादी!
विचारों का ताना-बाना फ़िल्म की भांति चल रहा था कि तभी इन्द्र ऑफिस से आ गया और ब्रीफ़केस पटक सीधे सुनीति के पास आकर हड़बड़ाते हुए बोला– 'क्या हुआ, यूँ अचानक फ़ोन करके आने को क्यूँ कहा और बताया भी नहीं कि आख़िर बात क्या है?’
सुनीति इन्द्र की आँखों में देख कर बोली- इन्द्र! आज आप आरुष के लिए ‘पापा’ नहीं रहे| वह सच्चाई जानकर बिलख-बिलख कर रोया है|
‘इन्द्र’ धम से कुर्सी पर बैठ गया| पिछले वर्षों की ख़ुशी और डर अब सब सामने आईना लिए खड़े थे| अपने प्यार, सुनीति से शादी की ख़ुशी तो कुछ ही देर रही| इन्द्रा से इन्द्र बनकर जो हासिल हुआ था  ..वह और फिर आरुष का पापा कहलाने का एक नये तरह का सुख ..सब एक ही झटके में फुर्र्रर.....हो गया|
डर तो उसी दिन से था जब दोनों ने परिवार पूरा करने की इच्छा से आरुष को गोद लेने का सोचा था पर इतनी जल्दी सपनों का महल टूट कर बिखर जाएगा, अपने सुख का कारण-आरुष ही तनाव-ग्रस्त हो समाज में मूंह छिपाता फिरेगा, सोचा न था| काश! हमने यह शादी न की होती .......या फिर बच्चे की ज़िम्मेदारी न ली होती ....काश!!!!!
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