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Monday, September 8, 2014

अबोहर ,पंजाब ..................अतिथि देवो भव:




लगभग तीन बरस बाद एक बार फिर अबोहर ,पंजाब जाने का अवसर मिला और यक़ीन मानिए पहले से और पुख्ता हो गया ये विश्वास कि वहां ‘अतिथि देवो भव:’ सिर्फ कहने –सुनने की बात नहीं बल्कि जीने की शैली है|

तीन वर्ष पहले जब २०११ में मेरा पहला काव्य-संग्रह ‘स्वप्न शृंगार’ लेखक परिषद्, अबोहर द्वारा प्राकशित हुआ था तो श्री प्रवीण कथूरिया जी और श्री राज सदोष जी के निमंत्रण पर उसके विमोचन के अवसर पर आना हुआ था| वो पहली दफ़ा थी जब अबोहर, फाज़िल्का का नाम सुना था मैंने.

ऐसा लगा था मानो जैसे अबोहर के लोग पलक पांवड़े बिछाए बैठे हों. अबोहर के बॉर्डर पे पहुँचने से लेकर वापसी तक ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि हम (मैं और मेरे पति,नरेश माटिया ) अपने घर से दूर कहीं पहली बार आये. मित्रता का भाव रिश्तों में कब तब्दील हुआ, इसका अंदाज़ा भी अब लगाना मुश्किल है|
फाज़िल्का बॉर्डर पर भारत-पाक सैनिकों का बल-प्रदर्शन वाकई रोमांचित करने वाला होता है.....यह भी पहली बार ही महसूस हुआ क्यूंकि अभी तक मैंने वागा बॉर्डर पर होने वाला फ्लैग-अप या फ्लैग डाउन नहीं देखा है| खास बात यह रही कि भारतीय सैनिको को नज़दीक से मिलने का मौका मिला. यह सब हो सका राज सदोष जी और प्रवीण कथूरिया जी की मेहमान नवाज़ी की वजह से|
अरोड़ वंश धर्मशाला में मेरी पुस्तक का विमोचन एक सुनहरी याद बनके दर्ज़ हो गया मेरी ज़िन्दगी की किताब में, क्यूंकि हर एक शख्स (वहां की महान हस्तियाँ और आम लोग भी जिनमे बच्चे भी शामिल रहे )इतनी आत्मीयता से मिला जैसे कि बरसों से जानता हो.
अभी कुछ दिन पूर्व ही ये पल फिर से जीवंत हो उठे जब मित्र ,भाई देवर कुछ भी नाम दें उन्हें रमण कथूरिया जी के बेटे की शादी के शुभ अवसर पर फिर अबोहर जाना हुआ. वही प्यार ,अपनापन और बेतकल्लुफ मेहमान नवाज़ी जैसे विदेश से परिवार का सदस्य कोई लौट के आया हो|  तीनो ही परिवारों से मिलकर समय ऐसे बीता जैसे पंख लगा कर उड़ रहा हो ,
अबोहर की व्यस्त सड़कों, गलियों में रास्ते खोजने नहीं पड़े क्योंकि हर समय कथूरिया परिवार यानि परवीन जी मीनू और बच्चे आंचल,करण हमारे साथ थे.


अब एक बात जो अबोहर छोड़ते समय ज़ेहन में आई मेरे और नरेश के  वो यह कि अबोहर की तेज़ गर्मी की एक वजह शायद वहां पेड़ पौधों की कमी है| सच कहूँ तो कहीं दिखे ही नहीं- .न सड़क किनारे,  न सड़क के बीच डिवाइडर पे ,न घरों में न गली में ,न ही कोई बड़ा उद्यान. तो बस अंत में एक निवेदन इंसानों के साथ पेड़ पौधों को भी अबोहर वासी अपनी ज़िन्दगी का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाये और हरियाली के साथ कुछ ताज़ी ,ठंडी हवा भी अपने घर आँगन में लायें.
पुन: धन्यवाद सहित..... आपकी  बहुत अपनी पूनम माटिया ’पूनम’ ,दिल्ली से |  

poonam.matia@gmail.com


Thursday, September 4, 2014

ग़ज़ल ................कितना मुश्किल होता है



नज़रों का इक धोखा रखना, कितना मुश्किल होता है ||
आँखों को   आईना करना , कितना मुश्किल होता है ||

मौत जिस्म से ज़्यादा मन की, दुःख देती है ऐ लोगों |
अक्सर यूँ बेबात ही मरना, कितना मुश्किल होता है ||

दर्दों-ग़म के इस मेले में,  सबसे हम हंस-हंस के मिले | 
यूँ भी ख़ुद को ज़िन्दा रखना, कितना मुश्किल होता है ||

फ़ूलों से हम जब गुज़रे, तो हमको ये मालूम हुआ | 
काँटों की राहों पे चलना, कितना मुश्किल होता है ||

हर    इक ठोकर ने हमको , ये पाठ पढ़ाया है यारों  |
गिर, गिरके हर बार संभलना, कितना मुश्किल होता है || 

नज़रों से गिरने में कोई,    हैरानी की बात नहीं |
पर नज़रों में किसी की उठना, कितना मुश्किल होता है ||

सामने दरिया, नदी, समन्दर, बहते हों कितने ‘पूनम’|
खुद को फिर भी प्यासा रखना, कितना मुश्किल होता है ||

..... पूनम माटिया 'पूनम'