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Friday, February 17, 2017

ख़ामोश गवाह .......


वो इक टूटा-फूटा, उजड़ा मकान है
दरवाज़े हैं, खिड़कियाँ हैं, साँकल भी है पुरानी-सी
बहुत-से ताले नहीं , इतने बड़े मकान में
अब केवल एक ताला है
फ़र्श है पत्थरों के टुकड़ों में
पैंडा भी है , कुठियार भी
जाल भी है , जाले भी हैं बहुत
छत भी होगी ही कमरों के ऊपर
कमरों के भीतर कुछ बर्तन भी होंगे शायद
कुछ मिटटी के मटके , कुछ दरके हुए संदूक भी
शायद निशानियाँ अब भी हों हमारे बचपन की|
हाँ, वो रंग-बिरंगे खनकते हुए कांच के कंचे, जो
नानी मुझे नहीं केवल भाई को देती थी
लाड़ लड़ाती थी, मांजे से भरी चरखड़ी भी रखती थी
छुपाके रखती थी बहुत कुछ
हाँ
, शायद अब भी हों  .......
ये
शायद बड़ा खटक रहा है मुझे आज|
आज! जब खंडहर-में तब्दील इस मकान में मेरी निग़ाहें
खोज रहीं हैं घर!

खोज रहीं हैं उस पैंडे पर
बड़ी मेहनत से लायीं पानी से भरी टोक्नियाँ

गूँज रही है इक आवाज़, ‘न गंदे-संदे हाथ नहीं लगइयो छोरी
भीतर कुछ उथल-पुथल है, मानो कुछ टूट रहा है, बिखर रहा है ...
फिर नज़र पहुंची उस टूटे जाल से दिखते रसोड़े के किवाड़ के पीछे
अब भी चुल्हा जल रहा हो जैसे.......

अब भी तवे पे पका रही हों रोटियाँ
वो छोटी-सी कद-काठी वाली, कमर झुकाके चलने वाली,
चश्मे के गोलाकार शीशों को बार-बार आँखों पे टिकाती,
सूखे होठों पे जीभ फेरती मेरी नानी |

सबके बाद ही खाऊँगी, पहले बालक खालें
भूखी
-प्यासी पर संतुष्ट मेरी नानी!
नूनी घी में सारा दुलार उड़ेल देने वाली,
चुपके से दिल्ली वापस आते हुए मुठ्ठी में कुछ पैसे

भींच देती अपने पल्लू में बंधी गाँठ खोल के ....
आज फिर मेरी ऑंखें खोज रही हैं

वो सूती-साड़ी, सर पे पल्लू संवारती मेरी नानी


पीतल की डोलची में पानी और डोलची में कुलिया
प्रतिदिन सुबह शिवाले में बुदबुदाती हुई,

एक आरती पूरी कर जल चढ़ाती हुई, पीपल-बड़ को पूजती, परिक्रमा करती
मैं चिच्ची ऊँगली थामे साथ-साथ चक्कर लगाती, टूटे-फूटे अक्षर दोहराती
देख रही हूँ सब ...............अब चित्रवत!
अचानक फिर यादों की चिटकनी खुली, तन्द्रा टूटी
फिर शिवाले से रसोड़े में .. रे मैना
, दूध पिवाहा कर बालका ने
यहाँ-वहाँ हर जगह नानी, और उनकी सुंदर प्रतिलिपि-मेरी माँ
काँधे पे घुमाते, बाज़ार घुमाते, किस्से-कहानी सुनाते मामा...

‘चाय तैयार है’- तभी पड़ोस से आई आवाज़
खुली आँखें नींद से जगीं  

घर! जिसके कोने-कोने में दिखने लगा था जीवन
वापस खंडहर में तब्दील
मकान हो गया
मैं ही नहीं, कई जोड़े आँखें जो शायद अपना बचपन खोज रही थीं  
जाग गयीं .......और जान गयीं
‘कई अपने’ अब नहीं हैं जिनके होने से ये मकान घर था

और जान गए कि पत्थरों की उम्र इंसान से ज्यादह होती है
कम से कम खंडहर तो हैं ........ख़ामोश हैं
खड़े-खड़े गवाही दे रहे हैं- कभी आबाद थे हम भी
|

.........डॉ. पूनम माटिया