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Friday, June 14, 2019
Sunday, June 2, 2019
पहली फुहार.......कहानी .....पूनम माटिया
बस इन्हीं प्रश्नों के जवाब खोजती एक दिन जिद्द सवार हो गयी मुझ पर कि आज तो पता करना ही है वहाँ उस खिड़की के पार उस कमरे में कौन है जिसका मुझे कुछ अता-पता ही नहीं। मेरे हाथ की किताब अचानक धम्म से गिर गयी, जब मैंने वहाँ से एक गोरे से, लंबी कद-काठी वाले चश्मिश लड़के को सुबह छह बजे निकलते देखा। वह बिना इधर-उधर देखे अपनी ही धुन में खोया ताला लगा कर चल दिया।
आज जब यह दृश्य आँखों के सामने से गुज़र रहा है तो फिर वही खलबली-सी है दिल में और एक अजीब-सा अहसास है, ग्लानि भी है शायद ! कितनी बचकाना-सी हरकत की थी हम सहेलियों ने मिलकर। जब मैंने स्नेहा को बताया कि एक स्मार्ट-सा लड़का उस किराये के कमरे में पढ़ने आता है। सी.ए. की परीक्षाओं के लिए। सब ख़ोज ख़बर निकाल ली थी हमने अपनी सहेली टीना से जो उस घर के सामने ही रहती थी। टीना ने बताया था कि सिर्फ़ कुछ ही दिन पहले उस लड़के ने वह कमरा किराए (रेंट) पर लिया है और यह बात उसने भी अपने सोर्सेज़ (सूत्र) यूज़ (इस्तेमाल) करके निकलवाई थी किसी से।
खैर, जब पता चल ही गया तो बरबस निग़ाह उस तरफ जाने लगी। कब आता है, कब जाता है ? एक खेल या कोई प्रोजेक्ट-सा बन गया था, जैसे कि उसके ख़त्म होने के बाद दूसरे प्रोजेस्ट्स की तरह उस को ग्रेड्स मिलने वाले हों। क्यूँ न बनता ? आखिर वो इधर-उधर देखता ही नहीं था, जब कभी बाहर निकलता तो बस नज़रें नीचे किये हुए। मुझे तनिक भी स्वीकार्य नहीं था की कोई ऐसे भी लड़के होते हैं जिन्हें अपने आसपास देखने का मन न करे और सच कहूँ तो इन्सल्ट-सी फील होती थी की कैसे कोई सुगंधा यानि मुझे अनदेखा कर सकता है। मेरी सहेलियों ने चने के झाड़ पे जो चढ़ा रखा था मुझे कि मुझसे सुंदर कोई है ही नहीं। यह रोज़ का किस्सा बन गया सुबह छह बजे खिड़की की और स्वत: ही नज़र चली जाती थी। उठी तो वैसे ही रहती थी पढ़ने के लिए किन्तु घर में कहीं भी हूँ भाग कर जाफ़री, (हाँ, यही कहते थे अंग्रेजों के ज़माने में बने उन क्वाटर्स के आखिरी कमरे को) में पहुँच जाती थी। दिन में हम सहेलियाँ भी सैर को उस घर के आगे से निकलती थी हंसती हुई और जानबूझ कर ऊँची आवाज़ में बात करती हुई और आखिरकार 'उसने' आँखे उठाकर देख ही लिया। वाओ ! एक जीत का अहसास हुआ, मानो क़िला फ़तह कर लिया हो हमने।
"चलो अपनी और बातें फिर बताउंगी, अभी बच्चों के स्कूल से वापस आने का समय हो गया है। तुम भी बहुत मज़े लेकर सुन रहे हो, है ना ?" सुगंधा ने टेलीफोनिक साक्षात्कार को वहीं रोक, अगले दिन का समय निश्चित किया और रसोई में जाकर खाने-पीने की तैयारी में ऐसे लग गयी जैसे कुछ हुआ ही न हो। यह रसोई का काम, कपडे धोना, घर साफ़ करना आदि-आदि के साथ फ्रिलॉंस रिपोर्टिंग करना उसकी दिनचर्या में शामिल जो था। इसी सिलसिले में स्वप्निल ने उससे साक्षात्कार प्लान कर लिया था।" एक दिन मैंने जब खिड़की को खुले नहीं देखा तो बैचैनी-सी होने लगी-कहीं उसने घर छोड़ तो नहीं दिया ? कहीं वो बीमार तो नहीं हो गया ? ऐसे ही अनगिनत सवालात ज़हन में उठने लगे" सुगंधा खोई-खोई सी बोलती चली जा रही थी और स्वप्निल अपना माइक लिए उसके सामने बैठा उसके चेहरे के उतार-चड़ाव बड़े गौर से देख रहा था। आज वह उससे अपॉइंटमेंट ले घर ही आ गया था। "अचानक ही 'वह' (आज भी उसका नाम मुझे मालूम नहीं, क्यूंकि कभी बात ही नहीं हुई) आया और ताला खोलने लगा। मैंने चैन की सॉंस ली और वापस पढ़ने ही बैठने वाली थी कि 'उसने' नज़रे घुमाकर चुपके से मेरे घर की ओर देखा। ओह ! मैं झट से नीचे बैठ गयी। कहीं वो मुझे देख न ले उसे देखते हुए। इतने दिन से दिल में एक चाह थी कि 'वो' मुझे देखे तो सही और उस जब उसने देखा तो न जाने कितनी ही अनजान लहरें मेरे दिल में एक साथ ही उठ गयी मानो कोई तूफ़ान ही न आ जाये', सुगंधा मुस्कुराते हुए कहती जा रही थी।
स्वप्निल ने कुछ कहने के लिए अभी मुँह ही खोला था पर न जाने क्या सोच कर चुप हो गया और सुगंधा के हाव-भाव ऐसे देखने लगा जैसे आवाज़ के साथ वो भी माइक में रिकॉर्ड कर लेगा। "मुझे वहाँ न पाकर 'वो' अन्दर चला गया और मैं वहीं बुत बनी सोचती रह गयी कि आखिर ये मुझे हुआ क्या है" सुगंधा बोलती जा रही थी." स्नेहा जब शाम को साथ पढ़ने आई तो उसे मैंने सब बताया। उसने कहा कि चल 'उसके' घर के आगे घूम के आते हैं। मैं भी पगलाई-सी 'उसकी' एक नज़र फिर से पाने को चल पड़ी। हमारी आवाजें सुनके 'वो' बाहर आया, हाथ में तब भी किताब ही थी। 'उसने' हम दोंनो को देखा और अनमना-सा वापस चला गया। फिर तो कमाल ही हो गया, शाम को खिड़की से 'उसका' चेहरा नज़र आने लगा। वो भी मेरी तरह घूम-घूम के पढ़ने लगा था। नज़र से नज़र मिलती थी और बस फिर अपनी-अपनी पढ़ाई में लग जाते थे हम दोनों। अब वो अपने हाथ में एक गुलाब का फूल भी लेकर पढ़ने लगा था। हम सहेलियॉं यह देख बहुत ज़ोर–ज़ोर से हँसती थी और मुझे लगा कि प्रोजेक्ट ओवर।’ "स्वप्निल ! जब मैं परीक्षा के बाद अपनी बुआ के घर कुछ दिन रह कर वापस आई तो मेरी निग़ाहें बरबस ही उसकी खिडकी की ओर मुड गयीं। वहाँ कोई नहीं था, न ही किसी के होने का आभास ही। पढ़ाई के बहाने से टीना के घर गयी तो पता चला कि 'उसने' बिना कोई कारण बताये रूम छोड़ दिया था।" इतना कहते ही सुगंधा की आँखों में आँसू की बूँदें छलक आयीं और वह भीतर चली गयी। स्वप्निल सोच रहा था, ये कौन सा अहसास था जो आज भी सुगंधा को छुए था’।
सपनों से मौत तक-कहानी -पूनम माटिया
गहरी नींद में .कुछ तो कुछ पन्द्रह मिनट की 'शोर्ट नैप' लेते हुए किताब, कॉपियाँ छाती पर ही रख अध-सोये से। वार्डन के कमरे का लट्टू जगमग था मानो वार्डन अभी भी जगी हुई छात्रावास के छात्रों पर कड़ी निगाह रखे हो।
अक्सर अमीर घरों के लाड़-प्यार में पले बच्चे या फिर अनुशासन-प्रिय माँ-बाप की इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए घर से होस्टल भेजे बच्चे ही होते हैं बोर्डिंग स्कूल में। हाँ! कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका अपना कोई नहीं होता, या फिर वो बच्चे जिन्हें एक्स्ट्रा-करिकुलर एक्टिविटीज़ का भी चस्का होता है पढ़ाई के साथ...पर ये सच है बच्चे कोई भी हों नींद में डूबे बच्चे ख़ासकर परीक्षाओं के दिनों में बड़े निर्दोष, मासूम लगते हैं, बहुत प्यार आता है उनपर, जाने कौन से सपनों में खोये। कड़क से कड़क 'मेटरन' का भी दिल पसीज जाए। यही ही हुआ होगा जब मिस ट्रौफ़र अचानक शयनागार में आई बच्चों पर एक नज़र डालने ...
अपनी चेस्ट पर बच्चों को ब्लेस करते हुए क्रॉस का साइन बनाया और वापस मुड़कर अपने रूम में जाने को ही थी कि ....धां-धां ढूँ...ढूँ...ढूँ....धड़ाम..धड़ाम....शोर सुनकर काँपने का भी मौक़ा नहीं मिला और सब के चीथड़े उड़ गये। यहाँ वहाँ चीत्कार ... दूर तक पलंग के टुकड़े, मांस के लोथड़े .... सुंदर, सुकोमल बच्चे तब्दील हो गए कटी-फटी लाशों में ...खून ही खून ...किताबों -कॉपियों के परखच्चे उड़ गए, सोते हुए ख़ामोश बच्चे ...वार्डेन... लाइट्स ..... अधखाये टिफिन्स ...सुंदर कपड़े सब के सब खाक़ ... एक और आतंकवादी हमला ...एक और मानव त्रासदी ... वहशत का नंगा नाच.... दुःख की बात तो ये ...कि अपने ही नौनिहाल खौफ़नाक मौत के हवाले।
बस बहुत हुआ .......... कहानी ........पूनम माटिया
मम्मी चुनो या पापा ?
शब्द जैसे कोई पिघला सीसा उड़ेल रहा हो कानों में|
अभी रुबीना थी ही कितनी बड़ी !..... ढाई साल ! कोई उम्र है ये जिसमें वो अम्मी या अब्बा में से एक चुने .... हाफ़िज़ा की सांसे उखड़ रही थीं, आँखें भीगी और होठ कांप रहे थे .कितनी कोशिश की थी उसने कि रुबीना से जब सवाल हों तो वो उसकी गोद में हो.....पर मज़ाल है कोई उसकी बात सुने ... कोर्ट का माहोल ही बच्चे को डरा दे उसपर जज का ये सवाल ...... हाँ उस महिला जज की आवाज़ में तल्ख़ी नहीं थी न ही कोई कड़क .... |
जो भी हो मासूम रुबीना को ले के भाग जाने का मन हो रहा था हाफ़िज़ा का –‘काश मैंने तलाक़ चाहा न होता या फिर अशरफ़ ने उससे यूँही त’अल्लुक तोड़ दिया होता......कम से कम बच्ची पर क़हर तो न टूटा होता|’
कल ही की बात लगती है जब उसे अपने निक़ाह में लिया था अशरफ़ ने और ज़मीं से लेकर चाँद –तारों के वायदों से टांक दिया था आँचल उसका| पाँव में रुई भर उड़ती रहती थी घर-भर में .....मायके में भी सहेलियां जलती थीं उसकी ख़ुशकिस्मती से |
धीरे धीरे पलाश के झड़ते फूलों सा खाली हो गया उसके प्यार का शजर |
अजीब पशो-पेश में गुजरने लगे दिन-रात....... सीधे मुंह बात करना तो दूर रात घर आना ही छोड़ दिया था |
रुबीना तुतलाती जुबां में अब्बू अब्बू कह कर लिपटती तो एक पल को लगता सब दुरुस्त है |
‘छोटा –सा आशियाना जो कभी महकता था अब हर वक़्त बू आने लगी थी धीरे –धीरे सड़ते-गलते रिश्ते की |’
शुरुवात में तो मुझे लगता था कि सब ठीक हो जायेगा , मूड का क्या है काम –काज की परेशानी होगी| घर छोटा हो, रुपया –पैसा थोडा कम हो तो भी औरत पति के प्यार के सहारे ज़िन्दगी ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ार लेती है लेकिन झूठ, फ़रेब, धोखा !!!!!!!!! कैसे सहे कोई | सोच-सोच कर ख़ुद को कोसती हूँ क्यूँ दूसरे शहर में नौकरी करने की बात पर राज़ी हुई | तनख्वाह बढ़ने की बात का कह कर अशरफ़ ने जैसे लॉली-पॉप दिया मुझे|
पहले हफ़्ते की हफ़्ते आता था .आते ही लिपट जाता था मुझसे जैसे तड़प गया हो कुछ दिन की दूरी में ......साथ ही लेके चलने की बात करता था| मैं ही बुद्धू थी जो मानी नहीं|
बस दो महीने ही बीते होंगे आना तो दूर फ़ोन भी ख़ुद नहीं करता ......मैं करती तो मसरूफ़ होने की बात कर झट से फ़ोन रख देता| आसार अच्छे नहीं लग रहे थे | एक दिन जब मेरी सहेली शबनम घर आई तो उसने अपने स्कूल में नौकरी करने की राय दी | अशराफ़ को सरप्राइज़ दूँगी जब वो आएगा तो यह सोच कर झट हाँ कर दी| रुबीना को भी अपनी नानी अम्मी के यहाँ रहने में मज़ा आता था| कभी कभी सोचती थी अशरफ़ को कहूँ वापस आ जाओ अब मैं भी अच्छा कमा लेती हूँ पर जाने क्या सोच कर बताया ही नहीं वैसे भी फ़ोन पर बात अब कभी कभी ही हो पाती थी|
छह महीने पहले जब रुबीना दो वर्ष की हुई थी तो कुछ खिलौने ले कर आया था .........रुबीना को गोद में उठाकर उससे पूछ रहा था –अब्बा के संग चलोगी ?
बन्दुक की गोली सी लगी जब मैंने कहा –रूबी! अब्बू से कहो हाँ चलेंगे ........ वो तुनक कर बोला था .तुम से किसने पूछा |
मैंने कहा तो क्या मुझे नहीं ले जाओगे ........ झट बोला –और क्या मैं तो अपनी बेटी को लेने आया हूँ .अपनी नई अम्मी के पास रहेगी अब | पहाड़ टूट पड़ा हो जैसे .आँखों के आगे तारे उतर आये ......अश्कों की झड़ी को पोंछते हुए जब मैंने पुछा –मुझमें क्या कमी हो गयी अब ? जो बच्ची तो चाहिए उसकी अम्मी नहीं ........?
‘मैंने निकाह कर लिया है आश्फ़ा से चार महीने हो गए .......बड़े घर की इकलौती मालकिन है ....सुंदर है , पैसा है सब कुछ है .......पर........!!!!!!!’
पर क्या ? रुलाई रुकने का नाम नहीं ले रही थी ..पर बच्चा नहीं हो सकता उसे ..तो मैं रुबीना को लेने आया हूँ ........तुम ये घर रखो .यहीं रहो .....पर मेरी बेटी को ले जाऊंगा मैं|
जाने कौनसी शक्ति आई मुझमे और रुबीना को उसकी गोदी से खींच कर अपने आँचल में छुपाकर बोली .....अपनी बेटी नहीं दूँगी ....तुम को जाना है तो अपना समान समेटो और ख़ुशी से जाओ ........... अपनी बच्ची को मैं पालूंगी | रुबीना की माँ कोई लाचार, बेबस औरत नहीं .... पढ़ी –लिखी काम-काजी महिला है | अब आँखें फैलने की बारी अशरफ़ की थी ..|
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