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Monday, November 18, 2019

ग़ज़ल -कुछ हट के




इक रोज़ मेरे घर में ख़ुशियों ने दी थी आहट
आमद
हुई थी उनकी, पलकें बिछा दीं झटपट


बच्चे हमारे देखो क्या-क्या नहीं हैं करते
जिस
मोड़ पर खड़े हों लगते वहीं पे जमघट


दरवाज़े बन्द करके ये कौन खा रहा है?
देखो
तो क्या है आहट, क्या हो रही है खटखट?


शौहर तो एक ही है, और प्यार भी वो करता
पर
रोज़ ही लगी है चारों पहर की खटपट


वादे किए थे लाखों  मुख-पुस्तिका पे उसने
बीवी
को देखते ही उतरा बुख़ार झटपट


दिल्ली का हाल देखो, अब गाँव से भी बदतर
पानी
की वैन से तो, घट-घट बना है
पनघट


पूनम माटिया

Saturday, November 2, 2019

बस बहुत हुआ ............ #ट्रेजेडी जो हो सकती थी


बस बहुत हुआ......
बस बहुत हुआ......

मम्मी चुनो या पापा ?
शब्द जैसे कोई पिघला सीसा उड़ेल रहा हो कानों में
अभी रुबीना थी ही कितनी बड़ी !....ढाई साल ! कोई उम्र है ये जिसमें वो अम्मी या अब्बा में से एक चुने ... हाफ़िज़ा की साँसें उखड़ रही थीं, आँखें भीगी और होठ कांप रहे थे कितनी कोशिश की थी उसने कि रुबीना से जब सवाल हों तो वो उसकी गोद में हो...पर मज़ाल है कोई उसकी बात सुने ... कोर्ट का माहौल ही बच्चे को डरा दे उसपर जज का ये सवाल ... हाँ उस महिला जज की आवाज़ में तल्ख़ी नहीं थी न ही कोई कड़क ...। 
जो भी हो मासूम रुबीना को ले के भाग जाने का मन हो रहा था हाफ़िज़ा का –‘काश मैंने तलाक़ चाहा न होता या फिर अशरफ़ ने उससे यूँही त’अल्लुक तोड़ दिया होता...कम से कम बच्ची पर क़हर तो न टूटा होता। 
कल ही की बात लगती है जब उसे अपने निक़ाह में लिया था अशरफ़ ने और ज़मीं से लेकर चाँद –तारों के वायदों से टांक दिया था आँचल उसका। पाँव में रुई भर उड़ती रहती थी घर-भर में ....मायके में भी सहेलियाँ जलती थीं उसकी ख़ुशकिस्मती से। 
धीरे धीरे पलाश के झड़ते फूलों सा खाली हो गया उसके प्यार का शजर। 
अजीब पशो-पेश में गुजरने लगे दिन-रात... सीधे मुंह बात करना तो दूर रात घर आना ही छोड़ दिया था। 
रुबीना तुतलाती जुबां में अब्बू अब्बू कह कर लिपटती तो एक पल को लगता सब दुरुस्त है। 
‘छोटा –सा आशियाना जो कभी महकता था अब हर वक़्त बू आने लगी थी धीरे –धीरे सड़ते-गलते रिश्ते की ’
शुरुआत में तो मुझे लगता था कि सब ठीक हो जायेगा, मूड का क्या है काम –काज की परेशानी होगी।  घर छोटा हो, रुपया –पैसा थोड़ा कम हो तो भी औरत पति के प्यार के सहारे ज़िन्दगी ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ार लेती है लेकिन झूठ, फ़रेब, धोखा !!! कैसे सहे कोई।  सोच-सोच कर ख़ुद को कोसती हूँ क्यूँ दूसरे शहर में नौकरी करने की बात पर राज़ी हुई।  तन्ख्वाह बढ़ने की बात का कह कर अशरफ़ ने जैसे लॉली-पॉप दिया मुझे। 
पहले हफ़्ते की हफ़्ते आता था, आते ही लिपट जाता था मुझसे जैसे तड़प गया हो कुछ दिन की दूरी में ....साथ ही ले के चलने की बात करता था।  मैं ही बुद्धू थी जो मानी नहीं। 
बस दो महीने ही बीते होंगे आना तो दूर फ़ोन भी ख़ुद नहीं करता ....मैं करती तो मसरूफ़ होने की बात कर झट से फ़ोन रख देता। आसार अच्छे नहीं लग रहे थे। एक दिन जब मेरी सहेली शबनम घर आई तो उसने अपने स्कूल में नौकरी करने की राय दी। अशराफ़ को सरप्राइज़ दूँगी जब वो आएगा तो यह सोच कर झट हाँ कर दी। रुबीना को भी अपनी नानी अम्मी के यहाँ रहने में मज़ा आता था, कभी कभी सोचती थी अशरफ़ को कहूँ वापस आ जाओ अब मैं भी अच्छा कमा लेती हूँ पर जाने क्या सोच कर बताया ही नहीं वैसे भी फ़ोन पर बात अब कभी कभी ही हो पाती थी। 
छह महीने पहले जब रुबीना दो वर्ष की हुई थी तो कुछ खिलौने ले कर आया था ...रुबीना को गोद में उठाकर उससे पूछ रहा था –अब्बा के संग चलोगी ?
बन्दुक की गोली सी लगी जब मैंने कहा –रूबी! अब्बू से कहो हाँ चलेंगे .... वो तुनक कर बोला था तुम से किसने पूछा। 
मैंने कहा तो क्या मुझे नहीं ले जाओगे .... झट बोला –और क्या मैं तो अपनी बेटी को लेने आया हूँ, अपनी नई अम्मी के पास रहेगी अब।  पहाड़ टूट पड़ा हो जैसे, आँखों के आगे तारे उतर आये ....अश्कों की झड़ी को पोंछते हुए जब मैंने पूछा –मुझ में क्या कमी हो गयी अब ? जो बच्ची तो चाहिए उसकी अम्मी नहीं ...?
‘मैंने निकाह कर लिया है आश्फ़ा से चार महीने हो गए ....बड़े घर की इकलौती मालकिन है ...सुंदर है, पैसा है सब कुछ है ....पर...!!’
पर क्या ? रुलाई रुकने का नाम नहीं ले रही थी ..पर बच्चा नहीं हो सकता उसे ..तो मैं रुबीना को लेने आया हूँ ....तुम ये घर रखो, यहीं रहो ...पर मेरी बेटी को ले जाऊँगा मैं। 
जाने कौन सी शक्ति आई मुझ में और रुबीना को उसकी गोदी से खींच कर अपने आँचल में छुपाकर बोली .....बस बहुत हुआ! ...अपनी बेटी नहीं दूँगी ....तुम को जाना है तो अपना समान समेटो और ख़ुशी से जाओ .... अपनी बच्ची को मैं पालूंगी।  रुबीना की माँ कोई लाचार, बेबस औरत नहीं ....पढ़ी–लिखी काम-काज़ी महिला है। 

अब आँखें फैलने की बारी अशरफ़ की थी ..