प्यार की पहली फ़ुहार……..
‘सभी दरवाज़े बंद ...आँगन में सन्नाटा सा ....सिर्फ एक खिड़की से आती हुई ट्यूब की रौशनी. अक्सर ही मेरी नज़र उस तरफ चली जाती थी जब भी टहलते हुए कुछ देर के लिए रूकती थी मैं.
एक जगह बैठ के कभी पढने में मज़ा ही नहीं आता था . कभी कमरे में, कभी बगीचे में और कभी छत तक जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ जाती थी अपनी किताबों और नोट्स का पुलिंदा लेकर. रजिस्टर हाथों में उठाकर घूम-घूम के रट्टा लगाती हुई जब भी मेरी निगाह खिड़की से बाहर जाती थी तो न जाने क्यूँ उस खुली खिड़की से आती हुई रौशनी को देख थम सी जाती थी, खोजी दिमाग में प्रश्न अनेक आते थे . कौन है वहां ,क्या कर रहा है ? कभी देखा ही नहीं किसी को वहां घुसते या निकलते!
बस इन्ही प्रश्नों के जवाब खोजती एक दिन जिद्द सवार हो गयी मुझपर कि आज तो पता करना ही है वहां उस खिड़की के पार उस कमरे में कौन है जिसका मुझे कुछ अता-पता ही नहीं था . मेरे हाथ की किताब अचानक थम्म से गिर गयी जब मैंने वहां से एक गोरे से ,लम्बी कद-काठी वाले चश्मिश लड़के को सुबह छह बजे निकलते देखा. वह बिना इधर-उधर देखे अपनी ही किसी धुन में खोया ताला लगा कर चल दिया.
आज जब यह दृश्य आँखों के सामने से गुज़र रहा है तो फिर वही खलबली सी है दिल में और एक अजीब सा अहसास है, ग्लानि भी है शायद .
कितनी बचकाना सी हरकत की थी हम सहेलियों ने मिलकर, जब मैंने स्नेहा को बताया कि एक स्मार्ट सा लड़का उस किराये के कमरे में पढने आता है सी ए की परीक्षाओं के लिए. हाहाहा सब खोज खबर निकाल ली थी हमने अपनी सहेली टीना से जो उस घर के सामने ही रहती थी. टीना ने बताया था कि सिर्फ कुछ ही दिन पहले उसने वह कमरा रेंट पर लिया है और यह बात उसने भी अपने सोर्सेज यूज़ करके निकलवाई थी किसी से .
खैर जब पता चल ही गया तो बरबस निगाह उस तरफ जाने लगी. कब आता है, कब जाता है? एक खेल या कोई प्रोजेक्ट सा बन गया था, जैसे कि उसके खत्म होने के बाद दुसरे प्रोजेस्ट्स की तरह को ग्रेड्स मिलने वाले हों .
क्यूँ न बनता? आखिर वो इधर-उधर देखता ही नहीं था, जब कभी बाहर निकलता तो बस नज़रें नीचे किये हुए. मुझे तनिक भी स्वीकार्य नहीं था कि कोई ऐसे भी लड़के होते हैं जिन्हें अपने आस-पास देखने का मन न करे और सच कहूँ तो इन्सल्ट सी फील होती थी कि कैसे कोई सुगंधा यानि मुझे अनदेखा कर सकता है . हाहाहा! मेरी सहेलियों ने चने के झाड़ पे जो चढ़ा रखा था मुझे कि मुझसे सुंदर कोई है ही नहीं .
यह रोज़ का किस्सा बन गया सुबह छह बजे खिड़की की ओर स्वत: ही नज़र चली जाती थी. उठी तो वैसे ही रहती थी पढने के लिए किन्तु घर में कहीं भी हूँ भाग कर जाफ़री, (हाँ, यही कहते थे अंग्रेजों के जमाने में बने उन क्वाटर्स के आखिरी कमरे को) में पहुँच जाती थी. दिन में हम सहेलियां भी सैर को उस घर के आगे से निकलती थी हंसती हुई और जानबूझ कर ऊंची आवाज़ में बात करती हुई और आखिरकार ‘उसने’ आँखे उठाकर देख ही लिया .वाओ! एक जीत का अहसास हुआ, मानो क़िला फ़तह कर लिया हो हमने .
चलो अपनी और बातें फिर बताउंगी अभी बच्चों के स्कूल से वापस आने का समय हो गया है. हाहाहा! तुम भी बहुत मज़े लेकर सुन रहे हो, है न ?’
सुगंधा ने टेलीफोनिक साक्षात्कार को वहीँ रोक, अगले दिन का समय निश्चित किया और रसोई में जाकर खाने-पीने की तैयारी में ऐसे लग गयी जैसे कुछ हुआ ही न हो . ह्म्म्मम्म अब यह रसोई का काम , कपडे धोना ,घर साफ़ करना आदि-आदि के साथ फ्रीलांस रिपोर्टिंग करना उसकी दिनचर्या में शामिल जो था .इसी के सिलसिले में स्वप्निल ने उससे साक्षात्कार प्लान कर लिया था.
‘एक दिन मैंने जब खिड़की को खुले नहीं देखा तो बैचैनी सी होने लगी .कहीं उसने घर छोड़ तो नहीं दिया ,कहीं वो बीमार तो नहीं हो गया ? ऐसे ही अनगिनत सवाल ज़ेहन में उठने लगे’, सुगंधा खोई-खोई सी बोलती चली जा रही थी और स्वप्निल अपना माइक लिए उसके सामने बैठा उसके चेहरे के उतार-चड़ाव बड़े गौर से देख रहा था . आज वह उससे अपॉइंटमेंट ले घर ही आ गया था .
‘अचानक ही ‘वह’ (आज भी उसका नाम मुझे मालूम नहीं, क्यूंकि कभी बात ही नहीं हुई) आया और ताला खोलने लगा. मैंने चैन की सांस ली और वापस पढने ही बैठने वाली थी कि ‘उसने’ नज़रे घुमाकर चुपके से मेरे घर की ओर देखा. ओह! मैं झट से नीचे बैठ गयी ,कहीं वो मुझे देख न ले देखते हुए. इतने दिन से दिल में एक चाह थी कि ‘वो’ मुझे देखे तो सही और उस जब उसने देखा तो न जाने कितनी ही लहरें मेरे दिल में एक साथ ही उठ गयीं मानो कोई तूफ़ान ही न आ जाये’ , सुगंधा मुस्कुराते हुए कहती जा रही थी .
स्वप्निल ने कुछ कहने के लिए अभी मुँह ही खोला था पर न जाने क्या सोच कर चुप हो गया और सुगंधा के हाव-भाव ऐसे देखने लगा जैसे आवाज़ के साथ वो भी माइक में रिकॉर्ड कर लेगा.
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