उफ़्फ़! कितना बदल गई हूँ मैं
शम्अ जैसे पिघल गई हूँ मैं
क्या यही मैं थी, क्या वही मैं
हूँ
किसके पैकर में ढल गई हूँ मैं
किसके पैकर में ढल गई हूँ मैं
अब कहाँ शोख़ियाँ वो बचपन की
कितना आगे निकल गई हूँ मैं
कितना आगे निकल गई हूँ मैं
दर्द
ज़ाहिर नहीं किया
करती
वाक़ई अब सँभल गई हूँ मैं
वाक़ई अब सँभल गई हूँ मैं
अब क़सीदे न भी पढ़े कोई
ख़ुद ही 'पूनम' बहल गई हूँ मैं
ख़ुद ही 'पूनम' बहल गई हूँ मैं
मैं तो 'पूनम' हूँ,
चाँदनी
शब हूँ
फिर भी क्यूँ तुमको खल गई हूँ मैं
फिर भी क्यूँ तुमको खल गई हूँ मैं
.........पूनम माटिया
No comments:
Post a Comment