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Saturday, June 28, 2025

ग़ज़ल ........ पूनम माटिया

 

सुलगता रहा इक शरर धीरे धीरे
जलाता रहा वो ये घर धीरे धीरे

मचाया हवाओं ने कुहराम ऐसा
गिरा टूट कर हर समर धीरे धीरे

दिये ज़ख़्म नफ़रत ने फिर फिर हमें जब
मुहब्बत के सूखे शजर धीरे धीरे

न सोचा न समझा मगर जो उठाया
हुआ हर क़दम बे असर धीरे धीरे

फलक पर क़दम थे, सितारे ज़मीं पर
गया रेत का घर बिखर धीरे धीरे

जहाँ हम मिले थे, जहाँ से चले थे
चलो वापसी उस डगर धीरे धीरे

है मंज़िल नज़र में, तवील इक सफ़र है
वहां हम भी पहुंचें मगर धीरे-धीरे

कठिन है सफ़र पर, दिशा ठान ली तो
मुकम्मल भी होगा सफ़र धीरे धीरे।

तुम्हारे निशां हैं शिखर से शिखर तक
‘वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे धीरे’

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