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Monday, February 17, 2014

मेरे विषय में कुछ ........ आत्म कथन ('स्वप्न शृंगार' में संकलित )....

करोल बाग दिल्ली - ५ के मध्यम-वर्गीय परिवार में पैदा हुई | पांच भाई-बहनों में बडो से बहुत छोटी और छोटो से थोड़ी बड़ी होने के कारण अधिकतर असमंजस की स्तिथि में ही रही कि किसके साथ खेलूँ और किसका कहा मानूं |शायद इसलिए ही ख्यालो की दुनिया ही मेरी साथी रही और उसमे में कहीं कविताओ की पृष्ठ भूमि तैयार हुई | वो दिन भी क्या खूब होते थे जब बच्चे-बड़े, अड़ोसी-पडोसी सब मिल बैठ कर बाते किया करते थे और रात को गली में या छत पर बिस्तर डालकर खुले आकाश को निहारा करते थे |रात को तारो में और भोर में बादलो की छटा में अपनी आशाओ और आकांक्षाओ के अनुरूप प्रतिमाये ढूंढा करते थे|  
प्राथमिक शिक्षा में मम्मी पापा ने बहुत अहम भूमिका निभाई | नर्सरी-केजी पढ़ा नहीं और सीधे पहली कक्षा में ही अपने को पाया | मम्मी(श्रीमती मैना गुप्ता) का वो पहाड़े रटवाना, पापा(श्री श्याम लाल गुप्ता)  का तख्ती पर सुलेख लिखवाना आज भी मष्तिष्क पटल पर छपा हुआ सा लगता है | पढाई में सदा अव्वल आना शायद आदत में शुमार हो गया था इसलिए अध्यापिकाओ का खास स्नेह मिलता रहा | मेरी दादी रावलपिंडी से थी जो कि आज के पाकिस्तान में है| पापा ने भी उर्दू की आरंभिक तालीम ली थी |वो दोनों अक्सर कुछ गुनगुनाया करते थे जो मुझे इतना आकर्षित करता था कि मै भी खुद-ब-खुद उसे गुनगुनाना शुरू कर देती थी| शायद मेरा कवि दिल वो सब पसंद करता था | पर मै इतनी छोटी थी उस वक्त और इन सब बातों से बिलकुल अन्भिज्ञ  थी | पापा उर्दू में लोगो से बात करते थे और मुझे वो जुबाँ बहुत मीठी लगती थी इसलिए मेरा लगाव उस से हो गया |
नंदन, चम्पक, चंदामामा इत्यादि पुस्तके पढकर बचपन बीता |जैसे-२ बड़ी होती गयी प्राथमिकताये बदलती गयी | छोटी किताबो की जगह उपन्यासों ने ले ली | जब दीदी के लिए किराये पर उपन्यास लेने जाती थी तो अपने लिए भी एक राजन-इक़बाल के जासूसी उपन्यास जरूर लाती थी |इस से शायद मुझ में हरदम कुछ खोज और कुछ नया ढूंढने की आदत सी आ गयी | रानू ,गुलशन नंदा के उपन्यास भी उस वक्त में पढ़े | कविताये मन को बहुत भांति थी चाहे वो पाठ्य पुस्तक की हो या किसी पत्रिका की , ऐसा कभी लगा ही नहीं कि उन्हें पहली बाहर में ही सुर के साथ पढ़ने में कोई मुश्किल हुई हो | विद्यालय के मंच पर भी लक्ष्मीबाई का किरदार निभाते हुए कई पन्नों की कविता मुंह-जुबानी सुनाई | पाठ्य पुस्तक राष्ट्र-भारती में श्री मैथिलीशरण गुप्त , रामधारी सिंह दिनकर और निराला जी की कविताएं पढ़ने में बहुत आनंद की अनुभूति होती थी | और जब टी.वी. घर में आया तो खासकर होली के मोकों पर हास्य कवि गोष्ठियों में काका हथरसी , सुरेन्द्र शर्मा और जेमिनी हरियाणवी इत्यादि को सुनकर दिल को बहलाया करती थी | छोटे भाइयो को अक्सर कविताएं और कहानियाँ पढकर सुनाना मुझे बहुत पसंद था | एक फूल की चाह  , कदम्ब का पेड़ , आराम जिंदगी की कुंजी है , कबीर और तुलसी दास जी के दोहे सब याद करते-२ आज भी हृदय रोमांचित हो उठता है |
समय का चक्र चलता गया | विद्यालय छूटा और मै विश्वविधालय में आ गयी | विज्ञान ,पसंदीदा विषय होने के कारण मैंने विज्ञानं की उच्च शिक्षा प्राप्त करना शुरू कर दिया पर फिर भी साहित्य से लगाव लगातार बना रहा |बस अब हिंदी के उपन्यासों की  जगह अंग्रेजी के उपन्यासों ने ले ली थी | अब रोमंटिक उपन्यास ज्यादा आकर्षित करते थे |पर अब सिर्फ पढाई और पढाई ही मेरी जिंदगी का ध्येय रह गया था | पहले स्नातक फिर स्नातकोत्तर की डिग्री प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और समय गुजरता गया | घर भी बदला गया | अब हम २-कमरों के मकान से निकल कर बड़े घर में आ गए थे |सोच में भी परिवर्तन आता जा रहा था | पहले जहाँ  कई परिवार एक ही बरामदे में बैठकर गप-शप किया करते थे अब मेरा खुद का एक कमरा था | वैसे तो खाली समय की  बहुत कमी थी पर फिर भी  कभी खाली बैठने पर अकेलापन सा लगता था | उस अकेलेपन में भी विचारों का मंथन चलता था और मन स्वप्न-सजाने में लग जाता था |
फिर मेरी शादी हो गयी और मै अपनी ससुराल आ गयी | पर मेरा पढ़ने का प्रेम लगातार बना रहा एक साल बाद मातृत्व का वरदान भी प्राप्त हुआ | हमारे घर-आँगन एक प्यारी सी गुडिया(तान्या) ने कदम रखा और मेरी भूमिका में लगातार बदलाव होता रहा एक लड़की से एक युवती फिर एक प्रेयसी एक पत्नी , बहु  और अब एक माँ और मेरी सोच में भी लगातार जीवन के हर रंग का अनुभव जुड़ने के कारण निखार आता रहा | लेकिन मेरी पढ़ने की इच्छा अब भी खत्म नहीं हुई इसलिए अब मैंने  पत्राचार कोर्से के जरिये बी.एड. किया और उसके बाद एक विद्यालय में गृह-विज्ञान की अध्यापिका की तरह भी पढ़ाया लेकिन किस्मत कुछ और ही चाह रही थी | कुछ समय बाद ही हमारे घर हमारी दूसरी बिटिया (तरंग) ने कदम रखा और मैंने अपनी दोनों बेटियों का ठीक से ख्याल रखने के लिए अध्यापिका की  नौकरी छोड़ दी लेकिन अब भी उपन्यासों से मेरा जुड़ाव लगातार बना रहा | मैंने बहुत से अंग्रेजी उपन्यासकारों को पढ़ा है जैसे रोबिन कुक ,इरविन वेलस, परन्तु मेरे सबसे पसंदीदा सिडनी शेल्डन रहे हैं जिनके सभी उपन्यास मैंने पढ़े हैं |
इस तरह फिर कुछ वक्त गुजर गया | जब छोटी बेटी थोड़ी बड़ी हो गयी तब मेरे मस्तिष्क में फिर से पढ़ने का विचार कौंधा और इस बार मैंने ऍम बी ए का कोर्से इग्नू(IGNOU) से चुना और मैं फिर पढ़ने लगी | और यह सफर भी बड़े आराम से प्रथम श्रेणी से पूरा कर लिया | शादी से पहले के अनुभव , दांपत्य जीवन के अनुभव  ,पढाई के अनुभव. लोगो से मिलना जुलना आदि के अनुभव हमेशा मुझे लिखने को प्रेरित करते रहे पर कभी हिम्मत नहीं हुई इसलिए कुछ और कोर्से में अपने हाथ आजमाने की कोशिश की जिसमे विभिन्न तरह और माध्यम से कला कृतियाँ बनाना,पेंटिंग करना प्रमुख है  | व्यवसाय के क्षेत्र में भी मै जुडी जिसमे पुस्तकों और सौंदर्य प्रसाधनों के क्षेत्र प्रमुख हैं | पर मेरे दिल को सुकून अभी भी नहीं मिल पा रहा था , क्योकि दिल तो बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन कोई ऐसा क्षेत्र नजर नहीं आ रहा था जिसमे मै अपनी इस प्रतिभा में अपने हाथ आजमा सकूँ | भगवान की कृपा से मेरी दोनों बेटियां (तान्या और तरंग ) पढाई और कला के क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन करती रही हैं और उनकी इस प्रतिभा को मंच पर प्रदर्शित करने के लिए जब-तब मै कुछ न कुछ लिखती रही चाहे वो कविता हो या कहानी या फिर किसी काल्पनिक पात्र की रूपरेखा | बड़ी खुशी होती थी जब मेरे लिखे पात्र को तरंग मंच पर अपने अभिनय के द्वारा सजीव करती थी | और फिर मुझे अपनी बिरादरी (रुस्तगी समाज) के दिलशाद गार्डन संगठन का सांस्कृतिक सचिव बना दिया गया तो उसके हर वार्षिक उत्सव के संचालन की जिम्मेदारी मेरे कंधो पर आ गयी | ५-६ वर्षों से मै इस उत्सव के लिए लघु हास्य नाटिकायें लिखती रही हूँ और उनके मंचन में अपने सहयोगियों सहित अभिनय भी करती रही हूँ | कार्यक्रम के सूत्रधार की भूमिका भी मैंने ही निभाई और लोगो ने उसे हमेशा ही सराहा और मुझे काफी प्रोत्साहित किया | इन सब गतिविधियों में मै अपने पति (नरेश) और सास-ससुर(डा.श्याम सुंदर लाल और श्रीमती उर्मिला मटिया ) की भूमिका को कतई नजर अंदाज नहीं कर सकती | मेरे ससुर डॉक्टर है और मेरे पति इंजिनियर परन्तु दोनों ही लिखने का शौक रखते हैं |उनके सुझावों और साथ की  वजह से ही मै इतना आगे बढ़ पाई हूँ  | मै शहर में पली बढ़ी हूँ पर गाँव से भी मेरा संबंध हमेशा जुड़ा रहा है | मेरा ननिहाल रेवाड़ी में है जोकि हरियाणा का एक महत्वपूर्ण जिला है इसलिए मै गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने वहां जाती थी , इसके अलावा राजस्थान , उत्तर प्रदेश के विभिन्न गाँवों और शहरो में मेरा आना-जाना होता था | शायद इसीलिए ही शहर की चकाचौंध के साथ-२ गाँवों की  मिट्टी की सौंधी महक , वहां  की ताज़ी हवा ,खेतों खलिहानो में घूमना ,खुले आसमां में रातो को तारे गिनना , गाय भैंसों का ताज़ा-२ दूध पीना , कोल्हू में सरसों के तेल को निकलते हुए देखना ,वहां का रहन-सहन , बोलचाल आदि का भी मेरी जिंदगी में काफी महत्वपूर्ण स्थान रहा |इसीलिए मेरी रचनाओ में स्वत: ही इन सब की झलक भी मिलती है |
और फिर मेरा आगमन कंप्यूटर / इंटरनेट क्षेत्र में भी हुआ और यहाँ मुझे फेसबुक ने कुछ आकर्षित किया क्योकि यहाँ काफी लोग मौजूद रहते थे जिनसे मै अपने  ख्यालात बाँट सकती थी और अपनी बात कह सकती थी |धीरे-२ मैंने रोज ही लिखना शुरू किया और दोस्तों के साथ उसे बाँटा |दोस्तों को वो पसंद आया तो मेरा कुछ हौसला बढ़ा और अब मैंने छोटी-छोटी ३-४  पंक्तियों की कवितायें/शेरो-शायरी   लिखनी शुरू की |दोस्तों ने उन्हे बहुत सराहा और मेरा सफर चल पढ़ा |
फेसबुक पर पिछले दस महीनो में बहुत सारे मित्र बने और उन सबकी साथ और प्रोत्साहन ने मुझे काफी प्रेरित किया | इनमे मै अपने प्रिय मित्र श्री रहीम खान, (निवासी बालाघाट , मध्य-प्रदेश) के मार्ग दर्शन को कदापि नहीं भूल सकती जिन्होंने मेरी रचनाओ / लेखो को तस्वीरो-सहित विभिन्न वेबसाइट, क्षेत्रीय प्रत्रिकाओ और समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाया जिस से मुझ में एक विश्वास जागृत हुआ “कि हाँ मै जो लिख रही हूँ वो अच्छा है और दूसरे लोगो के पढ़ने लायक है ” | श्री रविन्द्र कुमार जी (निवासी गाज़ियाबाद ,  उत्तरप्रदेश) ने भी कुछ लेख विभिन्न पत्रिकाओ में प्रकाशित करवाये | 

श्री रेक्टर कथूरिया जी (निवासी पंजाब) ने तो मुझे फेसबुक सेलेब्रिटी बना दिया इसके बाद श्री परवीन कथूरिया जी (निवासी अबोहर , पंजाब) ने तो मेरे आत्म-विश्वास को प्रगाड़ करने में कोई कमी नहीं छोड़ी | वैसे तो बहुत मित्रों ने कहा कि आप किताब प्रकाशित करवाओ पर यह सब मुझे स्वपन सा ही लगता था इसको  श्री परवीन जी ने पूरा करने का अथक प्रयास किया और उन्ही की बदौलत आज में यह अपनी पहली पुस्तक “स्वपन श्रृंगार” के लिए आत्म कथन लिख रही हूँ | अविश्वसनीय तो था सब यह मेरे लिए साथ ही  एक ऐसी खुशी भी जिसको व्यक्त कर पाने के लिए शब्द भी कम पड़ जाएँ | नरेश ने मेरे पाँव जमीं पर टिकाटे हुए कहा कि ‘तुम सिर्फ लिखो और बाकि सब बाते भूल जाओ’ | और यही मैंने किया क्योकि मुझ जैसी साधारण ,अपरिपक्व लेखिका को कोई पढ़ना चाहेगा ये बात अभी तक मेरे ज़हन में एक नवजात पंछी की पहली उड़ान की तरह अकल्पनीय पर रोमांच से भरी लगती है | मै आभारी हूँ अपने माता-पिता , सास-ससुर और सभी परिवार-जनो, सगे-संबंधियो और मित्रों का जिनके अटूट विश्वास ,स्नेह और प्रोत्साहन ने मुझे यह अवसर दिया या यूँ कहूँ कि मुझे अपने हाथो में लेकर खुले आस्मां में एक ऊँची उड़ान के लिए उछाल दिया पर साथ में यह विश्वास भी दिलाया कि नीचे नर्म-२ घास का बिछौना है पूनम तू गिरने का डर मत रखना  |
माँ सरस्वती की असीम कृपा रही जो मै आपके समक्ष कुछ रचनाएँ प्रस्तुत कर पायी हूँ आशा है आप इन्हें पसंद करेंगे और अपने स्नेहाशीष से मेरा आँचल भर देंगे ...........
पूनम मटिया .......... जुलाई २०११ ...... तक का सफ़र ........ बाकि फिर ..... :)