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Monday, November 18, 2019

ग़ज़ल -कुछ हट के




इक रोज़ मेरे घर में ख़ुशियों ने दी थी आहट
आमद
हुई थी उनकी, पलकें बिछा दीं झटपट


बच्चे हमारे देखो क्या-क्या नहीं हैं करते
जिस
मोड़ पर खड़े हों लगते वहीं पे जमघट


दरवाज़े बन्द करके ये कौन खा रहा है?
देखो
तो क्या है आहट, क्या हो रही है खटखट?


शौहर तो एक ही है, और प्यार भी वो करता
पर
रोज़ ही लगी है चारों पहर की खटपट


वादे किए थे लाखों  मुख-पुस्तिका पे उसने
बीवी
को देखते ही उतरा बुख़ार झटपट


दिल्ली का हाल देखो, अब गाँव से भी बदतर
पानी
की वैन से तो, घट-घट बना है
पनघट


पूनम माटिया

Saturday, November 2, 2019

बस बहुत हुआ ............ #ट्रेजेडी जो हो सकती थी


बस बहुत हुआ......
बस बहुत हुआ......

मम्मी चुनो या पापा ?
शब्द जैसे कोई पिघला सीसा उड़ेल रहा हो कानों में
अभी रुबीना थी ही कितनी बड़ी !....ढाई साल ! कोई उम्र है ये जिसमें वो अम्मी या अब्बा में से एक चुने ... हाफ़िज़ा की साँसें उखड़ रही थीं, आँखें भीगी और होठ कांप रहे थे कितनी कोशिश की थी उसने कि रुबीना से जब सवाल हों तो वो उसकी गोद में हो...पर मज़ाल है कोई उसकी बात सुने ... कोर्ट का माहौल ही बच्चे को डरा दे उसपर जज का ये सवाल ... हाँ उस महिला जज की आवाज़ में तल्ख़ी नहीं थी न ही कोई कड़क ...। 
जो भी हो मासूम रुबीना को ले के भाग जाने का मन हो रहा था हाफ़िज़ा का –‘काश मैंने तलाक़ चाहा न होता या फिर अशरफ़ ने उससे यूँही त’अल्लुक तोड़ दिया होता...कम से कम बच्ची पर क़हर तो न टूटा होता। 
कल ही की बात लगती है जब उसे अपने निक़ाह में लिया था अशरफ़ ने और ज़मीं से लेकर चाँद –तारों के वायदों से टांक दिया था आँचल उसका। पाँव में रुई भर उड़ती रहती थी घर-भर में ....मायके में भी सहेलियाँ जलती थीं उसकी ख़ुशकिस्मती से। 
धीरे धीरे पलाश के झड़ते फूलों सा खाली हो गया उसके प्यार का शजर। 
अजीब पशो-पेश में गुजरने लगे दिन-रात... सीधे मुंह बात करना तो दूर रात घर आना ही छोड़ दिया था। 
रुबीना तुतलाती जुबां में अब्बू अब्बू कह कर लिपटती तो एक पल को लगता सब दुरुस्त है। 
‘छोटा –सा आशियाना जो कभी महकता था अब हर वक़्त बू आने लगी थी धीरे –धीरे सड़ते-गलते रिश्ते की ’
शुरुआत में तो मुझे लगता था कि सब ठीक हो जायेगा, मूड का क्या है काम –काज की परेशानी होगी।  घर छोटा हो, रुपया –पैसा थोड़ा कम हो तो भी औरत पति के प्यार के सहारे ज़िन्दगी ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ार लेती है लेकिन झूठ, फ़रेब, धोखा !!! कैसे सहे कोई।  सोच-सोच कर ख़ुद को कोसती हूँ क्यूँ दूसरे शहर में नौकरी करने की बात पर राज़ी हुई।  तन्ख्वाह बढ़ने की बात का कह कर अशरफ़ ने जैसे लॉली-पॉप दिया मुझे। 
पहले हफ़्ते की हफ़्ते आता था, आते ही लिपट जाता था मुझसे जैसे तड़प गया हो कुछ दिन की दूरी में ....साथ ही ले के चलने की बात करता था।  मैं ही बुद्धू थी जो मानी नहीं। 
बस दो महीने ही बीते होंगे आना तो दूर फ़ोन भी ख़ुद नहीं करता ....मैं करती तो मसरूफ़ होने की बात कर झट से फ़ोन रख देता। आसार अच्छे नहीं लग रहे थे। एक दिन जब मेरी सहेली शबनम घर आई तो उसने अपने स्कूल में नौकरी करने की राय दी। अशराफ़ को सरप्राइज़ दूँगी जब वो आएगा तो यह सोच कर झट हाँ कर दी। रुबीना को भी अपनी नानी अम्मी के यहाँ रहने में मज़ा आता था, कभी कभी सोचती थी अशरफ़ को कहूँ वापस आ जाओ अब मैं भी अच्छा कमा लेती हूँ पर जाने क्या सोच कर बताया ही नहीं वैसे भी फ़ोन पर बात अब कभी कभी ही हो पाती थी। 
छह महीने पहले जब रुबीना दो वर्ष की हुई थी तो कुछ खिलौने ले कर आया था ...रुबीना को गोद में उठाकर उससे पूछ रहा था –अब्बा के संग चलोगी ?
बन्दुक की गोली सी लगी जब मैंने कहा –रूबी! अब्बू से कहो हाँ चलेंगे .... वो तुनक कर बोला था तुम से किसने पूछा। 
मैंने कहा तो क्या मुझे नहीं ले जाओगे .... झट बोला –और क्या मैं तो अपनी बेटी को लेने आया हूँ, अपनी नई अम्मी के पास रहेगी अब।  पहाड़ टूट पड़ा हो जैसे, आँखों के आगे तारे उतर आये ....अश्कों की झड़ी को पोंछते हुए जब मैंने पूछा –मुझ में क्या कमी हो गयी अब ? जो बच्ची तो चाहिए उसकी अम्मी नहीं ...?
‘मैंने निकाह कर लिया है आश्फ़ा से चार महीने हो गए ....बड़े घर की इकलौती मालकिन है ...सुंदर है, पैसा है सब कुछ है ....पर...!!’
पर क्या ? रुलाई रुकने का नाम नहीं ले रही थी ..पर बच्चा नहीं हो सकता उसे ..तो मैं रुबीना को लेने आया हूँ ....तुम ये घर रखो, यहीं रहो ...पर मेरी बेटी को ले जाऊँगा मैं। 
जाने कौन सी शक्ति आई मुझ में और रुबीना को उसकी गोदी से खींच कर अपने आँचल में छुपाकर बोली .....बस बहुत हुआ! ...अपनी बेटी नहीं दूँगी ....तुम को जाना है तो अपना समान समेटो और ख़ुशी से जाओ .... अपनी बच्ची को मैं पालूंगी।  रुबीना की माँ कोई लाचार, बेबस औरत नहीं ....पढ़ी–लिखी काम-काज़ी महिला है। 

अब आँखें फैलने की बारी अशरफ़ की थी ..

Tuesday, October 15, 2019


*वक़्त भी किसी के रोके कहाँ रुक पाता है पर, हम रुकते हैं थामते हैं खुद को* ........

एक लम्बे अरसे से आप का पाक्षिक अखबार ‘उत्कर्ष मेल’ डाक द्वारा प्राप्त हो रहा है और अच्छा लगता है जब विभिन्न आयोजनों की, पुस्तकों के लोकार्पण की सूचना के साथ समकालीन साहित्यिक सृजन से जुड़ने का अवसर मिलता है|

मनमोहन शर्मा जी, आप मुझे गुजरात के शास्त्री कुमार जी के माध्यम से मिले .. ये इत्तेफ़ाक ही है कि दिल्ली के लोग आपस में गुजरात होते हुए मिले| खैर, बहुत समय बाद ‘उत्कर्ष मेल’ अभी फिर से मिलना शुरू हुआ और कल ही सोलह से इकत्तीस मई के संस्करण में अचानक निग़ाह श्री सीताराम गुप्ता जी के लेख ‘आगे बढ़ना है तो ज़रूरी है रुकने का अभ्यास भी’ पर जा कर रुक गयी क्यूंकि शीर्षक ही मेरी ही सोच को परिलक्षित कर रहा था और अच्छी चीज़ या अच्छी बात ध्यान आकर्षित कर ही लेती है चाहे वो अखबार ‘मेन स्ट्रीम’ हो या न हो| सबसे पहले आपको बधाई एवं धन्यवाद नैतिक संदेशों से भरपूर पठनीय सामग्री इस अखबार के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाने के लिए|
सीताराम गुप्ता जी ने सटीक लिखा कि भागते रहना ही नहीं ज़रूरी अपितु सटीक दिशा में सफलता पूर्वक आगे बढ़ने के लिए चंचल मन का कुछ पल स्थिर होना भी ज़रूरी है ..आराम , आत्मावलोकन ,अवचेतन मन की नकारात्मकता को ख़त्म करके सकारात्मक गति पाने के लिए|
तन तो चलता रहता ही है लेकिन मन की गति को विराम चाहिए ..और मुझे लेख में अंगुलिमाल डाकू एवं गौतमबुद्ध का रोमांचकारी संवाद अत्यंत सटीक उदाहरण लगा जब ‘अंगुलिमाल कड़ककर बुद्ध से कहते है, “ठहर जा|” बुद्ध अत्यंत शांत भाव से पूछते हैं, मैं तो ठहर गया हूँ पर तू कब ठहरेगा?” एक आश्चर्य घटित होता है ....बुद्ध की शांत मुद्रा और ठहराव अंगुलिमाल को दस्युवृत्ति त्याग कर बुद्ध की शरण में आने को प्रेरित करता है|
एक अच्छे विषय को सबके कल्याण की भावना से सहज और सरल शब्दों में उठाने के लिए गुप्ता जी को पुन: बधाई| अपनी एक रचना ‘अभी तो सागर शेष है ..’ में मैंने इसी विषय पर कुछ कहने की कोशिश की है जो यहाँ साझा करुँगी ..
अभी तो सागर शेष है ..
हृदय अपनी गति से
चलता जाता है
वक़्त भी किसी के रोके
कहाँ रुक पाता है
पर, हम रुकते हैं
थामते हैं खुद को
सोचते हैं, जाँचते-परखते हैं
अपनी ही सोचों की गहराई
अपने ही कार्यों का फैलाव
मापते हैं और जानते हैं
जो किया वह मात्र इक बूँद है
अभी तो सागर शेष है|

सोच फिर यह दौड़ने को
कर देती है प्रेरित
समय कितना है, पता नहीं
जाना कहाँ है, दिशा नहीं
अनजानी इक राह पे
चल देते हैं फिर क़दम
चुनने को अपनी पसंद के फूल
हटाते हुए अपनी ही राहों के शूल|
मादक इस दौड़ में
जाने–अनजाने,
कहीं किसी राह पे रह जाते हैं
हमारे क़दमों के निशां
जो शायद किसी रोज़
दिखायें किसी को राह|
हम जैसे अनजान, दिग्भ्रमित को
दिशा नयी दें पायें
बूँद, बूँद सहेज पलों को
शायद कभी सागर तक ले जायें|

इसी रचना की वजह से मेरे तीसरे काव्य संग्रह का शीर्षक भी यही है –‘अभी तो सागर शेष है ..’ जो हाल ही में अमृत प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ जिसमें मुक्त छंद रचनाओं के साथ साथ कुछ दोहे , मुक्तक और ग़ज़लें बानगी के तौर पर हैं |
सीताराम गुप्ता जी के इस लेख के अतिरिक्त ‘सोंग ऑफ़ लाइफ’ और ‘आनेस्टी’ अंग्रेज़ी कवितायें भी अच्छी लगीं |कविता मल्होत्रा जी की भावाभियक्ति भी सार्थक है किन्तु उसके शीर्षक में टंकण त्रुटी रह गयी है दोहे की पंक्ति में ..पंक्ति इस प्रकार है –‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ |
अखबार और पुस्तकों के अनवरत प्रकाशन की शुभकामनाओं के साथ ...
पूनम माटिया

डॉ. पूनम माटिया (मानद उपाधि)
M sc. B Ed. MBA MA
writer, poetess, anchor,
literary editor- true media
e mail : poonam.matia@gmail.com

Saturday, September 14, 2019

अनौपचारिक ‘राष्ट्रभाषा’ हिंदी की दशा एवं दिशा .... ‘संकल्प से सिद्धि’ की ओर



हिंदी भाषा प्यार की, हिंदी ही मनुहार 

जननी से हमको मिले, हमसे हो विस्तार

अपने इस दोहे में माँ, मातृभूमि से मिली हिंदी भाषा और इसके विस्तार की बात करना चाहती हूँ किन्तु कई प्रश्न कौंधते है मस्तिष्क में .......
एक गवर्नमेंट हॉस्पिटल का सीनियर डॉक्टर हूँ दैट माईट बी द रीज़न मुझे प्रायोरिटी दी जाती है
एक सहज बातचीत में कहा गया यह वाक्य अगर देखें तो सटीक ही लगता है क्योंकि आजकल अमूमन इस तरह की भाषा बोलते कहीं भी, किसी को भी देखा जा सकता है चाहे कोई बड़ा उद्योगपति  हो या फिर कोई छात्र, किन्तु ज़रा-से ध्यान से इस वाक्य को देखें तो पता चलता है कि वाक्य सरंचना तो हिंदी ही की है किन्तु १८ शब्दों में से ९ शब्द अंग्रेज़ी के हैं| साहित्यकार विजयेन्द्र स्नातक1 जी के शब्द स्वतः ही मेरे मस्तिष्क में आते है अंग्रेज़ी बोलने का तीसरा कारण है चारों ओर का दूषित वातावरण | दूषित वातावरण से अभिप्राय उस मनःस्थिति से है , जिसमें हम अंग्रेज़ी को महत्वपूर्ण समझते हुए उसके प्रति गौरव की भावना रखते हैं|”अन्य दो कारण जो विजयेन्द्र स्नातक जी ने प्रस्तुत किये , वे हैं- पराधीन भारत में अंग्रेज़ी वातवरण में रहने वालों द्वारा विवशतावश अंग्रेज़ी का प्रयोग और अंग्रेज़ी सीखने की इच्छा |
 सैंकड़ों  वर्षों  की गुलामी ने  स्वतंत्रता के लगभग सत्तर वर्षों बाद भी भारतीयों को अंग्रेज़ी का गुलाम ही बना रखा है | शायद आज़ादी के समय सत्ता का जो हस्तांतरण हुआ वह केवल नाम के लिए ही था क्योंकि पहले अंग्रेजो का राज हमें अंग्रेज़ी बोलने, पढ़ने, लिखने के लिए विवश करता था और स्वतंत्रता के बाद भी सरकारी तंत्र में मानसिकता नहीं बदली| हमारे राजनयिक प्रतिनिधि स्वभाषा की बजाय अंग्रेज़ी के प्रयोग को ही प्राथमिकता देते रहे| देश में और देश के बाहर भारत का प्रतिनिधित्व वे गर्व से अंग्रेज़ी में करते रहे| कुछ इसलिए कि वे इससे गौरवान्वित अनुभव करते हैं  और बहुत से इसलिए कि स्वतंत्रता के उपरान्त भी उन्होंने राष्ट्रभाषा सीखने का उपक्रम ही नहीं किया|
भारत की संसद यानि सरकारी तंत्र की कार्यवाही भी अंग्रेज़ी में होती है | महात्मा गांधी का कथन था यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बंद कर देता | सारे अध्यापकों  को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता| जो आनाकानी करते उन्हें बर्ख़ास्त कर देता| जहाँ अध्यापकों तक को बर्ख़ास्त करने की बात कही गयी है वहाँ हमारे सरकारी प्रतिनिधि गर्व से अंग्रेज़ी में वक्तव्य देते हैं-यह कैसे सहन किया जाता है| क्यूँ नहीं राजभाषा हिंदी या फिर स्वभाषा का प्रयोग अनिवार्य किया जाता|
हम आप सभी जानते हैं  भारत में हर कुछ कोस पर भाषा या बोली बदल जाती है और हर भाषा का अपना एक लम्बा, गौरवपूर्ण इतिहास है, सम्पन्न शब्दकोष है फिर क्यूँ हमें एक विदेशी भाषा, जो विश्व में किसी देश की भी मातृभाषा नहीं, उसका सहारा लेना पड़ता है अपने भावों को अभिव्यक्ति देने में|
वैदिक भाषा संस्कृत सभी भारतीय और कुछ विश्व भाषाओं की जननी है और इसी कारण उन्हें आपस में जोडती है| संस्कृत परिष्कृत भाषा थी और है| संस्कृत की तुलना अंग्रेज़ी से करना सर्वथा अनुचित है| संस्कृत और भारतीय अन्य भाषाओं  का सम्बन्ध इतना गहन है कि उनके बीच कोई दीवार टिक नहीं सकती| प्राचीन भारत में संपर्क सूत्र का कार्य संस्कृत भाषा करती थी| उत्तरी भारत और दक्षिण भारत के बीच संस्कृत ही संपर्क भाषा थी|  हर्षवर्धन के ज़माने से, 7वीं सदी से भारतीय भाषाओं का उत्थान होना शुरू हुआ और बोलियाँ , उप-बोलियाँ बनी और उनसे अपना गद्य समृद्ध हुआ|
हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में वार्तालाप करने से जो अपनत्व का अहसास होता है वह अंग्रेज़ी या अन्य किसी विदेशी भाषा में नहीं हो सकता| स्वभाषा मौलिकता की जननी है और शिक्षा का माध्यम विदेशी नहीं, स्वदेशी भाषा होना चाहिए | महर्षि दयानंद सरस्वती जी भारत के मौलिक विचारक थे |उन्होंने अपना एक भी ग्रन्थ अंग्रेज़ी में नहीं लिखा| आजादी के बाद भाषा के सवाल को सबसे जोरदार ढंग से उठानेवाले कोई नेता या विद्वान हुए हैं उनमें सबसे बड़ा नाम डॉ. राममनोहर लोहिया है| उनकी प्रेरणा से भाषा के सवाल पर हज़ारों लोग जेल गए, अंग्रेज़ी नामपट पोते गए| कई विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता ख़त्म हुयी| उन्होंने संसद और सर्वोच्च नयायालय में अंग्रेज़ी के शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया | हिंदी में सारी बहस की, उनकी प्रेरणा से वेद प्रताप वैदिक जैसे हज़ारों नौजवान अंग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन में कूदे| उनका मानना था कि जब तक भारत से अंग्रेज़ी का दबदबा नहीं हटेगा, भारत में सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता और न ही समाजवाद| यदि भारत में हमें सच्चा व्यवस्था परिवर्तन करना है तो विश्वविद्यालयो में पढ़ाई का माध्यम स्वभाषा को बनाना पड़ेगा|2
खैर! मुद्दे की बात यह है कि भूतकाल में या आजतक जो होता रहा उसे बदला नहीं जा सकता किन्तु गुलामी की जंजीरे तोड़ और इस भ्रम (कि अंग्रेज़ी ही वह विश्व-भाषा है जो हमारे लिए वह खिड़की खोलती है जिससे ज्ञान की गंगा भारत में प्रवाहित हो सकती है) से निकल हिंदी को राष्ट्र-भाषा का स्थान देकर उसकी गरिमा को प्रत्येक भारतीय के ह्रदय में स्थापित करना होगा| यह सत्य है कि दुनिया के केवल साढ़े चार देशों की भाषा अंग्रेज़ी हैअमेरिका, ब्रिटेन, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा| आधा कनाडा फ्रेंच बोलता है| ग्रेट ब्रिटेन या यूनाइटेड किंग्डम कहलाने वाले क्षेत्र में भी पूरी तरह से अंग्रेज़ी नहीं चलती|
अंग्रेज़ी सहित किसी भी विदेशी भाषा का अपमान करना मेरा ध्येय नहीं किन्तु भारत जैसे विशाल देश, जिसकी सांस्कृतिक विरासत का लोहा पूर्ण विश्व मानता है उसकी अपनी एक राष्ट्र-भाषा होनी चाहिए| विभिन्नता में एकता के प्रतीक हिन्दुस्तान में हिंदी में बोलना-लिखना, पढ़नापढ़ाना आत्मगौरव का विषय होना चाहिए न कि ग्लानि का|
भारत में एक लम्बे अरसे तक राज करने वाला इंग्लैंड एक ठंडा प्रदेश है| गुलामी के समय तो वकीलों को काला लबादे जैसा कोट, गले में कसी टाई पहनना अनिवार्य हो सकता था परन्तु अब स्वतंत्र भारत में जो कि मूलतः एक गर्म देश है, क्या आवश्यकता है कि वकील ज़बरदस्ती यह लबादा ओढ़े स्वयं को बंधा-बंधा अनुभव करते रहें? इसी तरह भारत को क्या आवश्यकता है विदेशी भाषा का बोझ लादे चलने की?
भविष्य में भारत को अपनी गौरवशाली परंपरा को पुनर्जीवित करना पड़ेगा| यह मुश्किल तो है किन्तु असंभव नहीं| मेरा मानना है कि सोच में बदलाव का बहाव ऊपर से नीचे की ओर होता है| सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति यदि चाहे तो स्थितियों में बदलाव ला सकता है| वह अपनी इच्छा शक्ति से क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है| पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अब वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्व पटल पर पुनः हिंदी को भारत की पहचान बनाने के लिए प्रयासरत हैं| मोदी जी की मातृभाषा गुजराती है किन्तु विदेश में जहाँ तक संभव हुआ हिंदी में ही उन्होंने अपने विचार रखे और हम सबने देखा कि उन्हें सम्मान से सुना और समझा गया| कहीं ज़रूरत पड़ी तो अनुवादकों या अनुवादक मशीनों का प्रयोग किया गया|  
भाषा तोड़ने का नहीं अपितु जोड़ने का कार्य करती है| भारतीयों के स्वाभिमान को विश्व में पुन:स्थापित करने का कार्य हिंदी ने किया| मौलिक चिंतन, राष्ट्र-निर्माण, अनुसंधान, गवेषणा को संकल्पित भारत हिंदी को आर्थिक, सामाजिक, शासकीय और ज्ञान अर्जन का माध्यम बना कर भविष्य में पुनः विश्व गुरु बन सकता है|
वैसे तो हिंदी को अनौपचारिक तौर पर राष्ट्रभाषा का और संवैधानिक स्तर पर राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है एक अरसे से किन्तु अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़े सरकारी तंत्र के लोग अंग्रेज़ी में ही कार्य करना सुलभ मानते आये हैं| हिंदी में पत्राचार इत्यादि करने के लिए अलग से समानंतर स्टाफ़  रखा जाता है और हम-आप जैसे साधारण लोग उस क्लिष्ट हिंदी को पचा  नहीं पाते| परग्रही भाषा बना डाला है सरल, सहज रगों में दौड़ने वाली हिंदी को| हिंदी का शब्दकोश विशाल है और अन्य भाषाओं उर्दू, फारसी इत्यादि के शब्दों ने भी उसमें अपना स्थान सुनिश्चित किया है और मैं समझती हूँ कि अंग्रेज़ी, रूसी, फ्रेंच, जर्मन, ग्रीक इत्यादि के कुछ शब्द जो  नित्य प्रति उपयोग की जाने वाली हिंदी के अविभाज्य अंग बन गए हैं वे यथारूप हिंदी भाषा के विस्तृत रूप का हिस्सा रहें| क्या ज़रूरत है रेलया ट्रेनशब्द को मुश्किल बनाया जाए, ‘लोहपथगामिनीजैसे मुश्किल या हास्यास्पद शब्द को प्रयोग में लाकर हिंदी का मज़ाक बनाया जाए| साधारण जनमानस हिंदी में सोचता है, उसी भाषा में अभिव्यक्ति का अधिकार छीन उसे क्यों अंग्रेज़ी भाषा का अतिरिक्त, अनावश्यक भार ढोहना पड़े|
हम सभी अनुभव करते हैं कि जिस भाषा में हम स्वयं को सक्षम मानते हैं उसी में सोचते हैं और उसी में पढ़ना, लिखना, बोलना चाहते हैं| यह भाषा लादी हुयी नहीं हो सकती| जीवन के प्रारंभिक काल के कुछ वर्ष बच्चा परिवार में बोली जाने वाली भाषा तथा विद्यालय में सिखाई जाने वाली भाषाएं आसानी से सीख जाता है तो स्वाभाविक तौर पर मातृभाषा सीखने में कोई विशेष परिश्रम न तो अभिभावकों को करना पड़ता है न ही स्वयं बच्चे को| ऐसे में यदि परिवार ही बच्चे के साथ अंग्रेज़ी में वार्तालाप करे तो शिशु का अपना क्या कुसूर|
बाल्यकाल से ही गुलाम मानसिकता के साथ पोषित ऐसे बालक से कैसे राष्ट्रभक्ति, स्वाभिमान या मौलिक विचारों की आशा की जा सकती है| केवल नौकरशाही के लिए तैयार किये जाने वाले इन युवक, युवतियों में क्यों फिर नवीन शोध, आविष्कार और भारत के प्रति समर्पण के भाव जागृत होंगे| अंग्रेज़ी को औज़ार बनाकर, आर्थिक सम्पन्नता का ध्येय लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर भारत का यह धन विदेशो में अपनी ज़मीन तलाशता भारत से पलायन कर जाता है| घर-परिवार, समाज, राज्य और देश अपना महत्त्व खो देते हैं, राष्ट्रीयता के विधायक तत्व- भाषा, संस्कृति, धर्म, साहित्य और दर्शनजिनसे किसी देश की समूची राष्ट्रीयता का आंकलन होता हैसभी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं| तो बाल्यावस्था के आरंभिक वर्ष जिनमें बालक एक स्पंज की तरह होता है और शीघ्र सीखता है उस समय आवश्यकता है कि स्वभाषा और हिंदी की नींव पड़े| उसके पश्चात् अंग्रेज़ी, रूसी, फ्रेंच, जर्मन, उर्दू, फारसी, अरबी, चीनी कोई भाषा सीखें|इस समस्या के निराकरण हेतु त्रिभाषा अर्थात हिंदी, मातृभाषा और विदेशी या अन्य भारतीय भाषा को शिक्षा-पद्धति का अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए| 
ज्ञान-विज्ञान अपनी ही भाषाओँ  में हो तो चिंतन-मनन भी उन्हीं  भाषाओँ  में होता है, अपनी भूमि, अपने लोगो से इंसान जुड़ता है, उनके विचार, आवश्यकताएं, कमियाँ-सभी की जानकारी होती है और ऐसे में वे रास्ते, वे माध्यम खोजे जाते हैं जिनके फलस्वरूप कमियों को पूरा किया जाता है, कठिनाइयों, समस्याओं का निराकरण किया जाता है|
अब एक और महत्वपूर्ण विषय की चर्चा करना चाहूंगी| यह माना जाता रहा है कि अंग्रेज़ी ही ज्ञान-विज्ञान की खिड़की खोलती है अर्थात विश्व को ज्ञान का भण्डार तभी दिखेगा जब हमारी अंग्रेज़ी स-शक्त होगी क्योंकि बचपन से ही विज्ञान की परिभाषा अंग्रेज़ी में ही पढ़ाई जाती है विज्ञान के विद्वान भी विज्ञान की बात अंग्रेज़ी जुबान में ही करते हैं| यह तर्क भी दिया जाता है कि विज्ञान का उद्गम पश्चिम की अंग्रेज़ी भाषा में ही हुआ है अतः उसे केवल अंग्रेज़ी में ही पढ़ना-पढ़ाना उचित है|
आज के सन्दर्भ में यह केवल एक भ्रांति मात्र है| एक लेख3 के अनुरूप माध्यमिक, उच्च, महाविद्यालयी तथा विश्वविद्यालयी स्तर की तकनीकी  और विज्ञान की पुस्तकें और पढ़ाई अब हिंदी में उपलब्ध है| विज्ञान शाखा से ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षाओं के बाद बी एससी, बी कॉम, बी सीए, इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग, नर्सिंग तथा एल एल बी(विधि) की पढ़ाई हिंदी में की जा सकती है| लेकिन इसमें एक समस्या यह है कि जो लोग पहले से ही इन विषयों को अंग्रेज़ी में पढ़कर कॉलेजों  तथा विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं उन्हें इन विषयों को पहले हिंदी में पढ़ना होगा तभी वे अपने विद्यार्थियों को पढ़ा पाएंगे| इनके लिए डी एड, बी एड तथा एम एड के पाठ्यक्रमों में भी इन विषयों को हिंदी में पढ़ने का पर्याय उपलब्ध कराना होगा| भारत सरकार के उच्च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा विभाग द्वारा विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है| इन सभी परिवर्तनों से हमारे देश की वैज्ञानिक चेतना में जागृति बढ़ेगी और केवल अंग्रेज़ी के बोझ तले दबे प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के भविष्य को सँवारने में भी सहायता मिलेगी|
एक अलग कोण से भी हिंदी की वरीयता को भारत में स्थापित करना आवश्यक है| विभिन्न क्षेत्रीय भाषाएं भारत के आसमान में इन्द्रधनुषी रंग भरती हैं इसमें दो राय नहीं किन्तु आप और हम सभी जानते हैं कि सात रंग मिल जाते हैं तो सफ़ेद रंग बनता है| सूर्य की धवल रौशनी (व्हाइट लाइट जिसमें सभी रंग समाहित हैं) की भांति हिंदी भारत की पहचान बने यह हम सभी भारतीयों का मूल ध्येय होना चाहिए| किन्तु हिंदी के कतिपय विरोधी अपने क्षेत्रीय स्वार्थों एवं राजनैतिक हितों को दृष्टिगत रखते हुए हिंदी के विरोध पर उतारू हैं|      
मेरी आँखे उस दिन को देखने के लिए तरस रही हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक ही भाषा को समझने और बोलने लगेंगे”- राष्ट्र पितामह महर्षि दयानंद सरस्वती की यह इच्छा पूर्ण होना असंभव नहीं है| विशाल भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक कहीं चले जाएँ, गुजरात, पंजाब, असम, मणिपुर, केरल आदि हर राज्य में हिंदी सब समझते हैं| कारोबार की ज़रूरत सबको हिंदी से जोड़े रखती है| पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर  वे बेशक अपनी क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करते हैं  किन्तु हिंदी हिन्दुस्तान के दिल में बसती है|सम्पूर्ण देश में हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसका व्यवहार सर्वाधिक जनसँख्या द्वारा सर्वाधिक भू-भाग में होता है| एक मोटे अनुमान से भारत में हिंदी बोलने वालों की संख्या 60 करोड़ होगी| बहुसंख्यक लोगों की भाषा होने के कारण हिंदी राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता रखती है| विस्तृत शब्द-भण्डार, समृद्ध साहित्य, वैज्ञानिक लिपि एवं राष्ट्रीय एकता में सहायक होने के कारण ही हिंदी राष्ट्रभाषाके पद पर सुशोभित होने योग्य है| आज अगर अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी आ जाये तो देश में शिक्षा का स्तर रातो-रात ऊपर उठ जायेगा2| जैसे माँ के दूध के मुकाबले शिशु के लिए अन्य कोई दूध नहीं होता वैसे ही शिक्षा के लिए मातृभाषा के अलावा कोई और भाषा नहीं हो सकती| पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण की भाषाएं असमिया, कोंकणी, तमिल, तेलुगु, राजस्थानी, ढोगरीहर एक भाषा का अपना महत्त्व है किन्तु वे भाषाएं अपने प्रांत तक सीमित हैं राष्ट्रभाषा की भूमिका में हिंदी भारत देश की संस्कृति को भी उजागर करती है| हम सभी का प्रयास रह्ना चाहिये कि मातृभाषा के अतिरिक्त हम सभी हिंदी में अनिवार्य तौर पर शिक्षित हों|
आजादी से पूर्व पूर्ण भारत यानि हर छोटे से छोटा क्षेत्र एक राष्ट्रीय ध्वज के तले, एक भाषा, हिंदी के माध्यम  स्वतंत्रता प्राप्ति को ध्येय बना कर आपस में जुड़ गया था| किसी प्रांत, कोई धर्म, कोई भाषा हो सभी के लिए ये राष्ट्रीय चिन्ह सर्वोपरि थे किन्तु आजादी प्राप्त करते ही इनकी प्रासंगिकता समाप्त हो गयी और स्वतंत्र भारत में विघटन दृष्टिगोचर हुआ, प्रान्तों के स्वाभिमान, सियासी चालें देश को जोड़ने की बजाये बांटने का कारण बनीं| वोट बैंक की राजनीति के चलते हर नेता अपने समर्थकों को आगे बढ़ाने में व्यस्त रहा और उनकी जाति, धर्म और भाषा का अनुमोदन करता रहा और आज हम भारतीय न रहकर मैं हो गए हैं| आज हर प्रांत अपनी भाषा को लेकर अड़ा है हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकारने से मना करता है क्यूंकि इसमें उसे अपनी स्वायत्ता खोने का भय है| आज कुछ ऐसी प्रक्रिया की आवश्यकता है जिससे हर राज्य हिंदी भाषा और राष्ट्र की पहचान से अपने को जोड़ कर देखे, एक पुल-सा बने क्षेत्रीय एवं राष्ट्रभाषा हिंदी के मध्य और यह कैसे होगा यह सरकारी एवं शोध का विषय है| एक छतरी जैसे धूप-पानी से रक्षा करती है उसी तरह हिंदी और क्षेत्रीय भाषाएं आपस में जुड़ कर कार्य करें न कि कोई भाषा अपने वर्चस्व के प्रति हिंदी से भयभीत हो| 
मेरी सोच तो यह कहती है ..... 
सखी, सहेली-सी चलें, सब भाषा इक साथ
बुरी नज़र को रोक लें, जोड़ें हम सब हाथ 
अभी हाल ही में कर्नाटक की मेट्रो में कन्न्ड़, अंग्रेज़ी और हिंदी में दिशा-निर्देश लिखे गए तो वहां के कुछ लोगों ने विरोध करते हुए हिंदी शब्दों पर कालिख़ पोत दी| यह विरोध ख़त्म करने की आवश्यकता है| हालाँकि शासन, प्रशासन और मीडिया(समाचार चैनल, सिनेमा इत्यादि) अब काफी सचेत हैं  और हिंदी को खुले दिल-दीमाग से मान्यता दी जा रही है| अंग्रेज़ी चैनल जहाँ आवश्यक हो हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में भी बातचीत करते हैं ख़ासकर छोटे-छोटे गाँव, कस्बों में रिपोर्टिंग करते समय| मैं सोचती हूँ कि यदि हम इस दिशा में पूर्ण समर्पण से बढ़ें तो प्रधान मंत्री जी के संकल्प से सिद्धि अभियान के तहत यह असंभव भी नहीं|
एक और बात जो शोचनीय है वह कि जब-जब भारत पर विदेशी आक्रमण हुए और कई सौ वर्षों तक भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा, यहाँ शोध कार्य, आविष्कार इत्यादि लगभग समाप्त ही हो गए जो कि भारतीय संस्कृति की पहचान थी, जिनके कारण भारत सोने की चिड़िया कहलाता था| इस पराधीन काल में पश्चिम में ही तकनीकी क्रांति हुई और जिसके कारण भारत व् अन्य देश आज पश्चिम को श्रेष्ठ मान उसकी तरफ़ ही ताकते दिखाई देते हैं और अंग्रेज़ी का वर्चस्व भारतीय भाषाओं के लिए खतरा बना हुआ है| तकनीकी के प्रचार, प्रसार का एक लाभ तो हुआ कि अब हम जानते हैं कि हमारी मूल संस्कृति क्या थी| हमारी शिक्षा प्रणाली कितनी स्वस्थ, सुदृढ़ एवं सक्षम थी| कहने का अभिप्राय है कि हम कम्प्यूटर को, इन्टरनेट  इत्यादि को हिंदी में क्या कहें ..... इसमें समय व्यर्थ गंवाने से अच्छा है कि हम इन शब्दों को ऐसे ही हिंदी में सम्मिलित करते हुए आगे बढ़ें और अपनी शोध और आविष्कार करने की प्रवृत्ति को पुनर्जागृत कर प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा प्रस्तावित नए भारत के निर्माण में योगदान दें| नवीन, मौलिक खोजों का ही नवीन हिंदी नामकरण करें जो स्वयं पूर्ण विश्व में इन नामों से प्रचलित हो जायेंगी|
अंत में भारत की पहचान राष्ट्र-भाषा के सन्दर्भ में भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की ये पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगी जो सदैव प्रासंगिक हैं-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।


निज यानी अपनी भाषा से ही उन्नति संभव है
, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है।


पूनम माटिया (विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर प्राप्त))
कवि, लेखिका, संचालिका
एम एस सी, बी एड , एम बी , एम हिंदी
प्रांत मंत्री, इन्द्रप्रस्थ साहित्य भारती (रजि.)
 उपाध्यक्ष, राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना

 सन्दर्भ ....
1.स्वतंत्र भारत में अंग्रेज़ी का मोहविजयेन्द्र स्नातकआलेख-76-79 पृष्ठ, आधुनिक साहित्य-वर्ष 4, अंक 13, ISSN 2277-7083
2.मेरे सपनो का हिंदी विश्वविद्यालय, डॉ. वेद प्रताप वैदिक, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली ISO 9001: 2008
3.हिंदी में विज्ञान साहित्य की उपलब्धताराहुल खेरपृष्ठ 37-38, हिन्दुस्तानी भाषा भारती, अप्रैलजून 2017, RNI NO. DELHI N 28653