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Thursday, December 24, 2015

मेगावाट से गीगावाट


अक्षय  ऊर्जा  है     वरदान
कर लें हम भी इसका सम्मान


पूरण  विकास  होगा  संभव
हरी-भरी वसुधा  होगी
निहित है ऊर्जा कण-कण में
सौर , जैव से स्त्रोत महान|

अक्षय ऊर्जा ........

वायु-जल, भू-ताप में संचित
अक्षय ऊर्जा के भण्डार
वैश्विक ताप करना है कम
जन-जन ले अपने संज्ञान|
अक्षय ऊर्जा ........

नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश
देता आत्म-निर्भरता का सन्देश
अर्थव्यवस्था होगी सुदृढ़
मेगावाट से गीगावाट संधान| 

अक्षय ऊर्जा ........


स्वत: स्फूर्त, सुरक्षित, अबाध
अक्षय ऊर्जा , अक्षय विकास
पर्यावरण अरु मानव का साथ
हो सिद्ध-प्रसिद्द भारत का मान|

अक्षय ऊर्जा ........


.......पूनम माटिया 

Wednesday, October 21, 2015

दहेज़ का दानव

ग़लती सारी नहीं दहेज़ मांगने वालों की कुछ तो ग़लती रही होगी उनकी भी जो लाड़-लाड़ में , दिखावे में लाद देते हैं बिटिया को ऊपर से नीचे तक सोने में और यही बातें ख़लल डालती हैं ग़रीब के चैन की नींद सोने में ।


दहेज़ इच्छा से दें तो खुशियाँ नहीं तो जुड़ जाता है दुखों से रिश्ता पल-पल बन जाता है नासूर हर ज़ख्म रहता है रिस्ता टूट जाती है डोर जो बंधी थी सात फेरों में पड़ जाती हैं बेड़ियां न रुकते हैं आंसू न हिलते हैं लब बस साँसे ही टूट जाती हैं क्योंकि बिटिया रानी न ससुराल, न ही मायके में ज़ुबान खोल पाती है माँ-बाप पीटते हैं छाती जली हुई कटी हुई जब बस लाश ही हाथ आती है|


मैं पूछती हूँ कि क्यों ? सोते रहे जब बिटिया बिन कहे कुछ सिर्फ़ मुस्काती थी खिलखिलाने में भी उसके कराहट बुदबुदाती थी नज़रें कहाँ मिलाती थी? वो तो धरती में ही गढ़ी जाती थीं| क्यों नहीं खोली आँखें तब ? क्यों नहीं सुना मौन जान से प्यारी बिटिया का? ग़लती तब की जब ज़ालिमों के घर बिहा दिया गलतियों का पुतला बन बलिवेदी पर अपनी ही बिटिया को चढ़ा दिया दहेज़ के दानव ने निगल ली एक बिटिया फिर!!!!!!!!!!!!!


पूनम माटिया दिलशाद गार्डन , दिल्ली

काव्यात्मक एवं कथा रसास्वादन से भरपूर गोष्ठी

'कल कहीं व्यस्त हो क्या , कोई आयोजन तो नही ????' अचानक ही मोबाइल उठाते ही प्रश्न कर दिए जाते हैं ..........'नहीं तो .......हों भी तो कल कहीं जा नहीं रही'..... ‘ओके तो कल तुम्हारी तरफ़ही एक ‘क्लोज़’ गोष्ठी का आयोजन है जिसमे कहानियां पढेंगे कुछ लोग ......कुछ कविता भी पढेंगे ......तुम ग़ज़ल पढ़ देना. चलोगी क्या ?????????' ......अरे ! यह तो बताओ जाना कहाँ है ,किसके यहाँ , कौन -कौन आ रहा है ???? ' रविन्द्र कालिया जी और ममता कालिया जी के निवास स्थान पर गोष्ठी है'.........’ओह तो चलूंगी न ....... समय और स्थान एस एम एस में भेज देना ' ........

और इस तरह क्रासिंग रिपब्लिक के निकट स्थित साहित्य क्षेत्र के बहुचर्चित आदरणीय कालिया दंपति के यहाँ पहली दफ़े १७ अक्टूबर २०१५ को गोष्ठी में जाने का सु-अवसर मिला| 
इस अपूर्व गोष्ठी के संयोजन व् सञ्चालन का दोहरा श्रेय जाता है हमारे मित्र मशहूर कहानीकार डॉ. अनुज को| वैसे तो फेसबुक की शुरुवात से ही डॉक्टर साहेब मेरी मित्र-सूची में थे किन्तु मेरे दूसरे काव्य-संग्रह ‘अरमान’ के प्रकाशन के बाद उसके नॉएडा स्थित ‘मारवाह स्टूडियोज़’ में विमोचन में आपने मेरी पुस्तक पर समीक्षात्मक वक्तव्य दिया और साबित किया कि एक कहानीकार काव्य को भी पसंद करता है और प्रोत्साहन देना भी जानता है|
जब भी ‘कथा’ पत्रिका का अंक आया , कथा के संपादक के रूप में अनुज ने याद किया, चाहे अंक ‘मीरा’ को समर्पित हो या फिर ‘बाल-साहित्य’ को | 

खैर, अब वापस आते हैं इस नायाब गोष्ठी पर ....नायब इसलिए कि यह मेरा पहला अनुभव था जब काव्य से इतर कहानी-पठन भी गोष्ठी का अभिन्न अंग बना| ख्यातिप्राप्त उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक बेहतरीन संपादक रविन्द्र कालिया जी और ममता कालिया जी जो कहानी, उपन्यास, निबंध, और पत्रकारिता अर्थात साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखती हैं ....और इनके आत्मीय सानिध्य के साथ-साथ ‘परिकथा’ पत्रिका के संपादक शंकर जी की अध्यक्षता में आकांक्षा ,सुशील कुसमाकर, मनोज, रश्मि भारद्वाज ,पूनम माटिया ने काव्य-पाठ किया और सोनाली मिश्र, ,गीताश्री, वंदना राग ने कहानी-पाठ|

हालाँकि कहानी मेरा प्रमुख क्षेत्र नहीं है किन्तु यदा-कदा मैं गद्य और पद्य के बीच की सीमा को लांघ जाती हूँ जैसे कि आप सभी जानते ही हैं कि ३-४ लघु कथा–कहानी मैंने भी लिखी हैं और मंचीय नाटिकाएं भी| तो इस रूचि को भी बहुत मात्रा में साहित्यिक पौष्टिक भोज प्राप्त हुआ इस अनूठी गोष्ठी में जिसका अत्यंत ही रोचक व् सटीक नामकरण ‘बिंदिया’ पत्रिका की संपादक गीताश्री ने आरम्भ में ही कर दिया था ‘एकांत के सहचर’........ सच में भी दिल्ली के शोर से दूर वहां सातवीं मंजिल पर स्थित ‘कालिया निवास स्थान पर खुली कविता, शेर , ग़ज़लों और कहानियों के वाचन में गुज़ारे कुछ ही घंटो में हम सबको को पढने-सुनने और उससे भी महत्वपूर्ण कहानी की बारीकियों को जानने का अवसर मिला|

सुशिल कुसुमाकर ने ‘परिंदे’ ‘नींद मुझे भी नहीं आती’ ‘यह जो शहर’ नामक कवितायें पढ़ीं और रविन्द्र कालिया जी को उनके लेखन में काफी संभावनाएं दिखीं हालाँकि उन्होंने ‘लाउड’ शब्दों के प्रयोग से बचने की ताक़ीद दी |मनोज ने मोबाइल और गर्ल फ्रेंड के सन्दर्भ में कविता पढ़ी |आकांक्षा ने अंग्रेज़ी कविता पढ़ी, अच्छा लगा कि आज के यूथ में कविता के प्रति लगाव है चाहे भाषा कोई हो ...कविता अच्छी और भी लगती अगर उसे धीरे-धीरे पढ़ा जाता| मैंने भी एक कविता ‘वो घर घर लगता था’ और एक ‘लटें जज़्बात कीं’ पढ़ीं |ग़ज़ल की फ़रमाइश पर एक तहत में और एक तरन्नुम में पढ़ी |अश’आर पसंद किये गए कहानी के माहौल में ... यही सफलता थी हालांकि ‘परिकथा’ पत्रिका में ग़ज़ल के लिए स्थान नहीं होता|

रश्मि भारद्वाज की कविताएँ और पढ़ने का अंदाज़ को ख़ूब पसंद किया गया |उनके द्वारा पढ़ी तीसरी कविता को शंकर जी ने पत्रिका को भेजने के लिए कहा लेकिन वह पूर्वप्रकाशित थी।

काव्य पाठ और चाय के दौर के बाद कहानी का दौर शुरू हुआ| अनुज ने सञ्चालन प्रक्रिया को बखूबी निभाया और अंत तक स्वयं कुछ नहीं पढ़ा| 
सोनाली मिश्र की कहानी ‘अनुवाद’ लम्बी थी किन्तु अंत तक बांधे रखा सभी को|सफलता के मापदंडों पर खरा उतरते हुए कहानी का चयन ‘परिकथा’ के अंक के लिए कर लिया गया| शंकर जी के शब्दों में ‘कहानी पारिवारिक परिवेश में सिमटी रही और ‘दादी’ के चरित्र के ज़रिये बहुत कुछ कह पायी|’ 
फिर गीताश्री ने अपनी पुस्तक से ‘सोन मछरी’ कहानी का वाचन किया| मुझे लगा कि एक समय में न जाने कितने ही चरित्र उन्होंने अपने ‘मोनोलॉग’ में निभाये | कहानी की विषय-वस्तु तो रोचक थी ही ...उनका पढने का अंदाज़ भी किसी थिएटर एक्टर से कम नहीं था और अंत में उनकी भर्राई आवाज़ इस बात की गवाही भी दे रही थी| ममता कालिया जी के अनुरूप कहानी ने यह सिद्ध किया ‘समय हमेशा आगे बढता है, पीछे नहीं लौटता’ | शंकर जी जितनी तन्मयता से सुन रहे थे उसी का सबूत उन्होंने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में ‘सोन मछरी’ को एक सफलतम कहानी के रूप में दिया जो कई परतों में एक साथ चलती है और सभी पक्षों ....प्रेम पक्ष , बीड़ी के कारोबार का पक्ष , नियति का महत्त्व (उसी जगह लौटा लाना जो इंसान छोड़ना चाहता है), भाषा की संवेदना , विज़ुअल इमेजरीज़, दैहिक प्रेम से ऊपर उठकर दिव्यता तक पहुंचना..... को इंगित किया| ...कुल मिलकर एक अदभुत रचना कौशल का उदाहरण साबित हुई गीताश्री की कहानी| और उनसे इतनी ही अच्छी कहानियों को उम्मीद भी ज़ाहिर की गयी .....चाहे वे अब मेट्रो-लाइफ़ से उठाये हुए विषय ही हों क्योंकि जहाँ का अनुभव होता है कहानी की विषय वस्तु और उसका ट्रीटमेंट भी उसके ही अनुरूप होता है| 

अंत में वंदना राग ,जो कि कहानी में एक स्थापित नाम है, ने ‘कान’ शीर्षक से कहानी पढ़ी जो विश्व विद्यालय के विभिन्न पक्षों छूती हुई ‘कान’ के महत्त्व को जताती रही ... ‘पृथ्वी के कान (मैटाफोरिक यूसेज) वही सुनना चाहते हैं जो उसके पक्ष में हो’ यह कहानी उनकी पहले संग्रह ‘यूटोपिया’ से पढ़ी गयी| 

ममता जी और रविन्द्र कालिया जी ने इस गोष्ठी को सफल क़रार देते हुए भविष्य में और ऐसी गोष्ठियां रखने का प्रस्ताव रखा और कहा कि कहानियों के संग कवितायें भारीपन नहीं होने देतीं| अनुज ने अपनी आने वाली नई कहानी की सूचना तो दी किन्तु उसे पढ़ा नहीं| काव्य और कहानी से हटकर एक दूसरे को बेहतर जानने में भी ऐसी अनौपचारिक गोष्ठियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और नए दरवाज़े-खिड़कियाँ खोलती है ख़ासकर जब...... जब अनुभव की गंभीरता और नव-रचनाकार की ऊर्जित पिपासा दोनों एक साथ मिलें|

पूनम माटिया

Thursday, October 15, 2015

संसद भवन के केन्द्रीय-कक्ष में सम्मानित मित्रगण और मेरा पहला उद्बोधन

हाँ, वो घर ‘घर’ लगता था.......


मैंने देखा था,
हाँ मैंने तो देखा था
शायद ‘तुम’
सोच भी न पाओ|

वो मूंह-अँधेरे उठना,
चूल्हा लीपना, या
अंगीठी जलाना,
तड़के ही शौच निवृत हो
सबके उठने से पहले नहाना,
टोक्नियाँ, घड़े ,पतीले भरना,
मन ही मन में मंत्रोचारण,
आरतियों का बुदबुदाना|
संग-संग पूरा घर बुहारना,
रात के बचे बर्तनों को
चूल्हे की राख से माँज,
स्वयं पौंचा लगाना|



न–न मैंने नहीं किया|
बस देखा नानी ,दादी
मम्मी ,मामी, बुआ, चाची को|
चप्पल ,जूते नज़दीक न फटकने देती,
न खाने देती बिन नहाए कुछ|
काम नहीं कराती थीं,
ख़ुद ही को तो खठाती थीं|
दूध ,सब्जी-रोटी, मठ्ठा, दाल
सब मिल-मिल कर बनाती थीं|
चूल्हे की आग ठंडी होने तक
कुछ न कुछ पकाती थीं|
ठंडा हमे कहाँ खिलाती थीं,
अंत में ही तो खुद खाती थीं|

नहीं, नहीं! गुस्सा नहीं झलकता था,
पल्लू तनिक न सरकता था,
लाली-लिपिस्टिक न भी हों
पर पसीने की बूंदों संग
बिंदिया ,सिन्दूर बहुत दमकता था|
चूड़ियों ,पाजेब की खन-खन से
पूरा का पूरा घर खनकता था|
हाँ, वो घर ‘घर’ लगता था|
हाँ, वो घर ‘घर’ लगता था|


Thursday, August 20, 2015

समता अवार्ड -2015

स्वतंत्रता दिवस की 69 वीं पूर्व संध्या पर श्रीमती पूनम माटिया (रुस्तगी) को कविताओं , ग़ज़लों , सम-सामायिक लेखों और साहित्य की अन्य विधाओं द्वारा देश और समाज की सेवा के लिए  समता अवार्ड -2015 से सम्मानित किया गया| यह अवार्ड उन्हें दिल्ली की पूर्व मुख्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित , पूर्व केन्द्रीय मंत्री ऑस्कर फर्नांडिस , श्री भीम सिंह , नेता पैन्थर पार्टी और मशहूर फिल्म कहानी लेखक जनाब  इक़बाल दुर्रानी द्वारा दिया गया| भारतीय समता समाज के अध्यक्ष श्री कलिराम तोमर की उपस्थिति में पूनम माटिया के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया|

Tuesday, August 11, 2015

फंदा ......... बूँद शब्द, अर्थ है सागर

अभी जब हाल ही में याकूब  को फांसी की सज़ा हुई ...........
तो मुजरिमों को दी गयी फांसी के 'फंदे' को देख ये ख्याल आया होगा .........
और शायद तब ही ये शब्द जाल बुन पाया होगा .....

छोटी थी जब स्वेटर बुनते
माँ ने टोका था मुझको,
‘सारा स्वेटर उधड़ न जाए,
ध्यान तो दें ,कहीं गिर न जाए
बुनते-बुनते ही ये फंदा!!!’
छोटी-सी बुद्धि में तबसे
‘फंदा’ स्वेटर में ही जाना|
और टोकती थी माँ अक्सर
‘धीरे-धीरे खाया कर|’
छोटे-छोटे ग्रास बनाकर
ख़ुद भी कभी खिलाती थी|
‘पानी भोजन-बीच न पीना
लग जाएगा गले में ‘फंदा’’
कह-कह कर ध्यान दिलाती थी|
बदल गए सन्दर्भ सभी!
अब सहज समझ न आता है
क्यों अन्नदाता भारत का
‘फंदे’ को अपनाता है?
क्यूँ बिलखते बच्चे भूखे?
क्यूँ बिन-ब्याही बेटी छोड़
वो जीवन से हार जाता है?
अचरज बहुत होता है जब
बिटिया जो जान से प्यारी है,
बेटा भी आँख का तारा है
पर न जाने क्यों ये ‘फंदा’
बन जाता है गले का हार?
‘खाप’ छीन लेती है क्यूँ
झूठी इज्ज़त की खातिर
बच्चों से ही उनका प्यार|
‘फंदा-फंदा’ कहकर अब तो
शादी नहीं रचाते हैं,
रख परम्पराओं को ताक पे
जाने कितने बच्चे अब
बिन-ब्याहे ही रह जाते हैं|
शादी लगती गले का ‘फंदा’
बिन शादी रास-रचाते हैं|
बूँद शब्द, अर्थ है सागर
जाकि जैसी बुद्धि ठहरी
वैसा ही तो बांचे है |
‘फंदा’ क्यूँ समझें हम इसको
धैर्य से सब सुलझाते हैं|
जीवन बहे सरिता सी धार
पथ निष्कंटक, प्रेम बहार
फंदा-फंदा स्वेटर बुन ले
बाकी सब है व्यर्थ-विकार|
...........
 Poonam Matia

Friday, May 29, 2015

सिर्फ न्यूज़ बनाना ही एक मात्र ध्येय रह गया है क्या ......?



 














मेहमान से पूछना ‘चाय लेंगे या ठंडा?’ .... ‘अगर चाय लेंगे तो कप में या गिलास में?’ .. ‘गिलास स्टील का या कांच का ..... ??’ और इस तरह के फ़ालतू के प्रश्नों से किसी को भी झुंझलाहट लाने वाले किस्से नये नहीं .... पर अब देखें तो चौबीस घंटों के समाचार चैनलों की भीड़ और उनमे आपस की प्रतियोगिता यानि अपने वर्चस्व को बनाये रखने की होड़ में समाचारों को न जाने किस कग़ार पर लाकर रख दिया है| 

कोई हीरोइन छींक दे,.... .तो ब्रेकिंग न्यूज़.... कोई नेता किसी दुसरी पार्टी के नेता से मिल आये,... तो हल्ला ...और हर तीसरे आदमी के माइक रख पूछना कि उनकी क्या राय है उस बारें में ........बस सुर्खियाँ बटोरना और उन्हें मेंढ़क की टर्र-टर्र की तरह परोसते जाना ..... आख़िर क्या चाहते हैं ये न्यूज़ चैनल?
राई का पर्वत बनाना तो जैसे धर्म ही हो गया है इनका| अब रिपोर्टर भी ये, पुलिस भी ये, सी बी आई  यानि जांच एजेंसी भी ये, अदालत भी इनकी और तो और फैसलें भी इन्ही के|
बाल की खाल निकालना तो चलो मान भी लें कि ये करेंगे ही  पर जब तक अच्छे-खासे कपड़ों को सीवन तक उधेड़ न लें तब तक इन्हें चैन कहाँ?

और अब तो इन्हें एक सदैव ताज़ा अंडा देने वाली मुर्गी  यानि ताज़ा न्यूज़ हर घंटे ... हाँ , हर घंटे इसलिए कहा क्योंकि एक न्यूज़ से तो ये एक घंटा आराम से निकाल ही लेते हैं ..... खैर बात थी ‘सोने का अंडा देने वाली मुर्गी’ या कहें कि हमारे आदरणीय प्रधान मंत्री ‘मोदी जी’ की जो मिल गए हैं इन्हें| वो कोई काम करें इन्हें बस उसकी धज्जियां ही उड़ानी है, चाहे वो उनका उपहार में मिला ‘सूट’ हो  या अब मंगोलिया से उपहार में मिला ‘घोड़ा’ |

मुझे राजनैतिक समाचारों और पार्टियों से कुछ लेना देना नहीं किन्तु अजीब सी कोफ़्त होती है जब ....कई घंटे समाचार चैनल इसी में निकाल देते हैं  कि ‘उपहार में मिला घोड़ा भारत में आखिर कहाँ रक्खा जाएगा’ !!!!!!! अरे भई अब ये भी ब्रेकिंग न्यूज़ बनेगी क्या ??? घोड़ा उपहार में मिला ......क्या इतना काफी नहीं बताना  .कि कई घंटे इसी चर्चा में निकालना ज़रूरी है कि घोड़ा किस वातावरण में .... कहाँ रक्खा जाएगा  .. मोदी जी के पास रहेगा या दूर .. ए सी में रहेगा या बगैर ए सी ... और भी न जाने कितने फ़ालतू के प्रश्न  .जैसे कि आम जनता का खाना पीना सब थमा हुआ है जब तक कि ‘घोड़े’ के ठहरने की जगह का निर्णय न ले लिया जाए  ...अब प्रधान मंत्री जी ने क्या महत्वपूर्ण समझोते किये या  देश के सम्बन्ध में क्या बात कही .... ये गौण हो जाता है उस ‘घोड़े’ की न्यूज़ के आगे|


अब बाज़ आयें ये कमर्शियल चैनल फालतू की चीर-फाड़ कर सुर्खियाँ परोसने से|

पूनम माटिया
दिलशाद गार्डन , दिल्ली 

poonam.matia@gmail.com

Sunday, May 10, 2015

‘माँ’ केवल एक शब्द नहीं अपितु एक ग्रन्थ है अपने में ही ......

 कहते हैं कि भगवान ने पृथ्वी पर अपनी अनुपस्थिति को पूर्ण करने को ‘माँ’ बनाई, परन्तु मैं सोचती हूँ क्या देवलोक में माँ नहीं थी ..... माँ की कमी तो उन्हें वहां भी खली तभी सभी देवताओं ने अपने, अपने अंशों को एकत्रित कर ‘माँ अम्बे’ का आवाहन किया अपनी परेशानियों का एक मात्र हल ढूँढने के लिए|
‘माँ’को समर्पित कविताएँ , दोहे और ग़ज़लें इत्यादि पढ़, पढ़ कर कवि,शाइर कवि सम्मेलनों और मुशायरों को लूटते आयें हैं और इस कारण है कि हर बच्चे ,बड़े, पुरुष, स्त्री सभी के मन में अपार आदर, सम्मान और प्यार होता है माँ के लिए| ऐसा नहीं कि पिता के लिए यह स्नेह नहीं होता ........होता है परन्तु माँ के लिए यह अति विशिष्ट होता है क्यूंकि गर्भधारण से शिशु के जन्म तक माँ और बच्चा एक दुसरे को हर पल, हर क्षण महसूसते हैं .....माँ हर एक प्रयास करती है कि जन्म से पहले और फ़िर जन्म के बाद भी उसके बालक को कोई कष्ट छू तक न पाए| बस इस लिए ही बच्चा कहीं भी हो, किसी भी आयु का हो ......माँ उसे दिल से देख लेती है और आँखों से ही अनुभव कर लेती है उसकी परेशानी, उसकी ख़ुशी|
आजकल एक पंक्ति या एक्सप्रेशन बहुत सुनने को मिलता है बच्चों के मुख से ‘माई मॉम इज़ द वर्ल्ड बेस्ट’ यानि ‘मेरी माँ संसार की सबसे अच्छी माँ है’ ......हैरानी होती है न ? अभी बच्चों ने देखा ही कितना संसार है जो ऐसा कह देते हैं कित्नु अगर सोचें तो इसमें हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए| जैसे हर माँ  अपने बच्चे की छोटी से छोटी हर बात जानती–समझती है उसी प्रकार बच्चे भी ‘अपनी माँ’  को जानते हैं, अपना संसार समझते हैं वो बात और है कि बड़े होते, होते उनकी दुनिया भी बड़ी होती जाती है उसमे हर क्षण नए लोग जमा होते जातें है और इस तरह वो माँ जो कभी पूर्ण संसार होती है .....समय बीतते, बीतते एक ‘छोटा सा और कई दफ़े तो नगण्य सा’ हिस्सा भर रह जाती है और फिर हमे देखने को मिलते हैं वो किस्से जहाँ माँ अनाथों की तरह या तो घर के किसी एक कोने में अनचाहे सामान की तरह पड़ी रहती है या किसी वृद्धाश्रम में भेज दी जाती है| 

ऐसा भी कहते हैं न कि ‘पूत कपूत भले हो जाए पर माता भयी न कुमाता’ .... तो माएं तो वृद्धाश्रम में या विपरीत परिस्थितियों में भी अपने बच्चों का बुरा नहीं सोचती| कहीं पढ़ा था कि माँ ने वृद्धाश्रम में अपनी आखिरी साँसे गिनते हुए अपने बेटे से कहा ‘बेटा यहाँ एक कूलर और एक फ्रिज दान कर देना .... बेटे ने आश्चर्यचकित होकर कहा ‘माँ अब क्या जरूरत है, अब तो आप की अंतिम घड़ी है ..तो माँ कहती है कि बेटा!!!!! मैंने तो गुज़ार दी पर शायद तू अपने बुढापे में यह सब सह न पाए|’

लालन पालन में नहीं, थकते उसके पाँव ||
बच्चों पर रखती सदा, माँ ममता की छाँव||
माँ ममता की छाँव, सदा खुद को बिसराए,
पथ निष्कंटक करे, कभी एहसां न जताए ||

अपनी इन पंक्तियों के साथ आज मातृत्व दिवस पर अपनी माँ को नमन करते हुए मैं सम्पूर्ण विश्व की माँओं को बधाई एवं शुभकामनाएं देती हूँ क्यूंकि माएं बेशक कभी अपने  पुत्र , पुत्रियों से नाराज़ भी हो जाएँ कित्नु अपने पोते , पोतियों पे जान न्योछावर करना नहीं छोड़तीं .....शायद इसे ही कहते हैं ‘मूल से प्यारा सूद’ 

पूनम माटिया ‘पूनम’
दिलशाद गार्डन , दिल्ली-
95  

Thursday, May 7, 2015

‘भाभी जी’ क्या कहता है यह शब्द ......


Delhiuptodate akhbaar mei prakashit ye lekh ...... aap zaroor padhen ...... aur apni pratikriya se awagat kraayen .....

‘भाभी जी घर पर हैं ???’ इस शीर्षक से एक सीरियल आजकल एक टीवी चैनल पर आ रहा है| हास्य प्रधान इस सीरियल को देखते हुए एक ख्याल आया ज़ेहन में .... ‘भाभी जी’ कितना सरल ,सहज ,अपनत्व से भरा संबोधन है यह| दरअसल भाई की पत्नी भाभी कहलाती है जिसमें  माँ समान आदर-सम्मान के साथ स्नेह और चुलबुली शरारतें उपहार के तौर पर स्वत: ही चली आती हैं|
 ‘भाभी’ शब्द जब विस्तृत पटल पर इस्तेमाल होता है तो दोस्त की पत्नी भी भाभी होती है लेकिन वहां इज्ज़त से बढ़कर बराबरी और मज़ाक करने का हक़ अधिक मिल जाता है ...हलके-फुल्के हंसी-मज़ाक के साथ कुछ ज़्यादा ही सीमाएं भी लांघने लगते हैं जैसे कि भाभी कह देने भर से ही वे अधिकारिक तौर पर कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हो गए|
‘नन्द-भाभी’ का रिश्ता अलग से पूर्ण लेख मांगता है इसलिए इस जाविये से मैं ‘भाभी’ शब्द को यहाँ अलग रख रही हूँ|

शादी के बारें में कहा जाता है कि ‘यह वह लड्डू है जो खाए वो पछताए और जो न खाए वो भी पछताए’ अर्थात शादी करने के लिए दिल जिस तरह से उछाल मारता है, जिस तरह की उत्तेजनाएं बढाता है , जिस तरह से तत्परता दिखाते हैं दोनों ही पक्ष–लड़का और लड़की, उतना ही  या उससे भी अधिक पछतावा, पीढ़ा दिखाई देने लगती है शादी-शुदा जोड़ों ख़ासकर लड़कों के मुख पर|
नहीं मैंने कोई अतिश्योक्ति नहीं की यह कहकर| जहाँ मर्ज़ी देख लीजिये.....शादीशुदा पुरुषों के अपनी पत्नी की चिकचिक, उसके बदले हुए रूप  ‘खूबसूरत से बद्स्वरूप’ से परेशान  होने के किस्से और चुटकुले ही पढने-सुनने को मिलते हैं और ऐसे पुरुषों के लिए ‘भाभी जी’ का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है| ‘भाभी जी’ के निकट आते ही उनकी बांछे खिलने लगती हैं, ‘उनकी’ बातों से फूल झड़ते नज़र आते हैं उन्हें, ‘वे’ सौन्दर्य की देवी या कोई अप्सरा प्रतीत होने लगती हैं| घर में पत्नी की ज़रा सी बात पर  भड़कने वाले ऐसे ‘भाभीजी’ के प्रशंसक उनकी हर बात पर  अपना दिल बिछा ही डालते हैं मानो ‘भाभीजी’ न हुईं बल्कि इंद्र की सभा से सीधे अवतरित किसी अप्सरा का सानिध्य उन्हें मिल रहा हो|
अब उस सीरियल की ही बात पर वापस आयें तो देखेंगे कि अपने-अपने पतियों से प्यार करने वाली दोनों ही महिलाओं को ‘भाभी जी, भाभी जी’ कहने वाले ये पुरुष अपनी कोशिशों में कतई कमी नहीं करते यह जताने में कि वे उन्हें उनके पतियों से अधिक प्यार करते हैं ‘भाभीजी’ को  और उनके लिए चाँद-तारे तोड़ लाने में भी पीछे नहीं हटेंगे| सीरियल तो खैर सीरियल ही होता है ....’थोड़ी आग़ और ज़्यादा धुआं’ तथा  हंसने–हंसाने का माध्यम जान इन्हें हम हलके में लेके छोड़ सकते हैं .....पर यह सच है कि अधिकांश (सब नहीं) पुरुष ‘भाभीजी’ शब्द को संजीदगी से नहीं लेते और इसलिए उनकी बातें भी सीमाओं को लांघती रहती हैं|

 अब सोशल साईटस या नेट पे देखें तो एक क़दम और आगे नज़र आते हैं लोग .......किसी भी आयु के युवक झट से दोस्ती की सीमा लांघ महिला मित्र को ‘भाभी’ कहने में देर नहीं लगाते| यहाँ मैं साफ़ कर दूँ कि अपवाद हर जगह होते हैं और देवर-भाभी के रिश्ते की सात्विकता को निभाने वाले भी कम नहीं| बात तो उनकी  है जो ‘भाभी’ शब्द की आढ़ में कुछ भी कह देना अपना धर्म समझते हैं, वे भूल जाते हैं कि अगर किसी को भाभी कहा है तो उसका पति स्वत: ही बड़ा भाई हो जाता है| स्वार्थ के इस दौर में लोग ऐसी बातें तो आसानी से नज़र अंदाज़ कर जाते हैं जो उनके पक्ष में न हों या उनकी स्वार्थ सिद्धि या आनंद में अवरोध  उत्पन्न करती हों|
कई जगह तो ‘भाभीजी’ शब्द अश्लीलता की सब सीमायें पार कर जाता है और देखने को मिलता है कि सोशल साइट्स पर इस शीर्षक से अश्लील पृष्ठ और तस्वीरें मिलती हैं ....ऐसे में कोई आपको ‘भाभी’ कहकर संबोधित करे तो खुद पर ही संदेह होने लगता है कि आखिर आप हैं कौन ???????
इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी से पुरुषों को सावधान करना चाहती हूँ यह बताते हुए  कि कृपया ध्यान दें कि अगर आप ‘भाभी’ शब्द का गलत उपयोग कर अपनी मर्यादा को लांघ किसी स्त्री की मर्यादा को अपने अल्प आनंद के लिए ताक पर रख रहें हैं तो यह न भूलें कि आपकी पत्नी ,बहिन या माँ को भी ‘भाभीजी’ कहने वालों की कमी नहीं| 

.......
पूनम माटिया
दिलशाद गार्डन , दिल्ली  

poonam.matia@gmail.com

Wednesday, March 4, 2015

ऐसे होली हम मनाते हैं..तब और अब



हमेशा की तरह उत्तरी भारत खासकर उत्तरप्रदेश , हरियाणा , राजस्थान और पंजाब के निवासियों की तरह दिल्ली में भी होली अपनी पूरी शानो-शौकत से मनाई जाती रही है| रंग ,अबीर ,गुलाल ,गुब्बारे और पिचकारियाँ हर बाज़ार की रौनक बढ़ाती हैं और गुंजिया मिठाई की दुकानों की|
मथुरा .वृन्दावन के मंदिरों से टीवी में सीधा प्रसारण किया जाता है और  राधा कृष्ण रास बनता है मुख्य आकर्षण जगह जगह फूलों की होली का|
हमारे घर में भी कांजी , भल्ले –सौंठ पूरी कचौरी बनते हैं और नेक के लिए  गुलाल की होली भी खेली जाती है| रेजिडेंट वेलफेयर सोसाइटी होली मंगलने (जलाने) की भी तैयारी ज़ोर-शोर से करती है| भाईचारे और सद्भावना का यह त्यौहार सभी के जीवन में खुशियों का प्रतीक होता है|
परन्तु चिंता का विषय यह है कि इसकी भव्यता में शनै: शनै: कमी आ रही है और ज़मीनी तौर पे अब लोग कम ही निकलते हैं घरों से अड़ोसी-पड़ोसी, मित्रों ,रिश्तेदारों से मिलने| हालांकि सोशल साइट्स जैसे फेसबुक आदि पे इसका कई दिन पहले से काफ़ी ज़ोर रहता है ..ज्यादा कुछ लिखने की बजाए मैं अपनी रचना  साझा करना चाहूंगी जिसमे वो सभी सन्दर्भ हैं जो चिंता का विषय हैं 


घर-घर खेली जाती थी 
आज सिमट गयी चर्चा में
, 
ग़ज़लों में
, कविता में, 
रौनक थी
 गली-मोहल्लों की
रंगों से सजते चेहरे थे
 
अब सजती फेसबुक की दीवारें
बस कवि-सम्मलेन कर-करके 
होली की होली
 हम जलाते हैं
ऐसे होली हम मनाते हैं


भर पिचकारी
, ले गुब्बारे
रंगे-पुते चेहरों के संग
 
घूमती थी टोलियाँ
घर-घर मचती थी
 अठखेलियाँ
सूनी-सूनी गलियों में
अब कुछ ही
 बच्चे देखे जाते हैं 
कूद-फांद मचा करके
बस थोड़ा सा इतराते हैं
 
ऐसे होली हम मनाते हैं
|

अपनेपराये अड़ोसी-पड़ोसी
सब मिलकर मिष्ठान कई बनाते थे
 
गुंजिया
, मठरी, कांजी, भल्ले 
संग मल-मल के
  रंग लगाते थे 
गूगल से
 कॉपी-पेस्ट कर 
रंग-मिठाई
, सजे कार्ड सिर्फ़
आज हम भिजवाते हैं
 
ऐसे होली हम मनाते हैं
 |

देवर-भाभी
, ननद-भौजाई, जीजा-साली 
राधा
कृष्ण सा रास रचा 
आनंद बड़ा उठाते थे
 
डरती-डरती बालाएं
अब अस्मत अपनी बचाने को
 
घर में ही सिमटी रह जाती
  
नेताओं के बड़े उदगार
अब मीडिया में सुंदर
 छवि बनाते हैं 
ऐसे होली हम मनाते हैं
 |

होली तो हो
ली , कहके टालें कैसे 
सुलझाने को समस्या
  
अब आगे कदम बढाते हैं
 
धर्म
संस्कृति, परम्परात्यौहार 
सब जुड़ें इक तार में
 
चलो इक नए सिरे से
 हम 
हाथों में हाथ मिलाते हैं
 
ऐसे होली हम मनाते हैं
|


पूनम माटिया ‘पूनम’
27.2.2015

Wednesday, February 11, 2015

जनता है जनार्दन .........

दिल्ली की राजनीति में एक नया रंग .......
आज के 'हमारा मेट्रो' अखबार में मेरे विचार ..........

Wednesday, January 7, 2015

लावा............


कल की ही तो बात है वैसे,
कोयल   कूक रही हो जैसे,
या कोई चिड़िया चहकी हो,
या फिर कोई कली महकी हो|
हँसी खनकती थी कंगन सी,
काया थी निर्मल कंचन सी|

आज हँसी वो नहीं खनकती,
आँखें अब क्यों नहीं चमकतीं,
अविरल सरिताएँ बहती हैं,
अश्रु धार ये क्या कहती हैं|

पल-पल साथ निभाया तेरा,
तू काया,     मैं साया तेरा|
हर पल तेरी राह निहारी,
मैं तुझपर ही थी बलिहारि|

लेकिन अब ये क्यों लगता है?
तुझसे मुझको डर लगता है|
ज्वालामुखी कोई फूटेगा,
क़हर कोई  मुझपर टूटेगा|

अब बहकर लावा आएगा,
रिश्ते को झुलसा जायेगा|
इस रिश्ते की नर्म ज़मीं पे,
सिर्फ़ फफोले रहेंगे रिसते|

और फफोलों की स्याही से, 
एक क़लम कुछ सच्चाई से, 
आग लिखेगी, आग लिखेगी, 
इक जलता भूभाग लिखेगी|


क्या अब भी वो हवा चलेगी? 
प्रेम-सुवासित काव्य लिखेगी? 
क्या खुश्बू वापस आएगी? 
नज़्मों को फिर महकाएगी?

काश! कि वो दिन वापस आयें, 
मेरी कविता वापस लायें |
रिश्ते का गुणगान लिखूँ मैं 
प्रेम को फिर उन्वान लिखूँ मैं|
प्रेम को फिर उन्वान लिखूँ मैं|

...................poonam matia 'poonam' 

Thursday, January 1, 2015

२०१५ के लिए मंगल कामनाएं

वजूद इंसानियत का रहे कायम, वक़्त का दरिया ले जाये कहीं भी
…….२०१५ के लिए मंगल कामनाएं

फूलों की खुशबू, शहद सी  मिठास 
भंवरों का गुंजन, गुंजित हर साज़ ||
दुखों से निजात, खुशियों का आगाज़ 
नववर्ष में प्रति-पल, अपनों का साथ
||

वैसे तो हर पल ,हर पहर नया होता है किन्तु मन के उत्साह को कई गुणा कर देता है नव वर्ष का आगमन ......... २०१४ बीतने वाला है  कुछ पल ही शेष हैं | इन पलों में हम गत वर्ष का एक बार अवलोकन कर लें- क्या अच्छा ,क्या बुरा हुआ? क्या अच्छा किया , क्या बुरा किया और क्या कर नहीं पाए?
यही कारण है कि सारे पुरस्कार समारोह दिसंबर या जनवरी में आयोजित किये जाते हैं ताकि सभी अच्छी घटनाएं हम सहेज के रख लें दिल के किसी कोने में| यही बात हमे आदेशित या निर्देशित भी करती है सिर्फ अच्छा, अच्छा ही सहेजिये, बुरा या अनचाहा भूल जाइए|

आगे बढ़ने में पिछली कड़वी यादें अवरोध उत्पन्न करती हैं, अगर हम कोशिश कर भी उन्हें भूल न पायें तो उनसे सीख लें, अगले वर्ष में कुछ बेहतर करने का संकल्प लें और सोचें  कि कैसे हम स्थितियों को सुधार सकते हैं|


राजनैतिक पटल पर तो बहुत कुछ नवल हुआ  जैसे नयी सरकार और उनके लिए गए नए कदम- जन जन को छू जाने वाली  धन-जन योजना  और स्वच्छता अभियान|
इन क़दमो में तेज़ी आये और रास्ते की बाधाएं दूर हों,  अपनी बरसों से बनी बुरी आदतें हम छोड़ कर उच्चतम भारत के सृजन में अपना योगदान दें ,यही हमारा प्रयास रहना चाहिए|

स्त्री सुरक्षा ,स्त्री स-शक्तिकरण और समानाधिकार की दिशा में बढ़ने की मुहीम में गति-अवरोधकों को ढूंढ, ढूंढ कर हटाए जाने की ज़रुरत है| सचेत रहना, मर्यादा में रहना तो ज़रूरी तौर पे बच्चियों और महिलाओं को सिखाने की आवश्यकता है किन्तु हमारे लड़कों और पुरुष वर्ग के नैतिक जागरण की आवश्यकता उससे भी अधिक है क्यूंकि कुछ माह की बालिका का कोई दोष नहीं होता ,न वह अपने पहनावे से, न अपने बर्ताव से पुरुष की गन्दी दृष्टि को आकृष्ट करती है, न ही अपने बचाव में कदम उठा सकती है ...ऐसे सदैव ही पुरुष की घृणित मानसिकता उसके अकल्पनीय और नीच व्यवहार का कारण बनती है | इसलिए ही यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि समाज में परिवार ,विद्यालय, विश्वविद्यालय इत्यादि सभी स्तरों पे पुरुष वर्ग यानि बेटों को ,भाइयों को ,पिता को, चचेरे –ममेरे आदि भाइयों को , मित्रों को अर्थार्त सम्पूर्ण पुरुष जाति को यह शिक्षा प्रारम्भ से दी जाए कि अपने संपर्क में आने वाली लड़कियों और महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए| अब यह कहना बहुत ज़रूरी है कि कुछ तो नीतियों में खोट रहा होगा जो हम समाजिक पतन के शिखर पर पहुँच गए हैं ,कुछ तो लालन पालन में कमी रही होगी कि लड़के लड़कियों को सम्मान भाव से देखते ही नहीं हैं ,क्यूँ वे उत्तजित हो अपने को काबू में नहीं रख पाते ? आवश्यकता है कि उन्हें नैतिक शिक्षा के साथ स्वयं पे नियंत्रण रखने वाली योगिक शिक्षा भी दी जाए , घर में माँ –बाप और विद्यालय में शिक्षक इसे अपनी ज़िम्मेदारी समझें कि लड़कों को नियंत्रण में रहना सिखाया जाए बजाए इसके कि हर बात के लिए लड़कियों के सिर दोष मढ़ दिया जाए और उन पर प्रतिबन्ध पहले से ज़्यादा हो जाएँ|
पल-पल बदलती इस दुनिया में, भावनाएं बदलती हैं हर क्षण,
पर जब जन्म लेती हैं संभावनाएं नयी, तब होता है नवजीवन|
प्रतिपल होते नवजीवन को आओ करें हम सब नमन,
पुलकित मन और ऊर्जित तन से नव वर्ष का हो आगमन|

तो दोस्तों ,आओ इस्तक़बाल करें आने वाले नव वर्ष का एक नए उल्लास से, एक नए विश्वास से कि यह वर्ष पहले गए सभी वर्षों से बेहतर होगा | इसलिए नहीं कि यह हमारे लिए कुछ अद्भुत करेगा, वरन् इसलिए कि हम पहले की अपेक्षा कुछ नया, कुछ सार्थक कर पायेंगे और हमे मिलने वाले अवसरों का अपनी क्षमता और इच्छा के बल पर बेहतर सदुपयोग कर पायेंगे|
पुरज़ोर जोश, उम्मीद और संकल्प के साथ हम क़दम बढायें और अपने दिल--दिमाग के साथ अपने आसपास को भी स्वच्छ करें और भारत के उत्कर्ष के लिए ख़ुद को समर्पित करें| साथ ही यह भी ध्यान रखें कि वजूद इंसानियत का रहे कायम, वक़्त का दरिया ले जाये कहीं भी|


 .......पूनम माटिया ‘पूनम’