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Wednesday, October 21, 2015

दहेज़ का दानव

ग़लती सारी नहीं दहेज़ मांगने वालों की कुछ तो ग़लती रही होगी उनकी भी जो लाड़-लाड़ में , दिखावे में लाद देते हैं बिटिया को ऊपर से नीचे तक सोने में और यही बातें ख़लल डालती हैं ग़रीब के चैन की नींद सोने में ।


दहेज़ इच्छा से दें तो खुशियाँ नहीं तो जुड़ जाता है दुखों से रिश्ता पल-पल बन जाता है नासूर हर ज़ख्म रहता है रिस्ता टूट जाती है डोर जो बंधी थी सात फेरों में पड़ जाती हैं बेड़ियां न रुकते हैं आंसू न हिलते हैं लब बस साँसे ही टूट जाती हैं क्योंकि बिटिया रानी न ससुराल, न ही मायके में ज़ुबान खोल पाती है माँ-बाप पीटते हैं छाती जली हुई कटी हुई जब बस लाश ही हाथ आती है|


मैं पूछती हूँ कि क्यों ? सोते रहे जब बिटिया बिन कहे कुछ सिर्फ़ मुस्काती थी खिलखिलाने में भी उसके कराहट बुदबुदाती थी नज़रें कहाँ मिलाती थी? वो तो धरती में ही गढ़ी जाती थीं| क्यों नहीं खोली आँखें तब ? क्यों नहीं सुना मौन जान से प्यारी बिटिया का? ग़लती तब की जब ज़ालिमों के घर बिहा दिया गलतियों का पुतला बन बलिवेदी पर अपनी ही बिटिया को चढ़ा दिया दहेज़ के दानव ने निगल ली एक बिटिया फिर!!!!!!!!!!!!!


पूनम माटिया दिलशाद गार्डन , दिल्ली

काव्यात्मक एवं कथा रसास्वादन से भरपूर गोष्ठी

'कल कहीं व्यस्त हो क्या , कोई आयोजन तो नही ????' अचानक ही मोबाइल उठाते ही प्रश्न कर दिए जाते हैं ..........'नहीं तो .......हों भी तो कल कहीं जा नहीं रही'..... ‘ओके तो कल तुम्हारी तरफ़ही एक ‘क्लोज़’ गोष्ठी का आयोजन है जिसमे कहानियां पढेंगे कुछ लोग ......कुछ कविता भी पढेंगे ......तुम ग़ज़ल पढ़ देना. चलोगी क्या ?????????' ......अरे ! यह तो बताओ जाना कहाँ है ,किसके यहाँ , कौन -कौन आ रहा है ???? ' रविन्द्र कालिया जी और ममता कालिया जी के निवास स्थान पर गोष्ठी है'.........’ओह तो चलूंगी न ....... समय और स्थान एस एम एस में भेज देना ' ........

और इस तरह क्रासिंग रिपब्लिक के निकट स्थित साहित्य क्षेत्र के बहुचर्चित आदरणीय कालिया दंपति के यहाँ पहली दफ़े १७ अक्टूबर २०१५ को गोष्ठी में जाने का सु-अवसर मिला| 
इस अपूर्व गोष्ठी के संयोजन व् सञ्चालन का दोहरा श्रेय जाता है हमारे मित्र मशहूर कहानीकार डॉ. अनुज को| वैसे तो फेसबुक की शुरुवात से ही डॉक्टर साहेब मेरी मित्र-सूची में थे किन्तु मेरे दूसरे काव्य-संग्रह ‘अरमान’ के प्रकाशन के बाद उसके नॉएडा स्थित ‘मारवाह स्टूडियोज़’ में विमोचन में आपने मेरी पुस्तक पर समीक्षात्मक वक्तव्य दिया और साबित किया कि एक कहानीकार काव्य को भी पसंद करता है और प्रोत्साहन देना भी जानता है|
जब भी ‘कथा’ पत्रिका का अंक आया , कथा के संपादक के रूप में अनुज ने याद किया, चाहे अंक ‘मीरा’ को समर्पित हो या फिर ‘बाल-साहित्य’ को | 

खैर, अब वापस आते हैं इस नायाब गोष्ठी पर ....नायब इसलिए कि यह मेरा पहला अनुभव था जब काव्य से इतर कहानी-पठन भी गोष्ठी का अभिन्न अंग बना| ख्यातिप्राप्त उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक बेहतरीन संपादक रविन्द्र कालिया जी और ममता कालिया जी जो कहानी, उपन्यास, निबंध, और पत्रकारिता अर्थात साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखती हैं ....और इनके आत्मीय सानिध्य के साथ-साथ ‘परिकथा’ पत्रिका के संपादक शंकर जी की अध्यक्षता में आकांक्षा ,सुशील कुसमाकर, मनोज, रश्मि भारद्वाज ,पूनम माटिया ने काव्य-पाठ किया और सोनाली मिश्र, ,गीताश्री, वंदना राग ने कहानी-पाठ|

हालाँकि कहानी मेरा प्रमुख क्षेत्र नहीं है किन्तु यदा-कदा मैं गद्य और पद्य के बीच की सीमा को लांघ जाती हूँ जैसे कि आप सभी जानते ही हैं कि ३-४ लघु कथा–कहानी मैंने भी लिखी हैं और मंचीय नाटिकाएं भी| तो इस रूचि को भी बहुत मात्रा में साहित्यिक पौष्टिक भोज प्राप्त हुआ इस अनूठी गोष्ठी में जिसका अत्यंत ही रोचक व् सटीक नामकरण ‘बिंदिया’ पत्रिका की संपादक गीताश्री ने आरम्भ में ही कर दिया था ‘एकांत के सहचर’........ सच में भी दिल्ली के शोर से दूर वहां सातवीं मंजिल पर स्थित ‘कालिया निवास स्थान पर खुली कविता, शेर , ग़ज़लों और कहानियों के वाचन में गुज़ारे कुछ ही घंटो में हम सबको को पढने-सुनने और उससे भी महत्वपूर्ण कहानी की बारीकियों को जानने का अवसर मिला|

सुशिल कुसुमाकर ने ‘परिंदे’ ‘नींद मुझे भी नहीं आती’ ‘यह जो शहर’ नामक कवितायें पढ़ीं और रविन्द्र कालिया जी को उनके लेखन में काफी संभावनाएं दिखीं हालाँकि उन्होंने ‘लाउड’ शब्दों के प्रयोग से बचने की ताक़ीद दी |मनोज ने मोबाइल और गर्ल फ्रेंड के सन्दर्भ में कविता पढ़ी |आकांक्षा ने अंग्रेज़ी कविता पढ़ी, अच्छा लगा कि आज के यूथ में कविता के प्रति लगाव है चाहे भाषा कोई हो ...कविता अच्छी और भी लगती अगर उसे धीरे-धीरे पढ़ा जाता| मैंने भी एक कविता ‘वो घर घर लगता था’ और एक ‘लटें जज़्बात कीं’ पढ़ीं |ग़ज़ल की फ़रमाइश पर एक तहत में और एक तरन्नुम में पढ़ी |अश’आर पसंद किये गए कहानी के माहौल में ... यही सफलता थी हालांकि ‘परिकथा’ पत्रिका में ग़ज़ल के लिए स्थान नहीं होता|

रश्मि भारद्वाज की कविताएँ और पढ़ने का अंदाज़ को ख़ूब पसंद किया गया |उनके द्वारा पढ़ी तीसरी कविता को शंकर जी ने पत्रिका को भेजने के लिए कहा लेकिन वह पूर्वप्रकाशित थी।

काव्य पाठ और चाय के दौर के बाद कहानी का दौर शुरू हुआ| अनुज ने सञ्चालन प्रक्रिया को बखूबी निभाया और अंत तक स्वयं कुछ नहीं पढ़ा| 
सोनाली मिश्र की कहानी ‘अनुवाद’ लम्बी थी किन्तु अंत तक बांधे रखा सभी को|सफलता के मापदंडों पर खरा उतरते हुए कहानी का चयन ‘परिकथा’ के अंक के लिए कर लिया गया| शंकर जी के शब्दों में ‘कहानी पारिवारिक परिवेश में सिमटी रही और ‘दादी’ के चरित्र के ज़रिये बहुत कुछ कह पायी|’ 
फिर गीताश्री ने अपनी पुस्तक से ‘सोन मछरी’ कहानी का वाचन किया| मुझे लगा कि एक समय में न जाने कितने ही चरित्र उन्होंने अपने ‘मोनोलॉग’ में निभाये | कहानी की विषय-वस्तु तो रोचक थी ही ...उनका पढने का अंदाज़ भी किसी थिएटर एक्टर से कम नहीं था और अंत में उनकी भर्राई आवाज़ इस बात की गवाही भी दे रही थी| ममता कालिया जी के अनुरूप कहानी ने यह सिद्ध किया ‘समय हमेशा आगे बढता है, पीछे नहीं लौटता’ | शंकर जी जितनी तन्मयता से सुन रहे थे उसी का सबूत उन्होंने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में ‘सोन मछरी’ को एक सफलतम कहानी के रूप में दिया जो कई परतों में एक साथ चलती है और सभी पक्षों ....प्रेम पक्ष , बीड़ी के कारोबार का पक्ष , नियति का महत्त्व (उसी जगह लौटा लाना जो इंसान छोड़ना चाहता है), भाषा की संवेदना , विज़ुअल इमेजरीज़, दैहिक प्रेम से ऊपर उठकर दिव्यता तक पहुंचना..... को इंगित किया| ...कुल मिलकर एक अदभुत रचना कौशल का उदाहरण साबित हुई गीताश्री की कहानी| और उनसे इतनी ही अच्छी कहानियों को उम्मीद भी ज़ाहिर की गयी .....चाहे वे अब मेट्रो-लाइफ़ से उठाये हुए विषय ही हों क्योंकि जहाँ का अनुभव होता है कहानी की विषय वस्तु और उसका ट्रीटमेंट भी उसके ही अनुरूप होता है| 

अंत में वंदना राग ,जो कि कहानी में एक स्थापित नाम है, ने ‘कान’ शीर्षक से कहानी पढ़ी जो विश्व विद्यालय के विभिन्न पक्षों छूती हुई ‘कान’ के महत्त्व को जताती रही ... ‘पृथ्वी के कान (मैटाफोरिक यूसेज) वही सुनना चाहते हैं जो उसके पक्ष में हो’ यह कहानी उनकी पहले संग्रह ‘यूटोपिया’ से पढ़ी गयी| 

ममता जी और रविन्द्र कालिया जी ने इस गोष्ठी को सफल क़रार देते हुए भविष्य में और ऐसी गोष्ठियां रखने का प्रस्ताव रखा और कहा कि कहानियों के संग कवितायें भारीपन नहीं होने देतीं| अनुज ने अपनी आने वाली नई कहानी की सूचना तो दी किन्तु उसे पढ़ा नहीं| काव्य और कहानी से हटकर एक दूसरे को बेहतर जानने में भी ऐसी अनौपचारिक गोष्ठियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और नए दरवाज़े-खिड़कियाँ खोलती है ख़ासकर जब...... जब अनुभव की गंभीरता और नव-रचनाकार की ऊर्जित पिपासा दोनों एक साथ मिलें|

पूनम माटिया

Thursday, October 15, 2015

संसद भवन के केन्द्रीय-कक्ष में सम्मानित मित्रगण और मेरा पहला उद्बोधन

हाँ, वो घर ‘घर’ लगता था.......


मैंने देखा था,
हाँ मैंने तो देखा था
शायद ‘तुम’
सोच भी न पाओ|

वो मूंह-अँधेरे उठना,
चूल्हा लीपना, या
अंगीठी जलाना,
तड़के ही शौच निवृत हो
सबके उठने से पहले नहाना,
टोक्नियाँ, घड़े ,पतीले भरना,
मन ही मन में मंत्रोचारण,
आरतियों का बुदबुदाना|
संग-संग पूरा घर बुहारना,
रात के बचे बर्तनों को
चूल्हे की राख से माँज,
स्वयं पौंचा लगाना|



न–न मैंने नहीं किया|
बस देखा नानी ,दादी
मम्मी ,मामी, बुआ, चाची को|
चप्पल ,जूते नज़दीक न फटकने देती,
न खाने देती बिन नहाए कुछ|
काम नहीं कराती थीं,
ख़ुद ही को तो खठाती थीं|
दूध ,सब्जी-रोटी, मठ्ठा, दाल
सब मिल-मिल कर बनाती थीं|
चूल्हे की आग ठंडी होने तक
कुछ न कुछ पकाती थीं|
ठंडा हमे कहाँ खिलाती थीं,
अंत में ही तो खुद खाती थीं|

नहीं, नहीं! गुस्सा नहीं झलकता था,
पल्लू तनिक न सरकता था,
लाली-लिपिस्टिक न भी हों
पर पसीने की बूंदों संग
बिंदिया ,सिन्दूर बहुत दमकता था|
चूड़ियों ,पाजेब की खन-खन से
पूरा का पूरा घर खनकता था|
हाँ, वो घर ‘घर’ लगता था|
हाँ, वो घर ‘घर’ लगता था|