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Wednesday, April 13, 2022

मेरे साहित्य-पथ को आलोकित करते कुछ प्रकाश-बिंदु


 

बाँस के बीज को भी लगते हैं कई वर्ष
कोपल निकलने से पहले
ज़मीं के नीचे जड़ फैलाने को...

सत्य ही तो है जीवन की धारा में कब कोई मोड़ कौन सा रहस्य उद्घाटित कर दे, कब किस मोड़ पर कौन आपका रहबर हो जाए, पता नहीं। यह तो भविष्य के गर्भ में है कि भूतकाल और वर्तमान का कौन सा कर्म हमें क्या फल दे जाए| हमारा कर्तव्य तो कर्म करते जाना है|
सुख-दुःख जो हमको मिले, समझो उनका मर्म|
आया है जो सामने, अपना ही है कर्म ||
 प्रारब्ध अनुसार जीवनधारा अपना प्रवाह, घुमाव और उतार-चढ़ाव स्वयं ही तय करती जाती है| यूँ भी तो कह सकते हैं कि ‘शुष्क, सख्त बीज को जब मिलता है अनुकूल वातावरण तब ही वह अंकुरित, पुष्पित-पल्लवित होता है|’ तो मैं भी कहाँ कोई अपवाद हूँ|
पढ़ाई-लिखाई के साथ कई क्षेत्रों में हाथ-आज़माइश करने के बाद ही यह पता चला कि भीतर काव्य-सृजन का बीज कहीं गहरे सुप्त अवस्था में सही समय की प्रतीक्षा में था| यूँ यदा-कदा कुछ संकेत मिलते रहे,   जिनकी पहचान भी बाद में ही हुई|
 अपने रुस्तगी समाज के आयोजनों का कई-कई घंटों तक लगातर संचालन और स्टेज के लिए लघु नाटिकाओं का लेखन-मंचन-अभिनय, बच्चों की मंचीय प्रस्तुति के लिए लेखन साहित्यिक लेखन की दिशा में शिशु-पदचाप ही थी।
लगभग एक दशक से कुछ अधिक समय इस क्षेत्र में बीत जाने के बाद सिंहावलोकन करने से एहसास  होता है कि अचानक तो कुछ नहीं होता| किसी भी फ़सल के उगने से पहले उस मिट्टी की तैयारी आवश्यक होती है अन्य कई चीजों के साथ| इसी तरह काव्य की उर्वरा भूमि भी वर्षों में साल-दर-साल तैयार होती रही थी| छोटी-बड़ी अतुकांत कविताओं (जिन्हें कोई समृद्ध कवि शायद कविता कहने में भी हिचके) के साथ मेरा काव्य-क्षेत्र में पदार्पण हुआ| भाषा या तो अंग्रेजी रही या आम-फ़हम हिंदुस्तानी जिसमें हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और हरियाणवी भाषा के शब्दों की घुसपैठ रही|
उर्दू-फ़ारसी के अल्फ़ाज़ शायद मेरे पिता की देन रहे क्योंकि आज़ादी से कुछ पहले तथा कुछ बाद तक उनकी पढ़ाई मुख्यतः उर्दू में ही रही जैसे कि उस ज़माने में अधिकांश लोगों की रहती होगी। हरियाणवी मेरे ननिहाल से स्वतः चली आई, दिल्ली की खड़ी बोली में उत्तर प्रदेश की भाषाई-मिठास ससुराल की देन रही| मैं तो भाग्यशाली रही कि घर में पति और श्वसुर जी का कविता के प्रति लगाव रहा और सोशल मीडिया के पटल ने मुझे अभिव्यक्ति का मंच उपलब्ध कराया| रचनाओं को भारत ही नहीं विदेशों में रहने वाले पाठकों की सराहना भी मिली|
पहले काव्य-संग्रह के प्रकाशन के लिए प्रकाशकों के चक्कर नहीं लगाने पड़े। दैनिक जागरण, अबोहर, पंजाब के प्रवीण कथूरिया जी और ट्रिब्यून के राज सदोष जी ने पहला काव्य-संग्रह ‘स्वप्न श्रृंगार’ प्रकाशित कर जैसे दिवास्वप्न सच कर दिया और इस तरह कविता ने मेरी मेरा भी दिल्ली से बाहर आवागमन आरंभ कराया| कुछ स्मृतियाँ आनंद दे जाती हैं जैसे कि २४ जुलाई २०११ को अबोहर में पुस्तक का भव्य लोकार्पण और फ़ाज़िल्का बॉर्डर पर मेरे हाथों भारत की सीमा पर तैनात जवानों को मिठाई वितरित करवाना| कहाँ कोई प्रकाशक कवि-लेखक के लिए इतनी ज़ेहमत उठाता है| कोई प्रकति-प्रेमी आसानी से ‘स्वप्न-श्रृंगार’ की रचनाओं का कलेवर समझ सकता है क्योंकि मुझ स्वयं को वे उस प्राकृतिक स्थल की भांति लगती हैं जहाँ मानव ने अपनी तरक्की और तकनीक से अधिक छेड़-छाड़ न की हो|
दूसरा काव्य-संग्रह ‘अरमान’ बीकानेर, राजस्थान के  शिक्षक-संपादक-प्रकाशक नदीम अहमद जी ने सम्पादित, प्रकाशित किया| हैरत की बात तो यह कि यह सब उनसे बिना व्यक्तिगत तौर पर मिले हुआ| मेरी तस्वीर जो उन्होंने किसी और के ग़ज़ल संग्रह के लिए मंगवाई थी वह मेरे ‘अरमान’ का ही मुख-पृष्ठ बनी|
‘अरमान’ का आना साहित्यिक सफ़र में महत्वपूर्ण पढ़ाव रहा|
स्थापित पत्रकार अनूप तिवारी जी के माध्यम से मारवाह स्टूडियो, फ़िल्म सिटी, नॉएडा इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर संदीप मारवाह जी से मिलना हुआ और पुस्तक का भव्य लोकार्पण उन्हीं के हाथों से उसी कैंपस में हुआ| पचासों ऑनलाइन और ऑफ़लाइन अख़बारों में पुस्तक के संदर्भ में छपा और मेरे लेखन को प्रचार-प्रसार मिला विशेषकर मेरी अपनी दिल्ली और एन सी आर में| संदीप जी जैसे प्रभावी वक्ता द्वारा पुस्तक में विशेष समीक्षा भी प्रकाशित हुई और सूत्रपात हुआ उनके द्वारा हर वर्ष आयोजित होने वाले ‘ग्लोबल लिटरेरी फेस्टिवल’ के  काव्योत्सव में प्रतिभागिता करने का| ‘अरमान’ की रचनाओं के सम्बन्ध में कही यह बात मैं भूली नहीं आज भी- ‘ये छोटी-छोटी, सहज-सरल ज़ुबान में लिखी कवितायें ही आज के ज़माने के युवा वर्ग को आकर्षित करेंगीं, आज के जेट-स्पीड युग में लम्बी तथा क्लिष्ट भाषा की रचनाएं कहाँ जगह बना पाएंगी उनकी दिनचर्या में’| यद्यपि साहित्यिक भाषा और खंड काव्यों का अपना विशेष महत्त्व है किन्तु एक नव-लेखिका को प्रोत्साहित कर उन्होंने अपना बड़प्पन दिखाया | ग्लोबल लिटरेरी फेस्टिवल में सम्मानित होने का मौका तो हर वर्ष मिला किंतु अभी हाल ही, २०२१ में अंतरराष्ट्रीय डॉ. सरोजिनी नायडू अवार्ड प्राप्त होना अति विशेष उपलब्धि रही|

उसी वर्ष, २०१२ में, जयपुर से बोधि-प्रकाशन के माया मृग जी ने संयुक्त-काव्य-संग्रह ‘स्त्री होकर सवाल करती हो--कमाल करती हो’ में  मेरी कविताओं को स्थान देकर संयुक्त-काव्य-संग्रहों का भी श्रीगणेश कर दिया| बाद में तो दिल्ली के हिन्दी-युग्म से ‘तुहिन’, अयन प्रकाशन से ‘कविता अनवरत-१’, महफ़िल-ए-गंग-ओ-जमन से ‘गुलदस्ता-ए-गंग–ओ-जमन’  और प्रभात प्रकाशन से ‘स्वच्छता का दर्शन’,  ग़ाज़ियाबाद के मांडवी प्रकाशन से ‘अपने-अपने सपने’, अमरोहा के एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस(उर्दू) से ‘जहाने-ग़ज़ल’ समय-समय पर संयुक्त काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए।
यूँ साहित्यिक यात्रा चल पड़ी| गद्य-पद्य लेखन के इस सफ़र में साहित्याकाश के कितने ही चमकते सितारों की रोशनी ने मेरी नन्ही क़लम को उर्जा दी, कह पाना नामुमकिन तो नहीं पर बहुत आसान भी नहीं| विभिन्न पत्रकारों में बालाघाट के रहीम खान जी तब से अब तक अनवरत उत्साहवर्धन करते आ रहे हैं| देश के विभिन्न समाचार पत्रों में मेरी कविताओं और अन्य कलाओं के संदर्भ में लेख प्रकाशित हुए उनके द्वारा।
पंडित सुरेश नीरव जी के संपर्क में आने के बाद उनकी संस्था सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति से जुड़कर कई साहित्यिक यात्राएँ कीं| काव्य-पाठ और मंच संचालन उनके सानिध्य में करते हुए उनके पांडित्य से प्रभावित हुए बिना कोई रह नहीं सकता विशेषकर नामों को रोचक अंदाज़ में विश्लेषित करना| उनका यह गुण चकित भी करता है और शब्द की क्षमता से परिचय भी कराता है| मुझे उनकी एक और ख़ासियत  व्यक्तिगत तौर पर सकारात्मक ऊर्जा देती है और वह है विज्ञान का विद्यार्थी होते हुए भी वे हिन्दी,  संस्कृत के साथ-साथ उर्दू-अंग्रेजी में भी गद्य और पद्य में सशक्त हस्तक्षेप रखते हैं| उन्हीं के सुझाव पर मैं ‘ट्रू-मीडिया’ पत्रिका से साहित्यिक संपादक के रूप में जुड़ी और पत्रिका संपादन के साथ -साथ काव्य के विभिन्न पुरोधाओं के साक्षात्कार लेने का अनुभव हुआ|
अंतर्राष्ट्रीय कवि-गीतकार डॉ कुँअर बेचैन जी का विस्तृत साक्षात्कार भी इसी श्रंखला में लिया| यूँ तो डॉ साहेब के साथ कभी कवि रूप में और कभी संचालक के रूप में मंच साझा किया किंतु इस साक्षात्कार ने अस्ल कुँअर सक्सेना जी से मिलवाया| उनके कृतित्व के साथ-साथ व्यक्तित्व के भी गुह्य पक्षों का जानने का अवसर मिला| कुँअर जी की सरलता, सहजता और साहित्यिक प्रतिभा के विषय में जानकर मेरा  सर स्वतः ही उनके नमन में झुक जाता है| कुँअर जी की
एक-दो नहीं वरन अनेक बातें जीवन में उक्ति बन  सत्यापित होते दिखती रहती हैं| मेरे तीसरे काव्य-संग्रह ‘अभी तो सागर शेष है...’ में पंडित सुरेश नीरव जी के साथ-साथ डॉ कुँअर बेचैन जी द्वारा लिखित भूमिका ने संग्रह को अतिविशेष बना दिया| ‘जो बहता है वह रहता है, जो रुक गया वह चुक गया’- भूमिका में लिखा कुँअर जी का यह कथन सदैव सक्रिय रहने को प्रेरित करता है|
 ‘अभी तो सागर शेष है’ कई संदर्भों में विशेष है इसके अतिरिक्त| अमृत प्रकाशन से इसके प्रकाशन के दौरान प्रसिद्ध शायर मंगल नसीम जी से बहुत कुछ सीखने को मिला| ‘हर शब्द की अपनी लंबाई-मोटाई होती है और उसी के अनुरूप उसका प्रयोग भी होना चाहिए’- मंगल नसीम जी का यह कथन भी एक सूत्र वाक्य है रचनाकर्म में संलग्न मुझ सरीखे सभी लोगों के लिए। संपादन के दौरान उनका यह कहना-‘पूनम! ज़रा इस कविता की ये पंक्तियां या मिसरा एक बार फिर देख लो’ ही काफ़ी होता था यह  समझाने के लिए कि कहीं कुछ गड़बड़ है जो ठीक करनी है| उनके मानकों पर लेखन को कसना आसान नहीं किंतु कविता की बारीक़ियों को सीखने का इससे अच्छा मौका और क्या मिलता|

अतुकांत से तुकांत, छन्दबद्ध विशेषकर ग़ज़ल का रास्ता मुझ जैसी विज्ञान की छात्रा और अध्यापिका, जिसने अधिकांश शिक्षा अंग्रेज़ी में ही ग्रहण की हो, के लिए आसान नहीं रहने वाला था-यह तो भान था ही| सुरेश नीरव जी ने तो यह तक कह दिया था कि ‘कहाँ मीटर-क़ाफ़िया-रदीफ़ के चक्करों में फँस रही हो, इतनी अच्छी भाव-प्रधान, श्रृंगार और सामाजिक सरोकारों की कविता लिखती हो, वही करो’। कहते हैं ना! जिस ओर जाने को मना किया जाए वही दिशा अपनी ओर आकृष्ट करती है और चैलेंज भी|
सर्वेश चन्दौसवी जी, डॉ आदेश त्यागी जी और मनु भारद्वाज जी अदब की दुनिया की वे  ख़ास शख्सियात हैं जिन्होंने शायरी की दुनिया में मेरे क़दमों को ज़मीन और सोच को आसमां दिया| यूँ तो बाक़ायदा उस्ताद-शागिर्द का रिश्ता नहीं बना किंतु डॉ. त्यागी अब भी काव्य-चौपाल के माध्यम से नि:स्वार्थ काव्य-लेखन की विशिष्ट बातें बताते हैं और मैं तथा अन्य कुछ मित्र नित्य नया कुछ सीखते हैं| साथ ही साथ हमारी अंतस् संस्था को भी उनका मार्गदर्शन मिलता है संस्था के परामर्शदाता के रूप में| उनका  ये शे’र  उनकी शायराना कैफ़ियत का आइना है, ‘यूँ नहीं ज़रखेज़ होती शायरी की सरज़मीं/ अश्को-ख़ूं की आबपाशी है मेरे अश’आर में| सर्वेश जी का ज्ञान और साहित्यिक प्रदेय तो सभी सुख़नवरों के लिए ख़ज़ाना है और रहेगा|
लिखने को तो एक-एक साहित्यकार के विषय में एक निबंध लिखा जा सकता है जिनके व्यक्तित्व-कृतित्व ने प्रभावित किया किंतु इस लेख की शब्द-सीमा में यदि मैं डॉ प्रवीण शुक्ल और डॉ कीर्ति काले का ज़िक्र न करूं तो यह अधूरा ही रहेगा| कविता, गीत, ग़ज़ल, मंच-संचालन तो प्रशंसनीय है ही, साथ ही उनका परिवार और मित्रों के प्रति व्यवहार भी अनुकरणीय है| इसी तरह डॉ कीर्ति काले भी एक विश्व-प्रसिद्ध कवयित्री होने के साथ-साथ सहजता से मित्रवत स्नेह देती हैं| उनका काव्य-लेखन और प्रस्तुति सुख देता है| ‘इक चमकता काँचघर है लड़कियों की ज़िन्दगी’ उनके गीत की पंक्ति बख़ूबी हम लड़कियों की स्थिति बयां करती है और मुझे विशेष रूप से उद्वेलित करती है|
डॉ हरीश नवल जी को तो अधिकांशत: व्यंग्यकार के रूप में सभी जानते हैं किंतु शिक्षक रूप में मैंने देखा जब
हिन्दी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान उन्होंने मुझे संक्षेप में हिन्दी नाटकों, कहानियों उपन्यासों का सार तत्व समझाया| साथ ही विदेश मंत्रालय की पत्रिका ‘गगनांचल’ के संपादक की महनीय भूमिका का निर्वहन करते हुए भी उन्होंने ‘गाय’ पर मेरे द्वारा रचित शोध-गीत को पत्रिका में स्थान देकर साबित किया कि कविता में तत्व हो तो ‘कवि नया है अथवा स्थापित’ महत्त्व नहीं रखता| साहित्यिक सक्रियता एवं वैविध्य डॉ नवल की विशेषता है| अभी एक-दो माह पहले ही कोरोना काल की विभीषिका में भी उन्होंने अवसाद में अवसर ढूंढ ‘कच्ची मिट्टी सौंधी महक’  नाम का संकलन सम्पादित किया जिसमें अन्य बत्तीस रचनाधर्मियों के साथ मेरा भी एक  ‘बचपन के प्रेरक संस्मरण’ विषयगत लेख संकलित किया है|
 अविस्मरणीय है मेरे लिए विधि भारती परिषद की सचिव एडवोकेट संतोष खन्ना जी का स्नेह| उन्हीं की  पहल से ‘मैग्सेसे अवार्ड विजेता-केन्द्रित’ जो काव्य-संग्रह आ रहा है उसमें मेरे द्वारा रचित शोध कविता भी होनी चाहिए, कोविड और अन्य परेशानियों के बीच भी वह नहीं भूलीं| गत वर्षों में भी विधि भारती परिषद् द्वारा प्रकाशित ‘समकालीन हिन्दी उपन्यासों में महिला लेखन’ तथा ‘भारत में चुनाव, हिन्दी की भूमिका और चुनाव-सुधार’ में मेरे शोध-आलेख प्रकाशित हुए हैं|
दिल्ली पार्लियामेंट में कार्यरत प्रसिद्द कहानीकार डॉ अनुज कहानी लेखन के अतिरिक्त पहले ‘कथा’ और फिर ‘कथानक’ पत्रिका के संपादन में संलग्न हैं| ‘मंचीय तथा मुख्य धारा के कवियों का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध आलेख उन्हीं के सुझाव पर कथानक  पुस्तक के लिए मैंने लिखा| कथानक के कविता विशेषांक में यह आलेख मेरे लिए गद्य लेखन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही है|  
   इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती  के पूर्व अध्यक्ष डॉ राम चरण गौड़ जी का पितृ तुल्य स्नेह और उनकी सरपरस्ती में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा सुनियोजित गुजरात की दोनों साहित्यिक यात्राओं में मेरे अनुभव को विस्तार मिला जो संस्मरण रूप में ‘शोषण और अन्याय का प्रतिकार-दांडी मार्च’ पुस्तक में संकलित हुआ|
सीखने की कोई उम्र नहीं होती और प्रेरक व्यक्तियों का भी अपूर्व सान्निध्य मिलता रहा है | पूरी उम्मीद है कि जीवन में आये और आगे आने वाले प्रकाश-पुंजों के सन्दर्भ में आगे भी लिखती रहूँगी|
विभिन्न संस्थाओं की सक्रिय सदस्य तथा अंतस् की अध्यक्ष का दायित्व निभाते हुए यह मुझे विदित है कि काव्यलोक संस्था के लिए राजीव सिंघल जी तथा उनसे जुड़े हम सभी के लिए प्रथम वर्षगाँठ क्या मायने रखती है| इस अवसर पर पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक के प्रकाशन हेतु राजीव जी को साधुवाद एवं शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ| यूँ ही साल दर साल अपनी कविताओं, गीत-ग़ज़लों के साथ-साथ काव्यलोक के माध्यम से साहित्य विशेषकर हिन्दी साहित्य की सेवा करते रहें|

 

पूनम माटिया


 

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