बड़ी सी बचपन की छत
दूर तक फैला था गगन
बादलों में बनती बिगडती
आकृतियों संग जुड़े थे स्वप्न
आज बंद,
चौकोर सा कमरा
कमरे की छोटी सी छत
बस उतने में ही सिमटी
रह गयी अब हर हकीकत
अनन्त, बिन कोने का
गोलाकार आकाश था कैनवस
ज़माने के बदले रंग ढंग
कैनवस में भी आ गई सिकुडन
चकरी की भाँति
अपनी ही धुरी पे घूमता
छत से लटका पंखा
अपना सा है लगने लगा
सोच का दायरा
बड़ा भी लें
तो आखिर कितना
आवाज़ टकरा के
लौट आती है
दीवारों से तुरंत
सिर्फ मेरा ही नहीं
हाल है ये हर उस शख्स का
जिसने देखी होगी कभी
तारों की अनंत दीपशिखा
अपनी ही मुठ्ठी में
कैद करने की संजोई होगी चाह
भागम -भाग, छुपन -छुपाई
खेल-२ में चढ़ाई होगी श्वास
बिस्तर पे लेटते ही
नानी-दादी से सुने होंगे किस्से
और बातों बातों में नींद
ले लेती होगी आगोश में
आज नींद रहती कोसों दूर
कूलर ,ए सी भी अक्षम
शरीर खुद को लगे है बोझ
न खेलने में, न काम में सक्षम
केवल बिजली सी रफ़्तार
और दौड़ रहा है दिमाग
न चैन-ओ-करार
न पल भर को आराम
बस बंद हैं कमरे
और सपनो को लगी लगाम...................... पूनम
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