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सभी रंग जहाँ के
इक तितली में
सिमट आये हैं
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पंख निकल आये हैं|
हथेली खोलकर
उड़ा दिए नभ में
दिल में रखकर
भी क्या होता?
क्यूँ न ये
परवाज़ पा जाएँ?
क्यूँ न ये
अम्बर नाप आयें ?
क्यूँ भीतर ही भीतर
दबा के इनको
दफ्न कर दें
अपनी हर चाह को ?
ज़मी पे रहें
आज पाँव, बेशक
जंजीर ज़माना
पहनाये , बेशक
न कोई बंदिश
न पहरा कोई
खुला हो गगन
न सैयाद कोई
उड़ के क्षितिज को
क्यूँ न आज छू लें?
बंद मुठ्ठियों से निकलके
शायद ये ‘तितली’
आफ़ताब छू ले !!! ......
पूनम माटिया'पूनम'
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