हृदय अपनी गति से
चलता जाता है
वक़्त भी किसी के रोके
कहाँ रुक पाता है
पर, हम रुकते हैं
थामते हैं खुद को
सोचते हैं, जाँचते-परखते हैं
अपनी ही सोचों की गहराई
अपने ही कार्यों का फैलाव
मापते हैं और जानते हैं
जो किया वो मात्र इक बूँद है
अभी तो सागर शेष है |
यह सोच फिर दौड़ने को
कर देती है प्रेरित
समय कितना है, पता नहीं
जाना कहाँ है, दिशा नहीं
बदहवास से, एक अनजानी राह पे
फिर चल देते हैं क़दम
चुनते हुए अपनी पसंद के फूल
हटाते हुए अपनी ही राहों के शूल
और इसी मादक दौड़ में
जाने–अनजाने, कहीं किसी राह पे
रह जाते हैं हमारे क़दमों के निशां
जो शायद किसी रोज़
किसी को राह दिखायें
किसी अनजान, दिग्भ्रमित को
दिशा नयी दे पायें
बूँद, बूँद सहेजे हुए ये पल
शायद सागर तक ले जायें|
पूनम माटिया
(अभी तो सागर शेष है - काव्य-संग्रह -2015)
बदहवास से,एक अनजानी राह पर
ReplyDeleteफिर चल देते हैं, कदम
चुनते हुए अपने कदम के फूल
हटाते हुए अपने राहों के शूल
शव्द अपने आप में सारी बातों की व्यख्या कर रहा है ।।
सुंदर
बहुत बहुत आभार ..आप मेरे ब्लॉग पर आये और इस शीर्षक कविता को पढ़ा और मेरा उत्साहवर्धन किया ...... अभी तो सागर शेष है .मेरा तीसरा काव्य संग्रह है जो २०१५ में दिल्ली से प्रकाशित हुआ था
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