कोई कहता है-मनुष्य स्वभाव से ही #आलसी है, कोई कहता है-#बदलाव जल्दी पसंद नहीं आता इसे। इसलिए ही इस #कोरोना #प्रतिबंधन का लाभ उठा रहे हैं हम। पहले घर में टिकते नहीं थे, अब घर से निकलने का मन नहीं करता।
क्या यह आलस है?
क्या यह कोरोना का डर है? या बदलाव से मुँह मोड़ना?
यदि मैं कहूँ तो-
नहीं!
न आलस है, न डर
न ही लचीलेपन की कमी।
यह है-एक नया #एहसास
नया इसलिए कि कभी चखा ही न था हमने इसका स्वाद
यह सन्तुष्टि है #अंतर्मन की,
यह अनचाही भाग-दौड़ से मिला तनिक विश्राम है,
ये जिज्ञासा है स्वयं को जानने की
ये कोशिश है
अपनी लघु इच्छाओं को पहचानने की
माना कि थक जाती हूँ करते-करते घर का काम,
माना कि चाहती हूँ कर लूँ थोड़ा आराम,
कुछ पल ठहर लूँ अपने ही साथ,
कुछ पल तो सुन लूँ अपनो की बात।
ऐसा नहीं कि ललचाता नहीं #आभासी संसार
खींचता रहता है ये चुम्बकीय शक्ति से
वो-जो दिखाई नहीं देती पर रखती है ताकत
मुझसे मुझको चुरा लेने की
फिर उसी व्यर्थ की खींचा-तानी में।
आख़िर तो #माया है फैलाती है जाल
जन्म से मृत्यु तक!
माया ठगती है, स्वप्न दिखाती है,
उड़ाती है अंतहीन आकाश में, और
पल में धरा पर ले आती है।
सोचती हूँ -बाँध लूँ इन सपनों को,
सीमाहीन जगत में सीमित कर लूँ
अपने सपनों का फैलाव
कि अतिक्रमण करता है ये #प्रकृति की स्वच्छन्दता का,
कि बिगाड़ता है #संतुलन।
बस! यही सोच होने लगी है हावी
रोक लेती है अब फिर उसी दौड़ में शामिल होने से।
नहीं! ये आलस नहीं!
इसमें #सन्तुष्टि है, सुख है, किन्तु!
रुकना नहीं बस करना है गति को मंथर
केवल #मंथर, सतत समय के बहाव में रहते हुए ।
पूनम माटिया
क्या यह आलस है?
क्या यह कोरोना का डर है? या बदलाव से मुँह मोड़ना?
यदि मैं कहूँ तो-
नहीं!
न आलस है, न डर
न ही लचीलेपन की कमी।
यह है-एक नया #एहसास
नया इसलिए कि कभी चखा ही न था हमने इसका स्वाद
यह सन्तुष्टि है #अंतर्मन की,
यह अनचाही भाग-दौड़ से मिला तनिक विश्राम है,
ये जिज्ञासा है स्वयं को जानने की
ये कोशिश है
अपनी लघु इच्छाओं को पहचानने की
माना कि थक जाती हूँ करते-करते घर का काम,
माना कि चाहती हूँ कर लूँ थोड़ा आराम,
कुछ पल ठहर लूँ अपने ही साथ,
कुछ पल तो सुन लूँ अपनो की बात।
ऐसा नहीं कि ललचाता नहीं #आभासी संसार
खींचता रहता है ये चुम्बकीय शक्ति से
वो-जो दिखाई नहीं देती पर रखती है ताकत
मुझसे मुझको चुरा लेने की
फिर उसी व्यर्थ की खींचा-तानी में।
आख़िर तो #माया है फैलाती है जाल
जन्म से मृत्यु तक!
माया ठगती है, स्वप्न दिखाती है,
उड़ाती है अंतहीन आकाश में, और
पल में धरा पर ले आती है।
सोचती हूँ -बाँध लूँ इन सपनों को,
सीमाहीन जगत में सीमित कर लूँ
अपने सपनों का फैलाव
कि अतिक्रमण करता है ये #प्रकृति की स्वच्छन्दता का,
कि बिगाड़ता है #संतुलन।
बस! यही सोच होने लगी है हावी
रोक लेती है अब फिर उसी दौड़ में शामिल होने से।
नहीं! ये आलस नहीं!
इसमें #सन्तुष्टि है, सुख है, किन्तु!
रुकना नहीं बस करना है गति को मंथर
केवल #मंथर, सतत समय के बहाव में रहते हुए ।
पूनम माटिया
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 20 मई 2020 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
@Pammi जी हार्दिक धन्यवाद आपका और http://halchalwith5links.blogspot.in
Deleteका मेरी कविता को आज के पाँच लिंकों में शामिल करने के लिए
बेहतरीन रचना सखी,जीवन की जद्दोजहद को साकार किया है आपने🙏🙏😊😊
ReplyDeleteअभिलाषा जी नमस्कार और आभार
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