प्रकृति से दूर हो रहें हैं हम
काफी कुछ खो रहे हैं हम
अपनों की बात क्या करें
खुद से भी दूर हो रहे हैं हम
सृजन तो हो रहा है अब भी
सुकून दिल का खो रहे हैं हम
दूर की आवाज़ सुन लेते है
मौन अंतर में बो रहे हैं हम
विश्व को परिवार बनाने चले
निज नाते रिश्ते खो रहे हैं हम
जानते बूझते मूक बधिर बने
इस जिंदगी को ढो रहे हैं हम .......................पूनम
पूनम माटिया जी
ReplyDeleteजय सिया राम!
अब कलियुग अपना अपना प्रभाव तो दिखाएगा ही. क्या कीजिएगा...
जय सिया राम सुमित जी स्वागत है .......
Deleteकलियुग के रंग अपना असर दिखा रहे हैं
लोग भी देखो आसानी से रंगे जा रहे हैं .........:)
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (11-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
नमस्कार वंदना जी ......शुक्रियाचर्चा मंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु ....
Deleteकल रात को आप से मिलती हूँ वहां ....कल दिन में आप सब मित्र गण की दुआओं से और ईश्वर की कृपा से एक अवार्ड मिल रहा है ......वहीँ व्यस्त रहूंगी ....:)
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया यशवंत जी
Deleteपूनम जी बहुत ही सुन्दर कविता |आभार
ReplyDeleteजय कृष्ण राय जी आभार तो आपका
Deleteजो मेरी रचना को समय और स्नेह दिया
बहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteगहन भाव समेटे रचना..
अनु
शुक्रिया अनु
Deleteअपनों की बात क्या करें
ReplyDeleteखुद से भी दूर हो रहे हैं हम
दूर की आवाज़ सुन लेते है
मौन अंतर में बो रहे हैं हम
जानते बूझते मूक बधिर बने
इस जिंदगी को ढो रहे हैं हम
======सच लिखा--बहुत खूब लिखा-वाह !========
ओम जी ......आपने पढ़ा और सराहा .....उत्साहवर्धन के लिए आभार
Deleteअपनों की बात क्या करें
ReplyDeleteखुद से भी दूर हो रहे हैं हम
- यही सच है .
जी प्रतिभा जी .......:(.
Deleteशुक्रिया मेरी रचना को अपना कीमती समय देने हेतु
काशा सब समेट पाते ।
ReplyDeleteसंगीता जी .....सच समझना ज़रूरी भी है ........:)
Deleteबहुत सराहनीय प्रस्तुति पूनम जी .
ReplyDeleteमदन मोहन जी .......बहुत बहुत शुक्रिया .....
Deleteसीधे सीधे आपने कितनी गहरी बातें कह दी. बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना.
ReplyDeleteनिहार जी शुक्रिया ..........मुझे सीधे सादे अलफ़ाज़ में ही कहना आता है ......मै कोई हिंदी या संस्कृत या उर्दू में पारंगत नहीं .........विज्ञान की छात्रा रही हूँ ......:)
Deleteis tarah ke mayajal se nikalna ab namumkin sa lagne laga hai......dhyan akrshit krne ka aabhar
ReplyDeleteसच कहा अतुल .......माया का जाल है ......और साधारण मानव के बस में कहाँ माया से पार पाना
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