बूढ़े मां-बाप को अकेला छोड़ देना एक ज्वलंत समस्या है। पाश्चात्य देशों की नक़ल और सामाजिक मूल्यों की कमी हमें स्वार्थी बनाती जा रही है। हर कोई आगे की ओर ही देखना चाहता है। अपने बच्चों के प्रति तो अपना कर्तव्य सभी समझते हैं, पर मां-बाप, जिन्होंने जन्म दिया, उन्हें ना जाने क्यों अचानक बोझसमझने लगते हैं।
ऐसा लगता है कि जैसे भूतकाल को देखना हमें पसंद नहीं क्योंकि जो गुजर गया, वो गुजर गया। अब सभी ‘उगते सूरज को सलाम’ वाली कहावत जिंदगी में भी अपनाने करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए जो बुढ़ा हो गया, जो अब आर्थिक रूप से घर-परिवार में कोई योगदान नहीं दे सकते, उन्हें दूर कर दिया और जो आगे आर्थिक रूप से सहयोग देने वाले हैं, उन्हें सर आंखों पर बिठा लिया। ठीक वैसे ही, जैसे बलि से पहले बकरे को फूल-माला पहनाई जाती है। लेकिन, माला पहनाते वक्त यह भूल जाते हैं कि जब बच्चे आर्थिक रूप में सहयोग देने लायक होंगे, तब तक खुद वो आर्थिक रूप से बेकार हो चुके होंगे और उनके बच्चे उनके साथ ठीक वही करेंगे, जो वो देख रहे हैं। आखिर बच्चे घर से ही सब सीखते हैं और मां-बाप उसके सबसे पहले शिक्षक होते हैं, इसलिए उनकी बात वो कभी हल्के में नहीं लेते, जबतक खुद उसकी सोचने-समझने की शक्ति नहीं आ जाती।
हम इस समस्या को कुछ इस तरह से समझ सकते हैं कि जिस प्रकार कामकाजी माता-पिता बच्चों को क्रेच में बेखटके छोड़ने लगे हैं, उसी प्रकार बेटा-बहू बूढ़े मां-बाप को अकेले या ओल्ड एज होम या वृदाश्रम में छोड़ने में कुछ बुराई नहीं मानते, जबकि बुढ़ापा उम्र का वो पड़ाव हैं, जहां परिवार के सहारे और साथ की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। अकेले रहने वाले बड़ी उम्र के लोगों की सुरक्षा खतरे में होती है। शहरों में उनकी बढती हत्याएं इसका जीता-जागता उदहारण है। हम सभी को इन विषयों पर विचार कर सही दिशा में बढ़ना चाहिए।
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जैसे बच्चों को जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए बडों के सहारे की जरूरत होती हैं। इसमें जितने ज्यादा लोग और हर उम्र के लोग बच्चों को सिखाते हैं, बच्चे उतने ही ज्यादा दुनिया को समझने लगते हैं और दुनिया की समस्याओं का सामना करने में उतने ही ज्यादा सक्षम बनते हैं। उसी तरह परिवार के बूढ़े लोगों को भी बच्चों और युवाओं के साथ की जरूरत होती है। वैसे भी यह तो सिर्फ एक मानसिक अवस्था है, इससे शरीर का क्या लेना-देना? वास्तव में है क्या बुढ़ापा? जब कोई शरीर और मन दोनों से थक जाए और उसके बाद उसे लगे कि वो दुबारा वही ताजगी नहीं पा सकता... न मानसिक स्तर पर न ही शारीरिक स्तर पर... तो वो अवस्था ही बुढ़ापा है। अगर इसमें देखे, तो शारीरिक स्थिति तो समय के साथ-साथ बदलती रहती है और गिरती रहती है, थकावट बढ़ती रहती है, पर मानसिक स्तर को हमेशा थकावट से दूर रखा जा सकता है, बस अगर शारीरिक स्थिति उसे मजबूर न करे। मेरा मतलब बीमारी आदि से है। तो, फिर जब शरीर ही थक सकता है, तो बुढ़ापा कैसा! इसलिए, मानसिक स्तर पर आप हमेशा तरो-ताज़ा रह सकते हैं।
बस जरूरत है... आप अपने मस्तिष्क को कुछ नया करते रहने दें... जो उसे अच्छा लगता है, वो करने दे... हो सकता है कि चुस्ती-फुर्ती में उम्र की वजह से थोड़ी कमी आती जाए, पर बिना झिझक, बिना हिचक और बिना किसी शर्म के कि आप कितने बड़े है... कुछ नया करने का जज्बा या जो पसंद है, वो करने का जज्बा, जैसे- पतंग उड़ाना, गप्पे मारना या शैतानी करना आदि-जारी रखें। हम सभी को यह समझना होगा कि यह तभी संभव है, जब बड़े-बूढ़े परिवार के बीच रहे और अकेला ना महसूस करें........पूनम माटिया
— ऐसा लगता है कि जैसे भूतकाल को देखना हमें पसंद नहीं क्योंकि जो गुजर गया, वो गुजर गया। अब सभी ‘उगते सूरज को सलाम’ वाली कहावत जिंदगी में भी अपनाने करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए जो बुढ़ा हो गया, जो अब आर्थिक रूप से घर-परिवार में कोई योगदान नहीं दे सकते, उन्हें दूर कर दिया और जो आगे आर्थिक रूप से सहयोग देने वाले हैं, उन्हें सर आंखों पर बिठा लिया। ठीक वैसे ही, जैसे बलि से पहले बकरे को फूल-माला पहनाई जाती है। लेकिन, माला पहनाते वक्त यह भूल जाते हैं कि जब बच्चे आर्थिक रूप में सहयोग देने लायक होंगे, तब तक खुद वो आर्थिक रूप से बेकार हो चुके होंगे और उनके बच्चे उनके साथ ठीक वही करेंगे, जो वो देख रहे हैं। आखिर बच्चे घर से ही सब सीखते हैं और मां-बाप उसके सबसे पहले शिक्षक होते हैं, इसलिए उनकी बात वो कभी हल्के में नहीं लेते, जबतक खुद उसकी सोचने-समझने की शक्ति नहीं आ जाती।
हम इस समस्या को कुछ इस तरह से समझ सकते हैं कि जिस प्रकार कामकाजी माता-पिता बच्चों को क्रेच में बेखटके छोड़ने लगे हैं, उसी प्रकार बेटा-बहू बूढ़े मां-बाप को अकेले या ओल्ड एज होम या वृदाश्रम में छोड़ने में कुछ बुराई नहीं मानते, जबकि बुढ़ापा उम्र का वो पड़ाव हैं, जहां परिवार के सहारे और साथ की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। अकेले रहने वाले बड़ी उम्र के लोगों की सुरक्षा खतरे में होती है। शहरों में उनकी बढती हत्याएं इसका जीता-जागता उदहारण है। हम सभी को इन विषयों पर विचार कर सही दिशा में बढ़ना चाहिए।
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जैसे बच्चों को जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए बडों के सहारे की जरूरत होती हैं। इसमें जितने ज्यादा लोग और हर उम्र के लोग बच्चों को सिखाते हैं, बच्चे उतने ही ज्यादा दुनिया को समझने लगते हैं और दुनिया की समस्याओं का सामना करने में उतने ही ज्यादा सक्षम बनते हैं। उसी तरह परिवार के बूढ़े लोगों को भी बच्चों और युवाओं के साथ की जरूरत होती है। वैसे भी यह तो सिर्फ एक मानसिक अवस्था है, इससे शरीर का क्या लेना-देना? वास्तव में है क्या बुढ़ापा? जब कोई शरीर और मन दोनों से थक जाए और उसके बाद उसे लगे कि वो दुबारा वही ताजगी नहीं पा सकता... न मानसिक स्तर पर न ही शारीरिक स्तर पर... तो वो अवस्था ही बुढ़ापा है। अगर इसमें देखे, तो शारीरिक स्थिति तो समय के साथ-साथ बदलती रहती है और गिरती रहती है, थकावट बढ़ती रहती है, पर मानसिक स्तर को हमेशा थकावट से दूर रखा जा सकता है, बस अगर शारीरिक स्थिति उसे मजबूर न करे। मेरा मतलब बीमारी आदि से है। तो, फिर जब शरीर ही थक सकता है, तो बुढ़ापा कैसा! इसलिए, मानसिक स्तर पर आप हमेशा तरो-ताज़ा रह सकते हैं।
बस जरूरत है... आप अपने मस्तिष्क को कुछ नया करते रहने दें... जो उसे अच्छा लगता है, वो करने दे... हो सकता है कि चुस्ती-फुर्ती में उम्र की वजह से थोड़ी कमी आती जाए, पर बिना झिझक, बिना हिचक और बिना किसी शर्म के कि आप कितने बड़े है... कुछ नया करने का जज्बा या जो पसंद है, वो करने का जज्बा, जैसे- पतंग उड़ाना, गप्पे मारना या शैतानी करना आदि-जारी रखें। हम सभी को यह समझना होगा कि यह तभी संभव है, जब बड़े-बूढ़े परिवार के बीच रहे और अकेला ना महसूस करें........पूनम माटिया
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