सोचती हूँ
तो सोचती चली जाती हूँ
जाने क्यूँ
आँखें नम हो जाती हैं
नन्ही तान्या, तरंग
तोतली जुबान में
'मम्मी ' कहती
सामने आ जाती हैं
पल-पल बड़ते, दौड़ते, भागते
खेलते हँसते-झगड़ते
देखा उनको
कभी नन्हे-२ ग्रास
खिलाती थी मैं
आज बिठा के
खाना खिलाती मुझको
नृत्य, नाटक,
गृह-कार्य, प्रोजेक्ट
रंग भरे
हर कला के उनमे
मुझे मंच के लिए अब
तैयार कराती हैं वो
डांट-डपट के
नृत्य सिखाती
नेह अपना
झलकाती हैं वो
घर भर में
रौनक है उनसे
कल दूजे घर को
सजाएँगी वो
सूना हो जाएगा आँगन
सोच के दिल
जब घबराता है मेरा
तुरंत हँसते हुए
सामने आ जाती हैं वो
अकेलापन
न खलेगा कभी
इस अहसास को पल-पल
दृढ कर जाती है वो
मेरे वज़ूद को
विश्वास की नींव
दे जाती हैं वो .........................पूनम माटिया
No comments:
Post a Comment