पिछले छह-सात दशकों में आये बदलाव आश्चर्यचकित कर जाते हैं जब हम सिंहावलोकन करते हैं जनजीवन को खेल-शिक्षा-परिवार और समाज की दृष्टि से|
सीमित संसाधनों में बीता बचपन, सत्तर का दशक आँखों के आगे चलचित्र–सा घूम जाता है|
एक कमरा और एक रसोई का छोटा-सा हिस्सा ! जिसमें हम पाँच बच्चे, मम्मी-पापा,
अम्मा-बाबा जो चौक वाले बड़े घर में किराए पर रहते थे| चौक के दूसरी ओर भी लगभग
इतना ही बड़ा परिवार और ऊपर की मंज़िल में मकान-मालिक का परिवार| अरे हाँ! हमारे
पोर्शन के साथ ही के कमरे में मकान-मालिक के छोटे बेटे का परिवार| तो लगभग सभी की
वस्तुस्थिति यही थी कि घर में जगह कम और बाशिंदे ज़्यादा|
मनोरंजन के नाम पर पड़ोस में रहने वाले बच्चों के साथ घर से बाहर गली में
रस्सा-कूदी, छिपन-छिपाई, दौड़, पिठ्ठू, खो-खो और भागने वाले सभी खेल| मतलब ये कि हम
बच्चे स्वयं और बड़े भी, यही चाहते थे कि कब खाना खा कर, पढाई का कार्य समाप्त कर
घर से बाहर निकलें और सहेलों-सहेलियों के साथ खेलें| शरीर की वर्जिश तो ख़ुद-ब-ख़ुद
हो जाती थी| फिर दौड़े आते थे घर को, कुछ खाने-पीने| घर के भीतर खेलने वाले तो कुछ
ही खेल थे जैसे कैरम, चैस(शतरंज), गिट्टे और लूडो का देसी-वर्ज़ंन जो इमली की गिटकों
और बटनों की गोटियाँ बना कर खेलते थे|
घर में ले-दे के एक रेडियो और एक छोटा-सा
ट्रांजिस्टर हुआ करता था जो मनोरंजन और बाहरी संसार की जानकारियों का साधन हुआ
करता था और पापा यही कहते थे कि हिन्दी-अंग्रेज़ी दोनों अखबार पढ़ो, साथ में रेडियो
पर भी दोनों भाषाओं की ख़बरें सुनो| इसी चक्कर में कभी-कभी पंजाबी और उर्दू के
समाचार भी सुन लेते थे हम| पूरी बात का लब्बो-लबाब यह कि घर के बाहर के खेल बहुत
ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे बच्चों की दिनचर्या में| इसके साथ ही घर में
टेलीविजन का न होना भी खेल-कूद और कहानियाँ-उपन्यास पढ़ने का एक विशेष कारण था|
आज के ज़माने के बच्चे और कुछ बड़े भी उस समय के खेलों का अंदाज़ा नहीं लगा सकते और
आँखें बड़ी करके व्हाट्सअप पर फ़ॉर्वर्डेड विडियो इत्यादि में वे खेल और बच्चों की
उन्मुक्त हँसी देखते हैं| दरअसल, पिछले कुछ दशकों में विकास या कहें बदलाव की गति
बहुत तेज़ रही है विशेषकर तकनीकी के लिहाज़ से|
मुझे याद आ रही है एक फ़ीचर फ़िल्म ‘दर्द का रिश्ता’ जिसमे पहली बार ‘लैंडलाइन
टेलीफोन से हटकर ‘पेजर’ का प्रयोग दर्शाया गया था जो कुछ ख़ास लोगों जैसे कि
डॉक्टर्स, पुलिस, आर्म्ड फोर्सेज इत्यादि के प्रयोग के लिए होते थे| देखते-देखते ही
पेजर की जगह मोबाइल फ़ोन्स ने ले ली और ऐसे कि आज एक छोटी धनराशि में स्मार्ट फ़ोन
हर एक के हाथों में आसानी से उपलब्ध है
चाहे वह रिक्शा चलाने वाला हो या कोई घरों में बर्तन-सफ़ाई आदि का काम करने वाली
मेड|
आम विद्यालयों में बच्चों के लिए इनका प्रयोग यद्यपि वर्जित है किन्तु फिर भी
बच्चे छुप-छुपाकर इनका प्रयोग करते हुए देखे जा सकते हैं| मुद्दे की बात यह है कि
तकनीक का विकास और संयुक्त परिवारों का टूटकर एकल परिवारों में बंट कर बिखर जाना
कारण बना है बच्चों का घर में क़ैद हो जाने का| बच्चे सारा समय टेलीविज़न या कंप्यूटर या
मोबाइल से चिपककर सारा समय शारीरिक व्यायाम वाले खेलों से दूर हो गए हैं, और दूर
होते जा रहे हैं| कुछ गिने-चुने बच्चे ही घर के आराम से बाहर निकल कर क्रिकेट,
फुटबॉल, टेनिस इत्यादि स्पोर्ट्स के लिए तन-मन से मेहनत करते हैं| एकल परिवारों
में दोनों अभिभावक यानी मम्मी–पापा ही अधिकांशत: कामकाजी होते हैं इसलिए अपने
बच्चों के सन्दर्भ अधिक सुरक्षा चाहते हैं, घर से बाहर निकलने नहीं देते, ओवर
प्रोटेक्टिव रहते हुए अन्य बच्चों से मिलने-जुलने (मिक्स-अप होने) नहीं देते| इसी के
चलते अपने बच्चों को इंडोर/घर में खेले जाने वाले खेलों में व्यस्त देखना चाहते
हैं| इस तरह यह सिमट कर एक हथेली में समा जाने वाले मोबाइल तक सीमित हो कर रह गया
है| छोटी-बड़ी आँखों पर बड़े-बड़े नंबर वाले चश्मे और उंगलियाँ एक मशीन की तरह मोबाइल
या टेबलेट कंप्यूटर पर चलती हुईं| दिमागी भाग-दौड़ शारीरिक व्यायाम का स्थान चुरा लेने में
कामयाब हो गयी है | खेलों में खेल रह ही नहीं गए केवल मार-धाड़ और रेस वो भी केवल
उँगलियों और दिमाग की |
यह शोचनीय और चिंतनीय स्थिति है हमारी भावी पीढ़ी के लिए|
सोने पे सुहागा पान्डेमिक(महामारी) कोविड ने कर दिया| लॉकडाउन में बिज़नस और ऑफिस इत्यादि घर में आ गए तो आभासी दुनिया
बच्चों के लिए अनिवार्य आवश्यकता हो गयी| खेल तो खेल पढ़ाई का जरिया भी मोबाइल हो गए हैं| ज़रूरत–बेज़रूरत
मोबाइल ज़िन्दगी का, जीवन-शैली का अंग बन गए हैं| ऐसे में खेल !!!!!!!!!!!! खेल
के लिए बच्चों का बाहर निकलना, पास-पड़ोस के अन्य बच्चों से मिलना, मिलकर समूह में
खेलना , खेल-भाव को सीखना, आत्मसात करना हमारी सोच, व्यवहार और प्रयासों में शामिल
होना चाहिए| मानसिक संतुलन को स-शक्त करने लिए भी खेल विशेषकर सामूहिक खेल आवश्यक
हैं|
उन्नत समाज में परम्पराओं की जगह कायम रहनी उतनी ही आवश्यक है जितनी नवीन
आविष्कारों और खोजों की| मजबूत जड़ें भरे-पूरे वृक्ष की बुनियाद होती हैं| अत:
उन्नति के सकारात्मक पक्ष को अपनाते हुए अवनति से बचा जा सकता है| शिक्षा और खेल
दोनों ही पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बने
रहने चाहिए क्योंकि वे नैतिक मूल्यों और संस्कारों को पोषित करते हैं| परिवार,
समाज, देश और विश्व का मजबूत आधार बनते हैं|
बढ़िया लेख..सच मे ये एक चिंतनीय विषय है कि... हम भाबी पीढ़ी को क्या बना रहेह8
ReplyDeleteधन्यवाद नरेश
ReplyDeleteलेख पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के लिए। सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास हेतु खेलों का महत्त्व अत्यधिक है