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Friday, August 24, 2012

जीवन चक्र


यही प्रकृति है इस देह की 


जब तक रहती है आत्मा विराजमान 


मानव देखता है स्वप्न नए 


रचता रहता है नए कीर्तिमान 


अंतकाल फिर मिलती है काया ‘उसमे’


मिट्टी हो जाती है फिर मिट्टी 


खोकर अपना आस्तित्व इस धरा में 


एकाकार होता है ईश से 


नव निर्माण के लिए आतुर,और 


पाकर गोद इस नर्म धरती की 


अंकुरण होता है फिर 


जैसे कोई कोमल कोपल नयी 


फैलाती है शाखाएं 


इस दिशाहीन जगत में 


रचती है जाल रेखाओं का 


मायाजाल अनगिनत आशाओं का 


चक्र चलता रहे युहीं अंतहीन 


जन्म ,मरण और फिर जन्म कहीं 


भ्रमित है मानव, संभवतः


क्या, क्यों और कहाँ 


होना है स्थिर मुझको अंततः...........पूनम (SS)

2 comments:

  1. आपने अकाट्य सत्य कहा है फिर भी हम सभी मायाजाल में फंसे हुए है। सत्य सब जानते है की शरीर मिटटी है पर मानने को कोई तैयार नहीं है। आपका प्रयास सराह्निये है।

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  2. हाँ अतुल .......सत्य को जानने वाले बहुत होते हैं ..........कहने वाले कम ..........और मानने वाले और भी कम ...........यही कारण है की मानव माया जाल में फंसा रह जाता है ..........आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार

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